विक्रम बेताल की कहानियां, स्त्री को अपमानित करने का पाप किसको लगा

विक्रम बेताल की कहानियां, स्त्री को अपमानित करने का पाप किसको लगामार्ग में कथा सुनाने के लिए विक्रम की अनुमति मिलने के बाद बेताल ने कथा सुनाना प्रारंभ किया | किसी समय काशी में प्रतापमुकुट नाम का राजा राज्य करता था । उसके वज्रमुकुट नाम का एक बेटा था । एक दिन राजकुमार दीवान के लड़के को साथ लेकर शिकार खेलने जंगल गया । और थोड़ी ही देर में राज्य से बाहर निकल गया | घूमते-घूमते उन्हें तालाब मिला । उसके पानी में कमल खिले थे और हंस किलोल कर रहे थे ।

तलब के किनारों पर घने पेड़ थे, जिन पर पक्षी चहचहा रहे थे । दोनों मित्र वहाँ रुक गये और तालाब के पानी में हाथ-मुँह धोकर ऊपर महादेव के मन्दिर पर गये । घोड़ों को उन्होंने मन्दिर के बाहर ही बाँध दिया । वो मन्दिर में भगवान् शिव के दर्शन करके बाहर आये तो देखते क्या हैं कि तालाब के किनारे राजकुमारी अपनी सहेलियों के साथ स्नान करने आई है ।

दीवान का लड़का तो वहीं एक पेड़ के नीचे बैठा रहा, पर राजकुमार से न रहा गया । कौतूहल में वह आगे बढ़ गया । राजकुमारी ने जब उसकी ओर देखा तो वह उस पर मोहित हो गया । राजकुमारी भी उसकी तरफ़ देखती रही । फिर राजकुमारी ने एक कौतुक किया | उसने अपने जूड़े में से कमल का फूल निकाला, कान से लगाया, दाँत से कुतरा, पैर के नीचे दबाया और फिर अपनी छाती से लगा लिया और अपनी सखियों के साथ चली गयी ।

उसके जाने पर राजकुमार निराश हो कर अपने मित्र के पास आया और सारा वृत्तान्त सुनाकर बोला, “मैं इस राजकुमारी के बिना नहीं रह सकता । पर मुझे न तो उसका नाम मालूम है, और न ही पता । वह मुझे कैसे मिलेगी?” | दीवान का लड़का बुद्धिमान था उसने राजकुमार से कहा, “राजकुमार, आप इतना घबरायें नहीं । वह सब कुछ बता कर गयी है।”

राजकुमार ने आश्चर्य से पूछा, “कैसे?” | वह बोला, “उसने कमल का फूल सिर से उतार कर कानों से लगाया तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसने बताया कि मैं कर्णाटक की रहने वाली हूँ । दाँत से कुतरा तो उसका अर्थ था कि मैं दंतबाट राजा की पुत्री हूँ । पाँव से दबाने का अर्थ था कि मेरा नाम पद्मावती है और अपनी छाती से लगाकर उसने बताया कि तुम उसके ह्रदय में बस गये हो ।”

इतना सुनना था कि राजकुमार खुशी से फूल उठा और मित्र को अपनी बांहों में भर कर बोला, “मित्र! अब मुझे कर्णाटक देश में ले चलो ।” दोनों मित्र वहाँ से चल दिये । घूमते-फिरते, सैर करते, दोनों कई दिन बाद वहाँ पहुँचे । राजा के महल के पास, मार्ग में उन्हें एक बुढ़िया अपने द्वार पर बैठी चरखा कातती मिली ।

उसके पास जाकर दोनों घोड़ों से उतर पड़े और बोले, “माई, हम व्यापारी हैं । हमारा सामान पीछे आ रहा है । हमें रहने के लिए थोड़ी जगह दे दो ।” उनकी शक्ल-सूरत देखकर और बात सुनकर बुढ़िया के मन में ममता उमड़ आयी । बोली, “बेटा, तुम्हारा घर है । जब तक जी में आए, रहो ।”

दोनों वहीं ठहर गये । राजकुमार आराम करने चला गया और दीवान का पुत्र, उस बूढ़ी महिला के पास जा पहुंचा | उसने उससे पूछा, “माई, तुम क्या करती हो? तुम्हारे घर में कौन-कौन है? तुम्हारी आजीविका कैसे चलती है?”

बुढ़िया ने उत्तर दिया, “बेटा, मेरा एक बेटा है जो राजा की चाकरी में है । मैं राजा की बेटी पह्मावती की धाय थी । बूढ़ी हो जाने से अब घर में रहती हूँ । राजा खाने-पीने को दे देता है। दिन में एक बार राजकुमारी को देखने महल में जाती हूँ ।”

यह सब सुन कर राजकुमार कमरे से बाहर आया और उसने बुढ़िया को कुछ धन दिया और कहा, “माई, कल तुम वहाँ जाओ तो राजकुमारी से कह देना कि जेठ सुदी पंचमी को तुम्हें तालाब पर जो राजकुमार मिला था, वह आ गया है ।”

अगले दिन जब बुढ़िया राजमहल गयी तो उसने राजकुमार का सन्देशा उसे दे दिया । सुनते ही राजकुमारी ने गुस्सा होंकर हाथों में चन्दन लगाकर उसके गाल पर हलके से तमाचा मारा और धीमे से कहा, “मेरे घर से निकल जा ।”

