राजा भोज, स्वर्ण सिंहासन की सत्ताईसवीं पुतली, मलयवती को देख कर मुग्ध हुए जा रहे थे | जीवंत होने के पश्चात् मलयवती ने सर्वप्रथम राजा भोज व उनके समस्त दरबारी गणों को बैठ जाने को कहा फिर अपनी संगीतमय वाणी में उसने उन्हें राजा विक्रमादित्य की कथा सुनाना आरम्भ किया |
विक्रमादित्य बड़े यशस्वी और प्रतापी राजा था और प्रजा पालन में उनके सामान कोई दूसरा नहीं था उस समय धरती पर । वीरता और विद्वता का अद्भुत संगम थे राजा विक्रमादित्य । उनके शस्त्र ज्ञान और शास्त्र ज्ञान की कोई सीमा नहीं थी । वे राज-काज से बचा समय अकसर शास्त्रों के अध्ययन में लगाते थे और इसी ध्येय से उन्होंने राजमहल के एक हिस्से में विशाल पुस्तकालय बनवा रखा था ।
एक दिन वे एक धार्मिक ग्रन्थ पढ़ रहे थे तो उन्हें एक जगह जगत प्रसिद्ध, दानवीर राजा बलि का प्रसंग मिला । उन्होंने राजा बलि वाला सारा प्रसंग पढ़ा तो पता चला कि राजा बलि बड़े दानवीर और वचन के पक्के थे । वे इतने पराक्रमी और महान राजा थे कि इन्द्र उनकी शक्ति से डर गए ।
देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि वे बलि का कुछ उपाय करें तो उन दानवीर, प्रतापी राजा बलि के लिए भगवान् विष्णु को अवतार ले कर आना पड़ा और उन्होंने वामन रूप धरा । वामन रूप धरकर उनसे सब कुछ दान में प्राप्त कर लिया और उन्हें पाताल लोक जाने को विवश कर दिया ।
जब उनकी कथा विक्रम ने पढ़ी तो सोचा कि इतने बड़े महान दानवीर राजा के दर्शन अवश्य करने चाहिए । उन्होंने विचार किया कि भगवान विष्णु की आराधना करके उन्हें प्रसन्न किया जाए तथा उनसे दैत्यराज बलि से मिलने का मार्ग पूछा जाए । ऐसा विचार मन में आते ही उन्होंने राज-पाट और मोह-माया से अपने आपको अलग कर लिया तथा महामन्त्री को राजभार सौंपकर जंगल की ओर प्रस्थान कर गए ।
जंगल में उन्होंने घोर तपस्या शुरु की और भगवान विष्णु की स्तुति करने लगे । उनकी तपस्या बहुत लम्बी थी । शुरू में वे केवल एक समय का भोजन करते थे । कुछ दिनों बाद उन्होंने वह भी त्याग दिया तथा फल और कन्द-मूल आदि खाकर रहने लगे । कुछ दिनों बाद उन्होंने सब कुछ त्याग दिया और केवल जल पीकर तपस्या करते रहे ।
इतनी कठोर तपस्या से वे बहुत कमज़ोर हो गए और साधारण रूप से उठने-बैठने में भी उन्हें काफी समस्या होने लगी । धीरे-धीरे उनके तपस्या स्थल के पास और भी बहुत सारे तपस्वी आ गए । कोई एक पैर पर खड़ा होकर तपस्या करने लगा तो कोई एक हाथ उठाकर, कोई काँटों पर लेटकर तपस्या में लीन हो गया तो कोई गरदन तक बालू में धँसकर । चारों ओर सिर्फ ईश्वर के नाम की चर्चा होने लगी और एक पवित्र वातावरण तैयार हो गया ।
विक्रमादित्य ने अपनी तपस्या को और कठोर करते हुए कुछ समय बाद जल भी लेना छोड़ दिया और बिलकुल निराहार तपस्या करने लगे । अब उनका शरीर और भी कमज़ोर हो गया और सिर्फ हड्डियों का ढाँचा मात्र दिखायी देने लगा । कोई देखता तो दया आ जाती, मगर राजा विक्रमादित्य को कोई फर्क नहीं पड़ता था ।
भगवान विष्णु की आराधना करते-करते यदि उनके प्राण भी निकल जाते तो सीधे स्वर्ग जाते और यदि भगवान विष्णु के दर्शन हो जाते तो दैत्यराज बलि से मिलने का मार्ग प्रशस्त होता । वे पूरी लगन से अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिए तपस्यारत रहे ।
