राजा भोज को इस बार विक्रमादित्य की कथा सुनायी तेरहवीं पुतली कीर्तिमती ने | कीर्तिमती ने राजा भोज व वहाँ उपस्थित सभी दरबारी गणों को बतलाना आरम्भ किया “एक बार राजा विक्रमादित्य ने एक महाभोज का आयोजन किया । उस भोज में असंख्य विद्धान, ब्राह्मण, व्यापारी तथा दरबारी आमन्त्रित थे।
भोज के मध्य में इस बात पर चर्चा चली कि संसार में सबसे बड़ा दानी कौन है । सभी ने एक स्वर से विक्रमादित्य को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ दानवीर घोषित किया । राजा विक्रमादित्य लोगों के भाव देख रहे थे ।
तभी उनकी नज़र एक ब्राह्मण पर पड़ी जो अपनी राय नहीं दे रहा था । लेकिन उसके चेहरे के भाव से स्पष्ट प्रतीत होता था कि वह सभी लोगों के विचार से सहमत नहीं है । विक्रम की आँखों में चमक आ गयी | उन्होंने उससे उसकी चुप्पी का कारण पूछा तो वह डरते हुए बोला कि सबसे अलग राय देने पर कौन उसकी बात सुनेगा ।
राजा ने निर्भय हो कर उसे अपना विचार रखने को कहा | उसने बताया कि वह असमंजस की स्थिति में पड़ा हुआ है । अगर वह सच नहीं बताता, तो उसे झूठ का पाप लगता है और सच बोलने की स्थिति में उसे डर है कि राजा का कोपभाजन बनना पड़ेगा ।
अब विक्रमादित्य की जिज्ञासा और बढ़ गई । उन्होंने उसकी स्पष्टवादिता की भरि-भूरि प्रशंसा की तथा फिर से उसे निर्भय होकर अपनी बात कहने को कहा । तब उसने कहा कि महाराज विक्रमादित्य बहुत बड़े दानी हैं, यह बात सत्य है पर इस पृथ्वी पर सबसे बड़े दानी नहीं । यह सुनते ही सभी लोग चौंके । सबने आश्चर्य चकित होकर पूछा ऐसा कैसे हो सकता है?
उस पर उस ब्राह्मण ने कहा कि समुद्र पार एक राज्य है जहाँ का राजा कीर्कित्तध्वज जब तक एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ प्रतिदिन दान नहीं करता तब तक अन्न-जल भी ग्रहण नहीं करता है । अगर यह बात असत्य प्रमाणित होती है, तो वह ब्राह्मण कोई भी दण्ड पाने को तैयार था । राजा के विशाल भोज कक्ष में निस्तब्धता छा गई । ब्राह्मण ने भरी सभा में बताया कि कीर्कित्तध्वज के राज्य में वह कई दिनों तक रहा और प्रतिदिन स्वर्ण मुद्रा लेने गया ।
वास्तव में ही कीर्कित्तध्वज एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान करके ही भोजन ग्रहण करता था । यही कारण था कि भोज में उपस्थित सारे लोगों की हाँ-में-हाँ उसने नहीं मिलाई । राजा विक्रमादित्य ब्राह्मण की स्पष्टवादिता से अत्यंत प्रसन्न हो गए और उन्होंने उसे पारितोषिक देकर सादर विदा किया । ब्राह्मण के जाने के बाद राजा विक्रमादित्य ने साधारण वेश धरा और दोनों बेतालों का स्मरण किया ।
जब दोनों बेताल वहां उपस्थित हुए तो उन्होंने उन्हें समुद्र पार राजा कीर्कित्तध्वज को राज्य में पहुँचा देने को कहा । बेतालों ने उनके आदेश का पालन किया और पलक झपकते ही उन्हें वहाँ पहुँचा दिया । कीर्कित्तध्वज के महल के द्वार पर पहुँचकर उन्होंने अपना परिचय उज्जयिनी नगर के एक साधारण नागरिक के रूप में दिया तथा कीर्कित्तध्वज से मिलने की इच्छा जताई ।
कुछ समय बाद जब विक्रमादित्य कीर्कित्तध्वज के सामने उपस्थित हुए, तो उन्होंने उसके यहाँ नौकरी की माँग की । कीर्कित्तध्वज ने जब पूछा कि वे कौन सा काम कर सकते हैं तो उन्होंने कहा जो कोई नहीं कर सकता वह काम वे कर दिखाएँगे ।
