दानवीर विक्रमादित्य ने समुद्र देव से उपहार स्वरुप प्राप्त दुर्लभ मणियों तथा पवन वेगी घोड़े को ब्राहमण को दान कर दिया

दानवीर विक्रमादित्य ने समुद्र देव से उपहार स्वरुप प्राप्त दुर्लभ मणियों तथा पवन वेगी घोड़े को ब्राहमण को दान कर दिया सम्राट विक्रमादित्य बहुत बड़े प्रजापालक व प्रजाहितैषी थे । उन्हें हमेंशा अपनी प्रजा की सुख-समृद्धि की ही चिन्ता सताती रहती थी । एक बार उन्होंने एक महायज्ञ करने की ठानी । असंख्य राजा-महाराजाओं, पण्डितों और ॠषियों को आमन्त्रित किया । यहाँ तक कि देवताओं को भी उन्होंने आमन्त्रित किया ।

महा बलशाली पवन देवता को उन्होंने खुद निमन्त्रण देने का मन बनाया तथा समुद्र देव को आमन्त्रित करने का काम उन्होंने एक योग्य ब्राह्मण को सौंपा । दोनों अपने काम से महल से एक ही दिन विदा हुए । जब विक्रम वन में पहुँचे तो उन्होंने योग साधना एवं ध्यान द्वारा यह पता करने का प्रयास किया कि वर्तमान में पवन देव कहाँ मिलेंगे |

योग-साधना से पता चला कि पवन देव वर्तमान में सुमेरु पर्वत पर वास करते हैं । उन्होंने सोचा अगर सुमेरु पर्वत पर पवन देवता का आवाहन किया जाए तो उनके दर्शन हो सकते है । ऐसा विचार आते ही उन्होंने काली माँ द्वारा प्रदत्त दोनों बेतालों का स्मरण किया तो वे दोनों वहां उपस्थित हो गए ।

उन्होंने उन दोनों बेतालों को अपना उद्देश्य बताया । बेतालों ने उन्हें आनन-फानन में सुमेरु पर्वत की चोटी पर पहुँचा दिया । वह चोटी इतनी अधिक ऊंचाई पर थी तथा वहाँ पर वायु का दबाव इतना अधिक था कि वहाँ पर पाँव जमाना मुश्किल हो रहा था ।

बड़े-बड़े वृक्ष और चट्टान अपनी जगह से उड़कर दूर चले जा रहे थे । मगर विक्रमादित्य तनिक भी विचलित नहीं हुए । वे योग-साधना में सिद्धहस्त थे, इसलिए एक जगह अचल होकर बैठ गए । बाहरी दुनिया को भूलकर वह पवन देव की आराधना में रत हो गए । न कुछ खाना, न पीना, सोना और आराम करना भूलकर साधना में लीन रहे ।

आखिरकार पवन देव ने उनकी सुधि ली । अचानक से हवा का बहना बिल्कुल थम गया । मन्द-मन्द बहती हुई वायु शरीर की सारी थकान मिटाने लगी । उसी समय आकाशवाणी हुई, “हे राजा विक्रमादित्य, तुम्हारी साधना से हम प्रसन्न हुए । अपनी इच्छा कहो हमसे” ।

आकाशवाणी सुनते ही विक्रम अगले ही क्षण सामान्य अवस्था में आ गए और हाथ जोड़कर बोले कि वे अपने द्वारा किए जा रहे महायज्ञ में पवन देव की उपस्थिति चाहते हैं । पवन देव के पधारने से उनके यज्ञ की शोभा बढ़ेगी । इस बात को विक्रम ने इतना भावुक होकर कहा कि पवन देव हँस पड़े । उन्होंने उत्तर दिया कि सशरीर यज्ञ में उनकी उपस्थिति असंभव है ।

क्योंकि अगर वे सशरीर आ गए तो उनके साथ उनके सारे सेवक भी आ जायेंगे, और अगर उनके सेवक भी आ गए तो विक्रम के राज्य में भयंकर आँधी-तूफान आ जाएगा । सारे लहलहाते खेत, पेड़-पौधे, महल और झोपड़ियाँ- सब की सब उजड़ जाएँगी । और रही बात उनकी उपस्थिति की, तो संसार के हर कोने में उनका वास है, इसलिए वे अप्रत्यक्ष रुप से ही उस महायज्ञ में भी उपस्थित रहेंगे ।