अपने जीवन और शरीर का उन्हें कोई मोह नहीं रहा । राजा विक्रमादित्य का रंग-रूप ऐसा हो गया था कि कोई भी देखकर नहीं कह सकता था कि वे अपने समय के धरती पर महाप्रतापी और सर्वश्रेष्ठ राजा हैं ।
राजा के समीप ही तपस्या करने वाले एक योगी से जब नहीं रहा गया तो उसने उनसे पूछा कि आखिर वे इतनी घोर तपस्या क्यों कर रहे हैं । विक्रम का उत्तर था “इहलोक से मुक्ति और परलोक सुधार के लिए” । तपस्वी ने उन्हें कहा कि तपस्या राजाओं का काम नहीं है । राजा को राजकाज के लिए ईश्वर द्वारा जन्म दिया जाता है और यही उसका कर्म है ।
अगर वह राज-काज से मुँह मोड़ता है तो अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ता है । शास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य को अपने कर्तव्य से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए । विक्रमादित्य ने बड़े ही गंभीर स्वर में उन योगी महाराज से कहा कि कर्म करते हुए भी धर्म से कभी मुँह नहीं मोड़ना चाहिए । उन्होंने जब उससे पूछा कि क्या शास्त्रों में किसी भी स्थिति में धर्म से विमुख होने को कहा गया है तो तपस्वी एकदम चुप हो गया ।
उनके तर्कपूर्ण उत्तर ने उसे आगे कुछ पूछने लायक नहीं छोड़ा । राजा ने अपनी तपस्या जारी रखी । अत्यधिक निर्बलता के कारण एक दिन राजा मूर्छित हो गए और काफी समय के बाद उनकी चेतना लौटी । वह तपस्वी एक बार फिर उनके पास आया और उनसे तपस्या छोड़ देने को बोला । उसने कहा कि चूँकि राजा गृहस्थ हैं, इसलिए तपस्वियों की भाँति उन्हें तप नहीं करना चाहिए । गृहस्थ को एक सीमा के भीतर ही रहकर तपस्या करनी चाहिए ।
जब उसने राजा को बार-बार गृहस्थ धर्म की याद दिलाई और उन्हें गृहस्थ धर्म के अनुसार कर्म के लिए प्रेरित किया तो राजा विक्रमादित्य ने विनम्रतापूर्वक उनसे कहा कि वे मन की शान्ति के लिए तपस्या कर रहे हैं । तपस्वी कुछ नहीं बोला और वे फिर तपस्या करने लगे । लम्बे समय से कुछ भी आहार न लेने से उनको कमज़ोरी तो थी ही, तपस्या प्रारम्भ करने पर एक बार फिर वे अचेत हो गए ।
जब कई घण्टों बाद वे होश में आए तो उन्होंने पाया कि उनका सर भगवान विष्णु की गोद में है । उन्हें भगवान विष्णु को देखकर पता चल गया कि उनको तपस्या से रोकने वाला तपस्वी और कोई नहीं स्वयं भगवान विष्णु थे । विक्रम ने उठकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया तो भगवान ने पूछा वे क्यों इतना कठोर तप कर रहे हैं ।
विक्रमादित्य ने कहा कि उन्हें राजा बलि से भेंट का रास्ता पता करना था । भगवान विष्णु ने उन्हें एक शंख देकर कहा कि समुद्र के बीचों-बीच पाताल लोक जाने का रास्ता है । इस शंख को समुद्र तट पर फूँकने के बाद उन्हें समुद्र देव के दर्शन होंगे और वही उन्हें राजा बलि तक पहुँचने का मार्ग बतलाएँगे ।
शंख देकर भगवान विष्णु अंतर्ध्यान हो गए । भगवान विष्णु के दर्शन के बाद विक्रमादित्य ने फिर से तपस्या के पहले वाला स्वास्थ्य प्राप्त कर लिया और वैसी ही असीम शक्ति प्राप्त कर ली । शंख लेकर वे समुद्र के पास आए और पूरी शक्ति से शंख फूँकने लगे । समुद्र देव उपस्थित हुए और समुद्र का पानी दो भागों में विभक्त हो गया ।
