स्कन्द पुराण में आयी श्री जगन्नाथ जी की कथा

श्री जगन्नाथ जीस्कन्द पुराण के अनुसार सत्यवादी तथा धर्मात्मा राजा इन्द्रद्युम्न ने एक बार अपने पुरोहित से कहा “आप उस उत्तम क्षेत्र का संधान करें, जहां हमें साक्षात जगन्नाथ अवतार के दर्शन मिलें।” तब एक तीर्थ यात्री के मुख से श्री क्षेत्र का माहात्मय सुनकर पुरोहित ने अपने भाई विद्यापति को पुरूषोत्तम भगवान का दर्शन करने और उनके निवास स्थल का निर्णय करके लौट आने के लिये भेजा।

भगवान की मंगलमय लीला का चिंतन करते हुए विद्यापति एक आम्रकानन में जा पहुंचे। गगनचुम्बी नीलांचल शिखर देख कर साक्षात विग्रहवान भगवान नारायण का वास स्थान खोजते हुए वे नीलांचल की उपत्यका में पहुंच गये।

जब वहां से अग्रसर होने का मार्ग नहीं मिला, तब भूमि पर कुश बिछा कर वह मौन भाव से भगवत – शरणाश्रित हुए। वहां उन्हें मार्ग दर्शन हेतु कुछ भक्तों की लोकोत्तर वाणी सुनायी दी। प्रसन्न हो उसी का अनुसरण करते हुए वह आगे बढने लगे।

शबरदीपकाश्रम पहुंच कर वहां उन्हें शबर विश्वावसु नामक शबर ने पाद्य, आसनाघ्र्य देते हुए पूछा “फलाहार करेंगे या तैयार की हुई भोजन सामग्री? आज मेरा जीवन सफल हुआ, चूंकि दूसरे विष्णु की भांति आप मेरे घर पधारे हैं।” विद्यापति ने शबर विश्वावसु से कहा “आप भोजन की चिंता न करें। मैं जिस उद्देश्य से यहाँ आया हूं, उसे सफल करने की कृपा करें।”

अवन्तीश्वर इन्दद्युम्न की आज्ञा अनुसार मैं अवतार दर्शनार्थ यहां आया हूं। नीलमाधव अवतार का दर्शन कर उक्त समाचार राजा को जब तक नहीं दिया जायगा, तब तक वे निराहार ही रहेंगे। अतः मुझे शीघ्र ही प्रभु से मिलाने की कृपा करें।

इसके उपरान्त दोनों गहन कानन में पहुंचे। आगे चलते – चलते वे रौहिणकुण्ड के पास आ पहुंचे। शबर ने कुण्ड की महिमा बतायी तथा कल्पवट का दर्शन कराया। शबर ने बताया कि “रौहिणकुण्ड तथा कल्पवट के बीच में कुंज भगवान जगन्नाथ विराजमान हैं, इनके दर्शन कीजिये”।

विद्यापति ने कुण्ड में स्नान किया और नियमपूर्वक भगवान की स्तुति की और वह भगवद दर्शन से कृतार्थ हो गये। विश्वावसु शबर उन्हें आश्रम में पुनः वापस लेकर चले आये और उनका सविधि सत्कार किया।

शबर ने जो आलौकिक वस्तुएं समर्पित कीं, उन्हें देख कर विद्यापति ने विस्मित होकर कहा “तुम्हारे घर में ऐसी दिव्य वस्तुओं का संग्रह आश्चर्य का विषय है।” शबर ने कहा “द्विजश्रेष्ठ! इन्द्रादि देवता नित्य ही अवतार पुरूष श्री जगन्नाथ की उपासना करने के लिये अनेक दिव्य उपचार लेकर यहां आते हैं और भक्तिपूर्वक पूजा – स्तुति करके तथा दिव्य वस्तुएं समर्पित कर लौट जाते हैं।

ये सब वस्तुएं भगवान की प्रसाद रूपा हैं जो मैंने आपको समर्पित की हैं। भगवान के इस प्रसाद के भक्षण से हम लोगों के रोग और बुढ़ापे का नाश हो गया है। भगवान के प्रसाद में आश्चर्य नहीं करना चाहिये।” यह सुनकर विद्यापित का शरीर पुलकित हो उठा।

