अवतार की अवधारणा सनातन संस्कृति का अभिन्न अंग रही है। अवतारवाद हमारी आस्था, श्रद्धा और भावना तो है ही, साथ ही एक उच्च आदर्श परम्परा भी है। ‘सम्भवामि युगे युगे’-यह श्री भगवान का बहुत स्पष्ट उदघोष है। साधुजनों का संरक्षण, दुष्टों का संहार कर धर्म-परम्पराओं, आदर्शों, मर्यादाओं की पुनः स्थापना हेतु वे प्रत्येक युग में अवतार धारण करते ही हैं।
सम्पूर्ण चराचर सृष्टि उन्हीं की लीला है। ‘अहं सर्वस्य प्रभवः’ (गीता 10।8) ‘अखिल बिस्व यह मोर उपाया।’ (मानस 7।87।7)-आदि वचनों से स्पष्ट है कि सब प्राणी परमात्मा से हैं, परमात्मा में हैं। परमात्मा सर्व समर्थ हैं, सर्व शक्तिमान हैं, कुछ भी करने में समर्थ हैं, सक्षम हैं। यह कहना कि परमात्मा निराकार ही हैं, साकार नहीं हो सकते या अवतार नहीं ले सकते, हास्यास्पद सा लगता है। सर्व समर्थ परमात्मा ऐसा नहीं कर सकते-क्यों? परमात्मा निराकार स्वरूप में कण-कण में विद्यमान हैं, यह सत्य है।
जैसे आकाश में उत्पन्न सर्वत्र विचरने वाला महान वायु सदा आकाश में ही स्थित है, वैसे ही सम्पूर्ण प्राणी मेरे संकल्प द्वारा उत्पन्न होने से मुझ में ही स्थित हैं, लेकिन इस सत्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि वे निराकार परमात्मा आवश्यकता पड़ने पर साकार रूप भी धारण करते हैं। पानी का स्वभाव तरलता है, यह मान्य है लेकिन वही पानी वातावरण की विशेष शीतलता पाकर बर्फ के रूप में जम जाता है। इसे मानने में आपत्ति क्या? सब उसमें हैं, वह सबमें है, लेकिन विशेष स्थिति में वह साकार स्वरूप में आ जाता है अथवा प्रकट होता है।
सत्य एक है, तत्व एक ही है, विभिन्न रूपों में वही एक तत्व प्रकट होता है-‘अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे।’ ‘एकं सद विप्रा बहुधा वदन्ति।’ समस्त सृष्टि परमेश्वर की लीला है ‘लोकवत्तु लीलाकैवल्यम।’ अवतार भी उनकी एक लीला ही है। पूर्णावतार, अंशावतार, नित्यावतार, नैमित्तिकावतार प्रभृति अवतार के भी अनेक स्वरूप हैं। वे परमात्मा कभी भी, कहीं भी और किसी भी रूप में प्रकट हो सकते हैं।
भाव सच्चा हो और विश्वास पक्का हो तो उनके आने में देरी नहीं। कमी हमारे भाव और विश्वास में हो सकती है, उनकी कृपा में नहीं। वे तो भक्त की भाव रक्षा के लिये सदैव तत्पर हैं।
द्रौपदी की बात लें। भरी सभा में दुःशासन का दुःसाहस। वह आततायी, दुष्ट बला-रजस्वला द्रौपदी के केशों को पकड़ कर उसे खींच लाया। सभा में बैठे अनेक विद्वज्जन, योद्धा, रथी, महारथी, कुल के बड़े-बूढ़े (कुलरक्षक) पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, कृपाचार्य, विदुर, धृतराष्ट्र आदि सब उस सभा में थे और थे द्रौपदी के पांचों पति यानी पांचों पाण्डव भी।
बहुत ही मर्मभेदी दृश्य! एक अबला की लुटती लाज। वातावरण में गूंजा एक प्रश्न? कुरूकुल के सभी बड़े यहां बैठे हैं, बतायें कि जुए में पहले धर्मराज युधिष्ठिर अपने आपको हारे या मुझे।
यदि वे पहले स्वयं को ही दांव पर लगा कर हार चुके थे तो क्या उन्हें उसके पश्चात मुझे दांव पर लगाने का अधिकार था? इस आधार पर क्या मैं जुए में जीती गयी? द्रौपदी बार-बार यह प्रश्न किये जा रही थी। धर्म के अनुसार मैं जीती गयी या नहीं? ‘जितां वाप्यजितां वा मां मन्यध्वे सर्वभूमिपाः।’
कुछ भी हो, कुल की लाज को ऐसी अवस्था में घसीट कर सभा में लाना, वह भी केश पकड़ कर, अपशब्दों का प्रयोग, अभद्र संकेत करना, भरी सभा में चीरहरण का कुत्सित प्रयास-क्या यह सब धर्म, मर्यादा, आदर्श, बल्कि गरिमामय परम्परा-‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’-की पोषक भारतीय संस्कृति के आगे प्रश्न चिन्ह नहीं था?