समुद्र के बीचों-बीच अब भूमि का मार्ग दिखाई देने लगा । उस मार्ग पर राजा आगे बढ़ते रहे । काफी चलने के बाद वे पाताल लोक पहुँच गए । जब वे राजा बलि के महल के द्वार पर पहुँचे तो द्वारापालों ने उनसे आने का प्रयोजन पूछा । विक्रम ने उन्हें बताया कि राजा बलि के दर्शन के लिए मृत्युलोक से यहाँ आए हैं ।
एक सैनिक उनका संदेश लेकर गया और काफी देर बाद उनसे आकर बोला कि राजा बलि अभी उनसे नहीं मिल सकते हैं । उन्होंने बार-बार राजा से मिलने का अनुरोध किया पर राजा बलि तैयार नहीं हुए । राजा ने खिन्न और हताश होकर अपनी तलवार से अपना सर काट लिया । जब द्वार प्रहरियों ने यह सूचना राजा बलि को दी तो उन्होंने अमृत डलवाकर विक्रम को जीवित करवा दिया ।
जीवित होते ही विक्रमादित्य ने फिर राजा बलि के दर्शन की इच्छा जताई । इस बार प्रहरी संदेश लेकर लौटा कि राजा बलि उनसे महा शिवरात्रि के दिन मिलेंगे । विक्रमादित्य को लगा कि बलि ने सिर्फ़े टालने के लिए यह संदेश भिजवाया है । उनके ह्रदय पर गहरा आघात लगा और उन्होंने फिर तलवार से अपनी गर्दन काट ली ।
द्वार प्रहरियों में फिर से खलबली मच गई और उन्होंने राजा बलि तक विक्रम के बलिदान की खबर पहुँचाई । पाताल के राजा बलि समझ गए कि वह व्यक्ति दृढ़ निश्चयी है और बिना भेंट किए जाने वाला नहीं है । उन्होंने फिर सेवकों द्वारा अमृत भिजवाया और उनके लिए संदेश भिजवाया कि वे भेंट करने के लिए तैयार हैं ।
सेवकों ने अमृत छिड़ककर उन्हें जीवित किया तथा महल में चलकर राजा बलि से भेट करने को कहा । जब वे राजा बलि से मिले तो राजा बलि ने चकित हो कर उनसे इतना कष्ट उठाकर आने का कारण पूछा । विक्रम ने कहा कि धार्मिक ग्रन्थों में उनके बारे में बहुत कुछ वर्णित है तथा उनकी दानवीरता और त्याग की चर्चा सर्वत्र होती है, इसलिए वे उनसे मिलने को उत्सुक थे ।
राजा बलि विह्वल हो गए | वे उनसे बहुत प्रसन्न हुए तथा विक्रमादित्य को एक लाल मूंगा उन्होंने उपहार में दिया और बोले कि वह मूंगा माँगने पर हर वस्तु दे सकता है । मूंगे के बल पर असंभव कार्य भी संभव हो सकते हैं ।
विक्रमादित्य राजा बलि से विदा लेकर प्रसन्न चित्त होकर मृत्युलोक की ओर लौट चले । पाताल लोक के प्रवेश द्वार के बाहर फिर वही अनन्त गहराई वाला समुद्र बह रहा था । उन्होंने भगवान विष्णु का दिया हुआ शंख फूँका तो समुद्र फिर से दो भागों में बँट गया और उसके बीचों-बीच वही भूमिवाला मार्ग प्रकट हो गया ।
उस भूमि मार्ग पर चलकर वे समुद्र तट तक पहुँच गये । फिर वह मार्ग गायब हो गया तथा समुद्र फिर पूर्ववत होकर बहने लगा । वे अपने राज्य की ओर चल पड़े । रास्ते में उन्हें एक स्त्री विलाप करती मिली । उसके बाल बिखरे हुए थे और चेहरे पर गहरे विषाद के भाव थे । पास आने पर पता चला कि उसके पति की मृत्यु हो गई है और अब वह बिल्कुल बेसहारा है ।
विक्रम का दिल उसके दुख को देखकर पसीज गया तथा उन्होंने उसे सांत्वना दी । राजा बलि द्वारा दिए गए उपहार वाले मूंगे से उन्होंने उसके पति के लिए जीवन दान माँगा । उनका बोलना था कि उस विधवा का मृत पति ऐसे उठकर बैठ गया मानो गहरी नींद से जागा हो । स्त्री के आनन्द की सीमा नहीं रही ।