विद्यापति के आंखों से खुशी के आंसू बह निकले उन्होंने कहा “आप धन्य हैं” । तत्पश्चात विद्यापति ब्राह्मण ने कहा “मुझ पर यदि आपकी कृपा हो जाय तो मुझे हमेशा – हमेशा के लिये अपना ही बना लें। आपके साथ मैत्री – स्थापन करने का मेरा दृढ़ निश्चय है। सखे! आपका यह महान सौभाग्य है।

मेरे लौट जाने पर राजा इन्दद्युम्न यहां आयेंगे एवं वह एक विशाल मंदिर का निर्माण करके सहस्र उपचार से नित्य ही जगन्नाथ जी की उपसना करेंगे।” यह सुनकर शबर ने कहा “ये सब बातें तो ठीक ही हैं, किंतु राजा यहां नीलमाधव का दर्शन नहीं कर सकेंगे, चूंकि भगवान स्वर्णमयी बालुका में अदृश्य हो जायंगे।

वो परम सौभाग्यशाली होने से प्राण त्याग तक को तैयार हो जायेंगे, तब भगवान गदाधर स्वपन में उन्हें अवश्य ही दर्शन देंगे। उस समय राजा उन्हीं के आदेश अनुसार भगवान की काष्ठमयी चतुर्मूतियों को ब्रह्मा जी के द्वराा स्थापित कराकर पूजा करेंगे।”

शबर श्रेष्ठ विश्वावसु से इतना सब अवगत होने के उपरान्त विद्यापति श्री क्षेत्र की प्रदक्षिणा करके अवन्तीपुरी चले आये और उन्होंने उन सभी बातों को राजा से निवेदित कर दिया तथा प्रसाद रूप में दिव्य माला राजा को भेंट की।

सब बातें जानकर राजा समयानुसार श्री क्षेत्र पहुंचे तथा उन्होंने वहां सहस्र अश्वमेध यज्ञ अनुष्ठान किया और अनेक तीर्थों के दर्शन किये। देवर्षि नारद भी उनके साथ आये हुए थे।

वे आनंदपूर्वक बोले “राजन! पूर्णाहुति के बाद यज्ञ सफल होगा। तुम्हारे भाग्योदय का समय समीप आ गया है। तुमने स्वप्न मे श्वेतद्वीप में बलभद्र तथा सुभद्रा सहित जिन पुरूषोत्तम भगवान का दर्शन किया है, उनके शरीर का रोम गिरते ही वह वृक्षभाव को प्राप्त हो जायगा।

इस धरती पर स्थावर रूप में वह भगवान का अंश अवतार होगा। भक्त वत्सल विभु अभी उसी रूप में अवतार धारण करेंगे। यज्ञान्त – स्नान शेष करके वृक्ष रूप में प्रकटित यज्ञेश्वर को तुम इस महावेदी पर स्थापित करो।” इसके उपरान्त नारद जी और राजा इन्द्रद्युम्न दोनों ही प्रसन्नतापूर्वक वहां से चले गये।

वृक्ष का दर्शन कर राजा ने अपने परिश्रम को सफल माना और नीलमणि माधव के विरहजन्य शोक का परिहार करके बार – बार उस वृक्ष को प्रणाम किया। राजा ने आनंदाश्रु परिपूर्ण लोचनों से ब्राह्मणों के द्वारा उस वृक्ष को मंगवाया। ब्राह्मण लोग चन्दन और मालाओं से विभूषित अवतार श्रेष्ठ जगन्नाथ के दिव्य वृक्ष को महोवदी पर ले आये।

देवर्षि नारद जी के कथनानुसार उक्त वृक्ष की उपासना करके राजा ने प्रश्न किया “देवर्षि नारद! भगवान विष्णु की प्रतिमाएं कैसे बनेंगी और उनका निर्माण कौन करेगा ?”