विक्रम उनका अभिप्राय समझकर चुप हो गए । पवन देव ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा कि उनके राज्य में कभी अनावृष्टि नहीं होगी और कभी दुर्भिक्ष का सामना उनकी प्रजा नहीं करेगी । उसके बाद उन्होंने विक्रम को कामधेनु गाय देते हुए कहा कि इसकी कृपा से कभी भी विक्रम के राज्य में दूध की कमी नहीं होगी । जब पवनदेव लुप्त हो गए, तो विक्रमादित्य ने दोनों बेतालों का स्मरण किया और बेताल उन्हें लेकर उनके राज्य की सीमा तक आए ।

उधर जिन ब्राह्मण देवता को विक्रमादित्य ने समुद्र देवता को आमन्त्रित करने का भार सौंपा था, वह काफी कठिनाइयों को झेलते हुए सागर तट पर पहुंचे । उहोने कमर तक सागर में घुसकर समुद्र देवता का आवाहन किया । उन्होंने मन्त्रों द्वारा बार-बार यह दोहराया कि महाराजा विक्रमादित्य महायज्ञ कर रहे हैं और वह उनका दूत बनकर उन्हें आमंत्रित करने आये हैं ।

अंत में समुद्र देवता, सागर की असीम गहराई से निकलकर उनके सामने प्रकट हुए । उन्होंने ब्राह्मण से कहा कि उन्हें उस महायज्ञ के बारे में पवन देवता ने सब कुछ बता दिया है । वे पवन देव की तरह ही विक्रमादित्य के आमन्त्रण का स्वागत तो करते हैं, लेकिन सशरीर वहाँ सम्मिलित नहीं हो सकते हैं ।

ब्राह्मण ने समुद्र देवता से अपना आशय स्पष्ट करने का सादर निवेदन किया, तो वे बोले कि अगर वे यज्ञ में सम्मिलित होने सशरीर गए तो उनके साथ अथाह जल राशि भी जायेगी और उस अथाह जल राशि के मार्ग में पड़ने वाली हर चीज़ डूब जाएगी । चारों ओर प्रलय-सी स्थिति उत्पन्न हो जाएगी । सब कुछ नष्ट हो जाएगा ।

इसके बाद ब्राह्मण देव ने उनसे पूछा कि अब उनके लिए उनका क्या आदेश हैं, तो समुद्र देवता बोले कि वे सम्राट विक्रमादित्य को सकुशल महायज्ञ सम्पन्न कराने के लिए शुभकामनाएँ व आशीर्वाद देते हैं । अप्रत्यक्ष रुप में यज्ञ में आद्योपति विक्रम उन्हें अनुभव करेंगे, क्योंकि जल की एक-एक बून्द में उनका वास है ।

यज्ञ में जो जल प्रयुक्त होगा उसमें भी वे उपस्थित रहेंगे । उसके बाद उन्होंने ब्राह्मण को पाँच प्रकार के दुर्लभ रत्न और एक घोड़ा देते हुए कहा “मेरी ओर से राजा विक्रमादित्य को ये उपहार दे देना” । ब्राह्मण देव घोड़ा और रत्न लेकर वापस चल पड़े । उसको पैदल चलता देख वह घोड़ा मनुष्य की बोली में उनसे बोला कि इस लम्बी यात्रा के लिए वह उसकी पीठ पर सवार क्यों नहीं हो जाते ।

उनके ना-नुकुर करने पर घोड़े ने उन्हें समझाया कि वह राजा के दूत हैं, इसलिए उनके उपहार का उपयोग वह कर सकते हैं । घोड़े के समझाने पर ब्राह्मण देव को बात समझ में आ गयी और जब तैयार होकर घोड़े पर बैठे तो वह घोड़ा पवन वेग से उन्हें विक्रम के दरबार में ले आया । घोड़े की सवारी के दौरान उनके मन में इच्छा जगी “काश ! यह घोड़ा मेरा होता !”

जब विक्रमादित्य को उन्होंने समुद्र देवता से अपनी बातचीत सविस्तार सुनाई और उन्हें उनके दिए हुए उपहार दिए, तो राजा विक्रमादित्य ने वे पाँचों दुर्लभ रत्न तथा पवन वेग से उड़ने वाला घोड़ा उन ब्राह्मण देव को ही दे दिया | ब्राह्मण के ना-नुकुर करने पर विक्रम ने उन्हें समझाया कि चूँकि रास्ते में आने वाली सारी कठिनाइयाँ उन्होंने राजा की खातिर हँसकर झेलीं और उनकी बात समुद्र देवता तक पहुँचाने के लिए उन्होंने कठिन साधना की इसलिए वह उसके अधिकारी हैं । ब्राह्मण देव रत्न और घोड़ा पाकर फूले नहीं समाये ।

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