विक्रमादित्य के स्वर्ण सिंहासन की आठवीं पुतली पुष्पवती ने राजा भोज को जो कथा सुनाई वह इस प्रकार थी | सम्राट विक्रमादित्य अद्भुत कला-पारखी थे । उन्हें श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कलाकृतियों से अपने महल को सजाने का शौक था । वे इतने बड़े कलाप्रेमी थे कि कलाकृतियों का मूल्य आँककर बेचने वाले को मुँह माँगा दाम व इनाम देते थे ।
एक दिन वे अपने दरबारियों के बीच बैठे थे कि महल के द्वारपाल ने खबर दी कि एक व्यापारी काठ का घोड़ा बेचना चाहता है । राजा को उत्सुकता हुई, उन्होंने देखना चाहा कि उस काठ के घोड़े की विशेषता क्या है । अपने नौकर के साथ वह व्यापारी दरबार में आया । अपने साथ वह ऐसा काठ का घोड़ा लाया जिसकी कारीगरी देखते ही बनती थी । एकदम जीवंत मालूम पड़ता था वह ।
बहुत ध्यान से देखने पर ही पता चलता था कि घोड़ा लकड़ी का है । विक्रम ने उस व्यापारी से घोड़े की विशेषताओं के बारे में पूछा । उस व्यापारी ने जवाब दिया कि वह घोड़ा अति तीव्र गति से जल, थल और आकाश-तीनों में विचरण कर सकता है ।
उसके दाम के बारे में पूछने पर उसने बताया कि यह उसकी जीवन भर की मेहनत का फल है, इसलिए वह एक लाख स्वर्णमुद्राओं से कम में उसे नहीं बेचेगा । राजा को उसकी बात जँच गई और उन्होंने एक लाख स्वर्ण-मुद्राएँ, उस व्यापारी को देकर उन्होंने वह घोड़ा उससे खरीद लिया । फिर वह आदमी खुले मैदान में आकर घोड़े को उठाकर दिखाने लगा तथा उसके कल-पुर्जों के बारे में सब कुछ उन्हें बताने लगा ।
उसके संचालन की सारी विधि समझकर विक्रम ने घोड़ा अपने अश्वागार में रखवा दिया । एक दिन अपने सैनिको के साथ राजा आखेट के लिए निकले तो खुद उसी घोड़े पर सवार थे । कल-पुर्जों का प्रयोग करके, उसकी कुन्जी दबाने पर उसकी गति इतनी बढ़ गई कि विक्रम को आनन्द आ गया । वे भूल गए कि आखेट के लिए वे अकेले नहीं निकले हैं । अपनी टोली से बिछुड़कर बहुत दूर आ गए ।
उन्होंने उस घोड़े को हवा में उड़ाने के लिए दूसरे यान्त्रिक कक्ष की कुंजी को दबाया । उसकी गति ऊपर आसमान में इतनी बढ़ गई कि राजा के लिए उसे संभालना मुश्किल हो गया । उन्होंने उसे ज़मीन पर उतारना चाहा तो वह उसी गति से उतरा और एक विशाल घने वृक्ष की शाखाओं से टकरा कर टुकड़े-टुकड़े हो गया ।
अब उस निर्जन और अनजान जगह पर राजा अकेले थे । वे इधर-उधर भटक रहे थे तभी सामने एक बन्दरिया कूदी और अपने शारीरिक हाव-भाव से कुछ बताने की कोशिश करने लगी । राजा कुछ समझ पाते तब तक उनकी दृष्टी एक कुटिया पर पड़ी । राजा को भूख लगी थी और वे थके भी थे । उन्होंने वृक्षों पर लदे फल तोड़े और अपनी भूख मिटाई और एक वृक्ष पर चढ़कर लेट गए ।
वे विश्राम कर ही रहे थे कि सहसा उन्होंने देखा कि कहीं से एक सन्यासी आया और बन्दरिया को इशारा करके अपने साथ कुटिया में रखे दो घड़ों के बीच में बन्दरिया को बैठने को कहा । उसके बाद उसने एक घड़े से चुल्लू भर पानी लेकर बन्दरिया के ऊपर छींटे मारे । बन्दरिया एक अत्यन्त रुपवती राजकुमारी बन गई ।