राजा कीर्कित्तध्वज के अधरों पर मुस्कान दौड़ गयी, उन्हें उनका जवाब पसंद आया और विक्रमादित्य को उनके यहाँ नौकरी मिल गई । वे कीर्कित्तध्वज के निजी द्वारपाल के रूपमें नियुक्त हुए । उन्होंने देखा कि राजा कीर्कित्तध्वज वास्तव में हर दिन एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ जब तक दान नहीं कर लेता अन्न-जल ग्रहण नहीं करता है ।
उन्होंने यह भी देखा कि राजा कीर्कित्तध्वज रोज़ शाम में रहस्यमय तरीके से अकेला कहीं निकलता है और जब लौटता है, तो उसके हाथ में एक लाख स्वर्ण मुद्राओं से भरी हुई थैली होती है । एक दिन शाम को उन्होंने छिपकर कीर्कित्तध्वज का पीछा किया । उन्होंने देखा कि राजा कीर्कित्तध्वज समुद्र में स्नान करके एक मन्दिर में जाता है और एक प्रतिमा की पूजा-अर्चना करके खौलते तेल के कड़ाह में कूद जाता है ।
जब उसका शरीर जल-भुन जाता है, तो कुछ प्रेतनियाँ आकर उसका जला-भुना शरीर कड़ाह से निकालकर नोच-नोच कर खाती हैं और तृप्त होकर चली जाती हैं । प्रेतनियों के जाने के बाद प्रतिमा की देवी प्रकट होती है और अमृत की बून्दें डालकर कीर्कित्तध्वज को जीवित करती है ।
अपने हाथों से एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ कीर्कित्तध्वज की झोली में डाल देती है और कीर्कित्तध्वज खुश होकर महल लौट जाता है । प्रात:काल वही स्वर्ण मुद्राएँ वह याचकों को दान कर देता है । विक्रम की समझ में उसके नित्य एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान करने का रहस्य आ गया ।
अगले दिन, संध्या समय, राजा कीर्कित्तध्वज के स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त कर चले जाने के बाद विक्रम ने भी नहा-धो कर देवी की पूजा की और जलते हुए तेल के कड़ाह में कूद गए । थोड़ी देर में फिर प्रेतनियाँ आयीं और जब वे उनके जले-भुने शरीर को नोचकर ख़ाकर चली गईं तो देवी ने विक्रमादित्य को जीवित किया ।
जीवित करके जब देवी ने उन्हें स्वर्ण मुद्राएँ देनी चाहीं तो उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि देवी की कृपा ही उनके लिए सर्वोपरि है । यह क्रिया उन्होंने सात दिनों तक, सात बार दुहराई । सातवीं बार देवी ने उनसे बस करने को कहा तथा उनसे कुछ भी मांग लेने को कहा । विक्रम इसी अवसर की ताक में थे । उन्होंने देवी से वह थैली ही मांग ली जिससे स्वर्ण मुद्राएँ निकलती थीं । ज्योंहि देवी ने वह थैली उन्हें सौंपी-चमत्कार हुआ ।
मन्दिर, प्रतिमा-सब कुछ गायब हो गया । अब दूर तक केवल समुद्र तट दिखता था । दूसरे दिन जब कीर्कित्तध्वज वहाँ आया तो बहुत निराश हुआ । उसका वर्षों का एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान करने का नियम टूट गया । अन्न-जल त्याग कर अपने कक्ष में असहाय पड़ा रहा । उसका शरीर क्षीण होने लगा ।
जब उसकी हालत बहुत अधिक बिगड़ने लगी, तो विक्रम उसके पास गए और उसकी उदासी का कारण जानना चाहा । उसने विक्रम को जब सब कुछ खुद बताया तो विक्रम ने उसे देवी वाली थैली देते हुए कहा कि रोज़-रोज़ कडाह में उसे कूदकर प्राण गँवाते देख वे द्रवित हो गए, इसलिए उन्होंने देवी से वह थैली ही सदा के लिए प्राप्त कर ली ।
वह थैली राजा कीर्कित्तध्वज को देकर उन्होंने उस वचन की भी रक्षा कर ली, जो देकर उन्हें कीर्कित्तध्वज के दरबार में नौकरी मिली थी । उन्होंने वास्तव में वही काम कर दिखाया जो कोई भी नहीं कर सकता था । राजा कीर्कित्तध्वज ने उनका परिचय पाकर उन्हें सीने से लगाते हुए कहा कि वे सचमुच इस धरा पर सर्वश्रेष्ठ दानवीर हैं, क्योंकि उन्होंने इतनी कठिनाई के बाद प्राप्त स्वर्ण मुद्रा प्रदान करने वाली थैली ही बेझिझक दान कर डाली जैसे कोई तुच्छ वस्तु हो ।