ब्राह्मणी को बचाने के लिए विक्रमादित्य ने रहस्यमय राक्षस से घमासान युद्ध किया

ब्राह्मणी को बचाने के लिए विक्रमादित्य ने रहस्यमय राक्षस से घमासान युद्ध किया विक्रमादित्य के स्वर्ण सिंहासन की बारहवीं पुतली पद्मावती ने राजा भोज को, विक्रमादित्य के एक राक्षस से हुए घमासान युद्ध की कथा सुनाई | उस कथा के अनुसार एक दिन रात के समय राजा विक्रमादित्य महल की छत पर टहल रहे थे । मौसम बहुत सुहावना हुआ था । पूर्णिमा का चन्द्र अपने यौवन पर था तथा सब कुछ इतना साफ़-साफ़ दिख रहा था, मानों दिन का उजाला फैला हो ।

प्रकृति की सुन्दरता में विक्रमादित्य एकदम खोए हुए थे । अचानक एक चीख सुनकर सहसा वे चौंक गए । वह किसी स्त्री की चीख थी । उन्होंने चीख की दिशा का अनुमान लगाया । लगातार कोई औरत चीख रही थी और सहायता के लिए पुकार रही थी ।

उस स्त्री को विपत्ति से छुटकारा दिलाने के लिए विक्रम ने ढाल-तलवार सम्भाली और अस्तबल से घोड़ा निकाला । तनिक भी विलम्ब न करते हुए वे घोड़े पर सवार हो फौरन उस दिशा में चल पड़े, जिधर से चीख की आवाज़ सुनायी पड़ रही थी । कुछ ही समय बाद वे उस स्थान पर पहुँचे भी गए ।

उन्होंने देखा कि एक स्त्री “बचाओ बचाओ” कहती हुई बेतहाशा भागी जा रही थी और एक विशालकाय दानव उसे पकड़ने के लिए उसका पीछा कर रहा था । विक्रम ने एक क्षण भी नहीं गँवाया और घोड़े से कूद पड़े । युवती उनके चरणों पर गिरती हुई उनसे बचाने की विनती करने लगी । विक्रमादित्य ने उस स्त्री की बाँहें पकड़कर उठाया और उसे बहन सम्बोधित करके ढाढ़स बंधाने की कोशिश की ।

उन्होंने कहा कि वह राजा विक्रमादित्य की शरणागत है और उनके रहते उस पर कोई आँच नहीं आ सकती । जब वे उसे दिलासा दे रहे थे, तभी राक्षस ने अट्टहास लगाया । उसने विक्रम को कहा कि उन जैसा एक साधारण मानव उसका कुछ नहीं बिगाड सकता तथा उन्हें वह कुछ ही क्षणों में पशु की भाँति चीर-फाड़कर खा जाएगा । ऐसा बोलते हुए वह विक्रम की ओर लपका ।

विक्रम ने स्त्री को पीछे किया राक्षस को चेतावनी देते हुए ललकारा । राक्षस ने उनकी चेतावनी का उपहास किया । उसे लग रहा था कि विक्रम को वह पल भर में मसल देगा । वह उनकी ओर बढ़ता रहा । विक्रम भी पूरे सावधान थे । वह ज्योंहि विक्रम को पकड़ने के लिए बढ़ा विक्रम ने अपने को बचाकर उस पर तलवार से वार किया ।

राक्षस भी आश्चर्यजनक रूप से अत्यन्त फुर्तीला था । उसने पैंतरा बदलकर खुद को बचा लिया और विक्रमादित्य से भिड़ गया । दोनों में घमासान युद्ध होने लगा । विक्रम ने इतनी फुर्ती और चतुराई से युद्ध किया कि राक्षस थकान से चूर हो गया तथा शिथिल पड़ गया ।

विक्रम ने उस अवसर का पूरा लाभ उठाया तथा अपनी तलवार से, एक ही क्षण में उस राक्षस का सर धड़ से अलग कर दिया । विक्रम ने समझा राक्षस का अन्त हो चुका है, मगर दूसरे ही पल उसका कटा सिर फिर अपनी जगह आ लगा और राक्षस दुगुने उत्साह से उठकर लड़ने लगा । लेकिन इसके अलावा एक और विकट समस्या पैदा हो गई ।

जहाँ उस राक्षस का रक्त गिरा था वहाँ एक और राक्षस पैदा हो गया । राजा विक्रमादित्य क्षण भर को तो चकित हो गए, किन्तु विचलित हुए बिना एक साथ दोनों राक्षसों का सामना करने लगे । रक्त से जन्मे राक्षस ने मौका देखकर उन पर घूँसे का प्रहार किया तो उन्होंने पैंतरा बदलकर पहले वार में उसकी भुजाएँ तथा दूसरे वार में उसकी टांगें काट डालीं ।