फिर उस राजकुमारी ने सन्यासी के लिए भोजन पकाया तथा जब सन्यासी खा चुका तब उस राजकुमारी ने सन्यासी के हाथ-पैर दबाए और सन्यासी आराम से सो गया । जब सुबह हुई तो सन्यासी ने दूसरे घड़े से चुल्लू भर पानी लेकर राजकुमारी पर छींटे मारे । राजकुमारी फिर से बन्दरिया बन गई । उसे लेकर सन्यासी कुटिया से बाहर आया और उसे वन में स्वतंत्र विचरने को छोड़कर वहाँ से चला गया ।
उसके जाने के बाद बन्दरिया को लेकर विक्रम कुटिया में आए और उसी घड़े से पानी लेकर बन्दरिया पर छींटे डाल दिए । बन्दरिया फिर से अनिंद्य सुन्दरी बन गई । राजकुमारी बनते ही उसने राजा को बताया कि वह कामदेव तथा एक अप्सरा की संतान है। उसने आगे बताया कि “एक बार मैंने शिकार खेलते हुए एक बाण मृग की ओर निशाना लगाकर छोड़ा ।
वह बाण मृग को नहीं लगकर एक साधु की बाँह को बेध गया । दर्द से कराहते हुए उस साधु ने मुझे श्राप दिया कि बन्दरिया बनकर मुझे एक साधु की सेवा करनी पड़ेगी । जब मैं रोई-गिड़गिड़ाई कि यह सब अनजाने में हुआ तो उसने पसीजकर श्राप से मुक्ति का रास्ता बताया । उसने कहा कि राजा विक्रमादित्य आकर तुम्हें श्राप से मुक्ति दिलाएँगे तथा तुम्हारा पत्नी के रुप में वरण करेंगे अगर वह साधु तुम्हें कोई चीज़ उपहार स्वरुप देगा” ।
“मैं आपको देखते ही पहचान गई थी । अब साधु के लौटने पर मैं उससे उपहार माँगूगी और आप मेरा पत्नी के रुप में वरण कर लीजियेगा” । विक्रम ने कहा “ठीक है” फिर पानी के छींटे डालकर उसे बन्दरिया बना दिया । साधु आया और उसने बन्दरिया से उसे राजकुमारी में बदल डाला । राजकुमारी ने उससे कोई उपहार देने को कहा ।
राजकुमारी के आग्रह पर उसने हवा में हाथ लहराया तो उसके हाथ में एक खिला हुआ कमल आ गया । उसने कहा यह कमल हर दिन तुम्हें एक रत्न देगा । साधु ने यह भी कहा कि उसे पता है राजा विक्रमादित्य उसकी ज़िन्दगी में आ पहुँचे हैं, इसलिए वह राजकुमारी को बाकी की ज़िन्दगी सुखपूर्वक व्यतीत करने का आशीर्वाद देता है । साधु ने उसके बाद राजकुमारी को अपनी कुटिया से सहर्ष विदा किया । राजकुमारी अब पूरी तरह शाप मुक्त हो चुकी थी ।
विक्रम ने तब दोनों बेतालों का स्मरण किया जो उन दोनों को विक्रम की राजधानी की सीमा पर पहुँचा कर गायब हो गए । नगर में जब उन्होंने प्रवेश किया तो एक बच्चा कमल के पुष्प को प्राप्त करने को मचल उठा । विक्रम ने वह कमल का फूल बच्चे को तुरन्त देकर संतुष्ट किया । फिर महल पहुँचकर राजकाज देखने लगे ।
कुछ दिनों बाद उनके पास एक गरीब आदमी को पकडकर लाया गया । उसे बहुमूल्य रत्न बेचने के आरोप में बन्दी बनाया गया था । राजा के पूछने पर उसने बताया कि उसके बच्चे को किसी ने एक खिला कमल दिया था, उसी कमल से ये रत्न उसे प्राप्त हुए हैं । विक्रम ने सिपाहियों को बिना कारण किसी की ईमानदारी पर शक करने के लिए डाँटा तथा वे सारे रत्न अच्छे मूल्य पर स्वयं खरीद लिए । वह आदमी राजा को आशीर्वाद देता हुआ संतुष्ट होकर दरबार से विदा हुआ ।