विक्रमादित्य के स्वर्ण सिंहासन से निकली उन्नीसवीं पुतली, रूपरेखा ने, राजा भोज को, विक्रमादित्य की महानता का वर्णन करते हुए उन्नीसवीं कहानी सुनायी | उसने बताना आरम्भ किया | राजा विक्रमादित्य के व्यवहारिक ज्ञान, बुद्धि और न्याय की ऐसी धाक थी कि उनके दरबार में लोग अपनी समस्याएँ लेकर न्याय के लिए तो आते ही थे, कभी-कभी उन प्रश्नों को लेकर भी उपस्थित होते थे जिनका कोई समाधान उन्हें नहीं सूझता था ।
विक्रमादित्य उन प्रश्नों का ऐसा सटीक हल निकालते थे कि प्रश्नकर्त्ता पूर्ण सन्तुष्ट हो कर जाता था । ऐसे ही एक विचित्र प्रश्न को लेकर एक दिन दो तपस्वी उनके दरबार में आए और उन्होंने विक्रमादित्य को अपने प्रश्न का उत्तर देने की विनती की ।
उनमें से एक तपस्वी का मानना था कि मनुष्य का मन ही उसके सारे क्रिया-कलाप पर नियंत्रण रखता है और मनुष्य कभी भी अपने मन के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकता है । दूसरा उसके मत से सहमत नहीं था । उसका कहना था कि मनुष्य का ज्ञान, उसकी चेतना, उसके सारे क्रिया-कलाप को नियंत्रित करती है । मन भी चेतना (ज्ञान) का दास है और वह भी चेतना द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करने को बाध्य है ।
राजा विक्रमादित्य ने उनके विवाद के विषय को गंभीरता से सुना पर तुरन्त उस विषय पर अपना कोई निर्णय नहीं दे पाए । उन्होंने उन दोनों तपस्वियों को कुछ समय बाद आने को कहा । जब वे चले गए तो विक्रम उनके प्रश्न के बारे में सोचने लगे जो सचमुच ही बहुत टेढ़ा था ।
उन्होंने थोड़ी देर तक सोचा कि मनुष्य का मन सचमुच बहुत चंचल होता है और उसके वशीभूत होकर मनुष्य सांसारिक वासनाओं के अधीन हो जाता है । मगर थोड़ी ही देर बाद उन्हें चेतना की याद आई । उन्हें लगा कि चेतना वास्तव में मनुष्य को, मन का कहा करने से पहले विचार कर लेने को कहती है और उसके बाद किसी निर्णय के लिए प्रेरित करती है ।
विक्रमादित्य की ये विशेषता थी कि वो ऐसे उलझे सवालों का जवाब सामान्य लोगों की ज़िन्दगी में खोजते थे, इसलिए वे साधारण नागरिक का वेश धर कर अपने राज्य में निकल पड़े । लेकिन इस बार उन्हें कई दिनों तक ऐसी कोई बात देखने को नहीं मिली जो उस प्रश्न को हल करने में सहायता करती हो ।
एक दिन उनकी नज़र एक ऐसे नौजवान पर पड़ी जिसके कपड़ों और भावों में उसकी विपन्नता झलकती थी । वह एक पेड़ के नीचे थककर विश्राम कर रहा था । बगल में एक बैलगाड़ी खड़ी थी जिसकी वह कोचवानी करता था ।
राजा विक्रमादित्य ने उसके निकट जाकर देखा तो वे उसे एक झलक में ही पहचान गए । वह उनके अभिन्न मित्र सेठ गोपाल दास का छोटा बेटा था । सेठ गोपाल दास बहुत बड़े व्यापारी थे और उन्होंने व्यापार से बहुत धन कमाया था । उनके बेटे की यह दुर्दशा देखकर उनकी जिज्ञासा बढ़ गई । वो उसकी दरिद्रता का कारण जानने को उत्सुक हो गये ।
उन्होंने उससे पूछा कि उसकी यह दशा कैसे हुई जबकि मरते समय गोपाल दास ने अपना सारा धन और व्यापार अपने दोनों पुत्रों में समान रूप से बाँट दिया था । अकेले एक के हिस्से का धन इतना था कि दो पुश्तों तक आराम से ज़िन्दगी गुज़ारी जा सकती थी । विक्रम ने फिर उसके भाई के बारे में भी जानने की जिज्ञासा प्रकट की ।
चूंकि विक्रमादित्य साधारण नागरिक के भेष में थे इसलिए वह युवक उन्हें पहचान नहीं पाया लेकिन वह युवक इतना अवश्य समझ गया कि पूछने वाला वास्तव में उसके परिवार के बारे में सारी जानकारी रखता है । उसने विक्रम को अपने और अपने भाई के बारे में सब कुछ बता दिया ।