देविर्ष नारद जी ने कहा “भगवान की लीला कथा अलौकिक है, उसे कौन जान सकता है ?” उसी समय आकाशवाणी सुनायी दी “अत्यन्त गुप्त रखी हुई महावेदी पर भगवान स्वयं अवतार ग्रहण करेंगे।

पंद्रह दिनों तक उक्त स्थान को आवृत रखा जाय। हाथ में हथियार लेकर जो वृद्धशिल्पी समुपस्थित है, उसको भीतर प्रवेश करा कर यत्न से दरवाजा बंद करना चाहिये। मूर्ति रचनात्मक बाहर वाद्य बजते रहें, अंदर जाने की कोई भी चेष्टा न करे, शिल्पकार को छोड़ कर अन्य कोई देखेगा तो वह दोनों नेत्रों से अंधा हो जायगा।”’

आकाशवाणी के अनुसार राजा ने समस्त व्यवस्थाएं की। पंद्रहवां दिन आते ही भगवान चार विग्रहों – बलदेव जी, सुभद्रा और सुदर्शन चक्र के साथ स्वयं अवतीर्ण हुए। राजा ने भक्तिपूर्वक् उनका स्तवन किया और आकाशवाणी में बताये गये विधान के अनुसार पूजा – उपासना की।

तब से उत्कल में विधिपूर्वक् दारू विग्रह अवतार की उपासना होती आ रही है। चतुर्धामों में श्री पुरीधाम को श्रेष्ठ माना गया है। सत्ययुग का धाम बद्रीनाथ, त्रेता का रामेश्वर एवं द्वापर का द्वारका है और इस कलियुग का पवित्र धाम है – श्री जगन्नाथपुरी।

इस स्थान पर सर्वप्रथम नीलांचल-संज्ञक पर्वत ही था तथा सर्वदेवाराधनीय भगवान नीलमाधव जी का श्री विग्रह उक्त पर्वत पर ही था, कालक्रम से वह पर्वत पाताल में चला गया। देवतासंग भगवत विग्रह को स्वर्ग लोक में लेकर चले गये। इस क्षेत्र को उन्हीं की पावन स्मृति में आज भी सश्रद्ध ‘नीलांचल’ कहा जाता है।

श्री जगन्नाथ मंदिर शिखर पर संलग्न चक्र  ‘नीलच्छत्र ’ के दर्शन जहां तक होते रहते हैं, वह सम्पूर्ण क्षेत्र ही श्री जगन्नाथपुरी है। सिद्धांत दर्पण में उनकी स्तुति इस प्रकार की गयी है – जिसका भाव यह है कि जो सर्वत्र परिपूर्ण होते हुए भी नीलगिरिदरी केशरी रूप में स्थित हैं एवं अरूप होते हुए भी जो पद्मप्रद्यम्न स्वरूप हैं, अणु होने पर भी विशाल विश्व के रूप में निःशेष लोकों को धारण कर उनका पोषण करते हैं, गुणातीत होने पर भी अगणनीय सदगुणों के आकर हैं, वे आश्चर्य सिन्धु मुकुन्द मादृक – चर्म चक्षु का भी लक्ष्य होकर हमारे मन में स्फुरित रहते है।

अत्यन्त प्राचीन काल से अब तक दार्शनिक, कवि और भक्त लेखक वृन्द जगन्नाथ अवतार की अवण्र्य लीला कथाएं अपने दृष्टिकोण से वर्णन कर चुके हैं, किंतु उस अवतार की लीला कथाओं का अंत न प्राप्त कर सके।

जगन्नाथ अवतार, मानसगोचर, अनन्य, असाधारण तथा रहस्यशाली हैं और प्रभु की माया तो दुरत्यया ही है। श्री क्षेत्र में जगन्मैत्री की परम श्रेष्ठ भावना निहित है। श्री जगदीश रथ यात्रा ही जिसका प्रमाण है।

जगन्नाथ की यह अवतार कथा विश्व ब्राह्माण्ड का सच्चा मंगल विस्तार करे, जिसके चिंतन, मनन एवं निदिध्यासन से भगवान की ध्रुवास्मृति तथा भगवत्संनिधि की प्राप्ति होती है। श्रीमद भागवत (10।31।9) – में महाभाग्यवती गोपियां कह रही हैं “आपकी अवतार – कथासुधा संसार के ताप से तप्त प्राणियों के लिये संजीवन – बूटी है तथा कवि – ज्ञानी – महात्मा उनका गान करते हैं। आपकी अवतार कथा सारे पाप – ताप को मिटा देती है। इतना ही नहीं, वह केवल श्रवण मात्र से शुभ मंगल प्रदान करती है और सुरम्य , मधुर तथा विस्तृत है।”

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