इससे पूर्व की स्थिति देखें। युधिष्ठिर धर्मज्ञ हैं, धर्म आचरण के प्रति सजग और पूर्ण निष्ठावान हैं, यद्यपि कहीं-कहीं धर्म के प्रति उनकी दृढ़ निष्ठा धर्मभीरूता की स्थिति में भी आ जाती है। उसी का अनुचित लाभ उठाया जाता है। दुर्योधन धृतराष्ट्र से कहता है-आप युधिष्ठिर को द्यूत क्रीड़ा के लिये आमंत्रित करें। आपकी आज्ञा वह कभी भी टालेगा नहीं।
मन में पहले से कपट था। धृतराष्ट्र दृष्टिहीन (बाह्य और विवेक दोनों स्थितियों में) हैं ही। दुर्योधन के कपट को जानते हुए और समझते हुए भी उन्होंने युधिष्ठिर को आमंत्रित कर लिया। शकुनि ने कपट पूर्ण चालें चलीं। छल से काम किय। क्या यह सब कहीं किसी भी प्रकार से धर्म था?
सब कुछ जानते-समझते, देखते हुए भी पूरी कौरव सभा मौन। कोई नहीं बोला। बोले तो केवल धृतराष्ट्र पुत्र विकर्ण और विदुर, लेकिन कौन सुनता उनकी बात। आचार्य द्रोण, कृपाचार्य नीचे देखते रह गये। धृतराष्ट्र तो देखते ही कहां और क्या? पितामह भीष्म धर्म की सूक्ष्मता और बारीकियों की दुहाई देने लगे।
द्रौपदी के प्रश्न का उत्तर भी उस समय यद्यपि महत्वपूर्ण था; क्योंकि युधिष्ठिर दांव में पहले भाईयों को और फिर स्वयं को हार चुके थे, तत्पश्चात द्रौपदी को दांव पर लगाया गया। लेकिन बात केवल प्रश्न के उत्तर तक की नहीं थी। सामने जो हो रहा था-सब देख रहे थे।
कुलवधू और उसके साथ भारतीय अस्मिता को नग्न करने का कुकृत्य वस्तुतः अधर्म के साथ-साथ घोर अपराध भी था। उस समय का धर्म यही था-इस अधर्म को रोकना, अबला की लाज बचाना।
द्रौपदी ने इसी हेतु से सबकी ओर देखा, कोई साथ देने की स्थिति में नहीं था । पांचों पति भी नीचे मुंह किये रहे। उसने अपना प्रयास किया, वह भी विफल होता दिखा। ‘निर्बल के बल राम’ का भाव स्मृति पटल पर आशा की किरण बनकर आया। विश्वास जागा।
जहां संसार से आशा टूटती है, कोई आस-विश्वास की कसौटी पर खरा नहीं उतरता (जैसा कि संसार का स्वभाव है), वहीं मन एकनिष्ठ परमात्मा की ओर आगे बढ़ता है। इसी अवस्था में ‘विषाद से योग’ की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। सब ओर से निराश द्रौपदी ने पुकारा “हे गोविन्द! हे द्वारकावासी श्री कृष्ण! हे गोपांगनाओं के प्राण वल्लभ केशव! कौरव मेरा अपमान कर रहे हैं, क्या आप नहीं जानते? हे नाथ! हे रमानाथ! हे वज्रनाथ! हे संकटनाशन जनार्दन! मैं कौरवरूपी समुद्र में डूबी जा रही हूं, मेरा उद्धार कीजिये। सच्चिदानन्दस्वरूप श्री कृष्ण! महायोगिन! विश्वात्मन! विश्वभावन! गोविन्द! कौरवों के मध्य कष्ट पाती मुझ शरणागत अबला की रक्षा कीजिये।”
पुकार अन्तर्मन की गहराई से हो और वह भी भाव सच्चा तथा विश्वास पक्का हो तो ऐसी स्थिति में पुकार न सुनी जाय, ऐसा हो नहीं सकता। ‘परित्राणाय साधूनाम’ (सज्जनों की रक्षा) तो श्री भगवान के अवतार का स्पष्ट उदघोष ही है “हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं साकार रूप में प्रकट होता हूं।”
धर्म के विषय में भले ही सब मौन थे, लेकिन ऐसी विकट स्थिति में धर्म रक्षक परमात्मा कैसे मौन रह सकते थे? एक अबला पर अत्याचार, आर्त पुकार, अनीति-अधर्म का साम्राज्य, एक ओर दस हजार हाथियों का बल रखने वाला दुःशासन, उसका दुस्साहसपूर्ण अहंकार और दूसरी ओर अबला द्रौपदी का विश्वास। विश्वास श्री भगवान के वस्त्रावतार रूप में विजयी हुआ।
प्रहलाद के लिये नृसिंहावतार लेने वाले, कुएं में गिरने जा रहे सूरदास के लिये अकस्मात गोपाल रूप में प्रकट होकर हाथ थामने वाले, नरसी के लिये सांवल शाह बनकर भात भरने वाले, मीरा के लिये विष से भी अमृत बनकर प्रकट होने वाले आज एक नये रूप में पूरी कुरूसभा को अचम्भित कर रहे थे। द्रौपदी की लाज की रक्षा के लिये भगवान वस्त्रावतार लेकर प्रकट हुए।
ढेर लग गया वस्त्रों का। पूरी सभा ढक गयी। द्रौपदी के लाज की रक्षा हुई। दुःशासन का अहंकार कुछ-कुछ लज्जित। ‘धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे’ के उदघोष ने स्पष्ट दिखा दिया कि उनकी घोषणा केवल घोषणा नहीं, भक्त की लाज की रक्षा अथवा भाव रक्षा के लिये, धर्म-मर्यादाओं की रक्षा के लिये वे कहीं भी, कभी और किसी भी रूप में प्रकट हो सकते हैं।