उसने बताया कि जब उसके पिता ने उसके और उसके भाई के बीच सारी सम्पत्ति को बाँट दिया था तो उसके भाई ने अपने हिस्से के धन का उपयोग बड़े ही समझदारी से किया । उसने अपनी ज़रुरतों को सीमित रखकर सारा धन व्यापार में लगा दिया और दिन-रात मेहनत करके अपने व्यापार को कई गुणा बढ़ा लिया ।
अपने बुद्धिमान और संयमी भाई से उसने कोई प्रेरणा नहीं ली और अपने हिस्से में मिले अपार धन को देखकर वह घमण्ड से चूर हो गया । उसने मदिरा सेवन, वेश्यागमन, जुआ खेलने समेत सारी बुरी आदतें अपने अन्दर डाल लीं । ये सारी बुरी आदतें उसके धन के विशाल भण्डार के तेज़ी से खोखला करने लगीं । बड़े भाई ने समय रहते उसे चेत जाने को कहा, लेकिन बड़े भाई की बातें उस समय उसे विष समान प्रतीत हुईं ।
ये सारी बुरी आदतें उसे बहुत तेज़ी से सर्वनाश की ओर ले गईं और एक वर्ष के भीतर ही वह कंगाल हो गया । चूंकि वह अपने नगर के एक सम्पन्न और प्रतिष्ठित सेठ का पुत्र था, इसलिए उसकी दरिद्रता का सब उपहास करने लगे । इधर भूखों मरने की नौबत आ गयी, और उधर शर्म से मुँह छुपाने की जगह नही ।
उसका जीना दुश्वार हो गया । अपने नगर में मजदूर की हैसियत से गुज़ारा करना उसे असंभव लगा तो वहाँ से वह दूर चला आया । मेहनत-मजदूरी करके अब अपना पेट भरता है तथा अपने भविष्य के लिए भी कुछ बचत करने की सोचता है । जब उसके पास धन प्रचुर मात्रा में था तो मन की चंचलता पर वह अंकुश नहीं लगा सका ।
धन बरबाद हो जाने पर उसे सद्बुद्धि आई और दर-दर की ठोकरें खाने के बाद अपनी भूल का एहसास हुआ । जब राजा ने पूछा क्या वह धन आने पर फिर से अपने मन का कहा मानेगा तो उसने कहा कि समाज की ठोकरों ने उसे सच्चा ज्ञान दे दिया है और अब उस ज्ञान के बल पर वह अपने मन को वश में रख सकता है ।
इतना सब सुनने के बाद विक्रम ने उसे अपना असली परिचय दिया तथा उसे कई स्वर्ण मुद्राएँ देकर सावधानी तथा समझदारी से व्यापार करने की सलाह दी । उन्होंने उसे भरोसा दिलाया कि इमानदारी तथा सतत प्रयास उसे फिर से पहले वाली समृद्धि वापस दिला देगी ।
उससे विदा लेकर वे अपने महल लौट आए क्योंकि अब उनके पास उन तपस्विओं के विवाद का समाधान था । कुछ समय बाद उनके दरबार में वे दोनों तपस्वी समाधान की इच्छा लिए फिर से उपस्थित हुए । विक्रम ने उन्हें उत्तर दिया कि मनुष्य के शरीर पर उसका मन बार-बार नियंत्रण करने की चेष्टा करता है पर ज्ञान के बल पर विवेकशील मनुष्य मन को अपने पर हावी नहीं होने देता है ।
मन और ज्ञान में अन्योनाश्रय सम्बन्ध है तथा दोनों का अपना-अपना महत्व है । जो पूरी तरह अपने मन के वश में हो जाता है उसका सर्वनाश अवश्यम्भावी है । किन्तु ज्ञान (चेतना) को प्रभावी होने और जीवन को बदलने के लिए मन की आवश्यकता है | वह मन पर ही निर्भर है |
मन अगर रथ है तो ज्ञान सारथि । बिना सारथि रथ अधूरा है । और बिना रथ के सारथि का कोई मूल्य नहीं | उन्होंने सेठ के पुत्र के साथ जो कुछ घटा था उन्हें विस्तारपूर्वक बताया तो उन तपस्वियों के मन में कोई संशय नहीं रहा । उन तपस्वियों ने प्रसन्न हो कर उन्हें एक चमत्कारी खड़िया दिया जिससे बनाई गई तस्वीरें रात में सजीव हो सकती थीं और उनका वार्तालाप भी सुना जा सकता था ।
रात्रि में विक्रम ने कुछ तस्वीरें बनाकर खड़िया की सत्यता जानने की कोशिश की तो सचमुच खड़िया में वह गुण था । अब राजा तस्वीरे बना-बना कर अपना मन बहलाने लगे । अपनी रानियों की उन्हें बिल्कुल सुधि नहीं रही ।
कुछ दिनों बाद जब रानियाँ उनके पास आईं तो उन्होंने राजा को खड़िया से चित्र बनाते हुए देखा । रानियों ने आकर उनका ध्यान बँटाया तो राजा को हँसी आ गई और सर पर हाँथ रखते हुए उन्होंने कहा वे भी मन के आधीन हो गए थे । किन्तु अब उन्हें अपने कर्त्तव्य का ज्ञान हो चुका है ।