राक्षस असह्य पीड़ा से इतना चिल्लाया कि पूरा वन गूंज गया और तड़प कर वह वहीँ ढेर हो गया । उसे दर्द से तड़पता देखकर दूसरे राक्षस का धैर्य जवाब दे गया और मौका पाकर वह सर पर पैर रखकर भागा । चूँकि उसने पीठ दिखाई थी, इसलिए विक्रम ने उसे मारना उचित नहीं समझा ।

उस राक्षस के भाग जाने के बाद विक्रम उस स्त्री के पास आए तो देखा कि वह भय के मारे काँप रही थी । उन्होंने उससे कहा कि उसे निश्चिन्त हो जाना चाहिए और भय त्याग देना चाहिए, क्योंकि वह दानव भाग चुका है ।

उन्होंने उसे अपने साथ महल चलने को कहा ताकि उसे उसके माँ-बाप के पास पहुँचा दे । उस स्त्री ने रहस्यमय तरीके से उत्तर दिया कि खतरा अभी टला नहीं है, क्योंकि राक्षस मरा नहीं है । वह लौटकर आएगा और उसे ढूंढकर फिर इसी स्थान पर ले आएगा । अब विक्रमादित्य गंभीर हो कर सोच में पड़ गए |

उन्होंने उसका परिचय जानना चाहा, तो वह बोली कि वह सिंहल द्वीप की रहनेवाली है और एक ब्राह्मण की बेटी है । एक दिन वह तालाब में सखियों के साथ नहा रही थी तभी राक्षस ने उसे देख लिया और उस पर मोहित हो गया ।

वहीं से वह उसे उठाकर यहाँ ले आया और अब उसे अपना पति मान लेने को कहता है । उसने सोच लिया है कि वह अपने प्राण त्याग देगी, मगर अपनी पवित्रता नष्ट नहीं होने देगी । वह बोलते-बोलते सिसकने लगी और उसका गला र्रूँध गया ।

विक्रम ने उसे आश्वासन दिया कि वे राक्षस का वध करके उसकी समस्या का अन्त कर देंगे और इसके साथ ही उन्होंने राक्षस के फिर से जीवित होने का रहस्य पूछा । इस पर उस स्त्री ने जवाब दिया कि राक्षस के पेट में एक मोहिनी वास करती है जो उसके मरते ही उसके मुँह में अमृत डाल देती है । उसे तो वह जीवित कर सकती है, मगर उसके रक्त से पैदा होने वाले दूसरे राक्षस को नहीं, इसलिए वह दूसरा राक्षस अपंग होकर दम तोड़ रहा था ।

यह सुनकर विक्रम ने कहा कि वे प्रण करते हैं कि उस राक्षस का वध किए बगैर अपने महल नहीं लौटेंगे चाहे कितनी भी प्रतीक्षा क्यों न करनी पड़े । उन्होंने जब उससे मोहिनी के बारे में पूछा तो स्त्री ने अनभिज्ञता जताई । थोड़ी देर बाद विक्रम एक पेड़ की छाया में विश्राम करने लगे । तभी एक सिंह झाड़ियों में से निकलकर विक्रम पर झपटा ।

चूँकि विक्रम पूरी तरह चौकन्ने नहीं थे, इसलिए सिंह उनकी बाँह पर घाव करता हुआ चला गया । अब विक्रम भी पूरी तरह हमले के लिए तैयार हो गए । दूसरी बार जब सिंह उनकी ओर झपटा तो उन्होंने उसके पैरों को पकड़कर उसे पूरे ज़ोर से हवा में उछाल दिया। सिंह बहुत दूर जाकर गिरा और क्रुद्ध होकर उसने गर्जना की ।

दूसरे ही पल सिंह ने भागने वाले राक्षस का रूप धर लिया । अब विक्रम की समझ में आ गया कि उस राक्षस ने छल से उन्हें हराना चाहा था । वे लपक कर राक्षस से भिड़ गए । दोनों में फिर भीषण युद्ध शुरु हो गया । जब राक्षस की साँस लड़ते-लड़ते फूलने लगी, तो विक्रम ने तलवार उसके पेट में घुसेड़ दी ।

राक्षस धरती पर गिरकर दर्द से चीखने लगा । विक्रम ने उसके बाद तलवार से उसका पेट फाड़ दिया । पेट फटते ही उसमे से एक अत्यन्त सुंदरी मोहिनी कूदकर बाहर आई और अमृत लाने दौड़ी । विक्रम ने बेतालों का स्मरण किया और उन्हें मोहिनी को पकड़ने का आदेश दिया ।

अमृत न मिल पाने के कारण राक्षस तड़पकर मर गया । विक्रमादित्य के पूछने पर उस मोहिनी ने अपने बारे में बताया कि वह शिव की गणिका थी जिसे किसी अपराध के दंड के रूप में राक्षस की सेविका बनना पड़ा । महल लौटकर विक्रमादित्य ने ब्राह्मण कन्या को उसके माता-पिता को सौप दिया और मोहिनी से खुद विधिवत् विवाह कर लिया ।

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