बुढ़िया ने घर आकर सब हाल राजकुमार को कह सुनाया । राजकुमार हक्का-बक्का रह गया । उसे अपनी सारी आशायें चूर-चूर होती दिखीं | किन्तु तभी उसके मित्र ने उससे कहा, “राजकुमार, आप घबरायें नहीं, उसकी बातों को समझें, वह आपको कूट भाषा में समझा रही है । उसने दसों उँगलियाँ सफ़ेद चन्दन में मारीं, इससे उसका अभिप्राय यह है कि अभी दस दिन चन्द्रमा के हैं । उनके बीतने पर मैं अँधेरी रात (अमावस्या) में मिलूँगी ।”

दस दिन के बाद राजकुमार के कहने पर बुढ़िया ने फिर राजकुमारी को ख़बर दी तो इस बार उसने केसर के रंग में तीन उँगलियाँ डुबोकर उसके मुँह पर हलके से मारीं और लजा कर कहा, “भाग यहाँ से ।” बुढ़िया ने आकर सारी बात सुना दी । राजकुमार शोक से व्याकुल हो गया । दीवान के लड़के ने समझाया, “इसमें हैरान होने की क्या बात है? उसने कहा है कि मुझे मासिक धर्म हो रहा है। तीन दिन और ठहरो ।”

तीन दिन बीतने पर बुढ़िया, उनके निर्देश पर फिर वहाँ पहुँची । इस बार राजकुमारी ने उसे फटकार कर पश्चिम दिशा की खिड़की से बाहर निकाल दिया । उसने आकर राजकुमार को सारी बात बता दिया । सुनकर दीवान का लड़का मुस्कुराया और राजकुमार से बोला, “मित्र, उसने आज की रात तुम्हें उस खिड़की के रास्ते बुलाया है ।”

मारे खुशी के राजकुमार उछल पड़ा । रात्रि में समय आने पर उसने बुढ़िया की पोशाक पहनी, इत्र लगाया, हथियार बाँधे । रात्रि के दो प्रहर बीतने पर वह महल में जा पहुँचा और खिड़की में से होकर अन्दर पहुँच गया । राजकुमारी वहाँ तैयार खड़ी थी । वह उसे भीतर ले गयी ।

अन्दर की व्यवस्था देखकर राजकुमार की आँखें खुली की खुली रह गयीं । उपभोग की एक-से-एक बढ़कर वस्तुएं थीं वहाँ । रात-भर राजकुमार राजकुमारी के साथ आनन्द पूर्वक रहा । जैसे ही दिन निकलने को आया कि राजकुमारी ने राजकुमार को छिपा दिया और रात होने पर फिर बाहर निकाल लिया ।

इस तरह सुख पूर्वक कई दिवस बीत गये । अचानक एक दिन राजकुमार को अपने परम मित्र की याद आयी । उसे बड़ी चिन्ता हुई कि पता नहीं, उसका क्या हुआ होगा । उदास देखकर राजकुमारी ने कारण पूछा तो उसने बता दिया । बोला, “वह मेरा बड़ा प्यारा दोस्त हैं और बड़ा ही चतुर है वह । उसकी बुद्धिमानी से ही तो तुम मुझे मिल पाई हो ।”

राजकुमारी ने मुस्कुरा कर कहा, “मैं उसके लिए उत्तम और स्वादिष्ट भोजन बनवाती हूँ । तुम उसे खिलाकर, और आश्वासन देकर लौट आना ।” भोजन साथ में लेकर राजकुमार अपने मित्र के पास पहुँचा । वे लगभग महीने भर से मिले नहीं थे, उत्साहित राजकुमार ने मिलने पर सारा हाल सुनाकर कहा कि राजकुमारी को मैंने तुम्हारी चतुराई की सारी बातें बता दी हैं, तभी तो उसने प्रसन्न हो कर यह भोजन बनाकर तुम्हारे लिए भेजा है ।

दीवान का लड़का सोच में पड़ गया । उसने कहा, “यह तुमने अच्छा नहीं किया मित्र । राजकुमारी अब समझ गयी है कि जब तक मैं हूँ, वह तुम्हें अपने वश में नहीं रख सकती । इसलिए उसने इस खाने में विष मिलाकर भेजा है, मेरे प्राण लेने के लिए ।” यह कहकर दीवान के लड़के ने थाली में से एक लड्डू उठाकर वहीँ पास में खड़े एक कुत्ते के आगे डाल दिया । लड्डू खाते ही कुत्ता मर गया ।

राजकुमार के ह्रदय को गहरा आघात लगा । वह सर पकड़ कर बैठ गया | उसने कहा, “ऐसी स्त्री से भगवान् बचाये ! मैं अब उसके पास नहीं जाने वाला ।” उसका मित्र दीवान का बेटा बोला, “नहीं, ऐसा करना उचित नहीं होगा | अब हमें ऐसा उपाय करना चाहिए, जिससे हम उसे अपने राज्य, अपने घर ले चलें । आज रात को तुम वहाँ जाओ । जब राजकुमारी सो जाये तो उसकी बायीं जाँघ पर त्रिशूल का निशान बनाकर उसके गहने लेकर चले आना ।”

राजकुमार ने बिना कोई प्रश्न किये ऐसा ही किया । उसके आने पर दीवान का बेटा उसे साथ ले, योगी का वेश बना, श्मशान में जा बैठा और राजकुमार से कहा कि तुम ये गहने लेकर बाज़ार में बेच आओ । कोई पकड़े तो कह देना कि मेरे गुरु के पास चलो, वही सारे प्रश्नों के उत्तर देंगे और उसे यहाँ ले आना ।

राजकुमार, राजकुमारी के आभूषण लेकर नगर में गया और महल के पास एक सुनार को उन्हें दिखाया । देखते ही सुनार ने उन्हें पहचान लिया और कोतवाल के पास ले गया । कोतवाल ने पूछा तो उसने कह दिया कि ये मेरे गुरु ने मुझे दिये हैं । गुरु को भी पकड़वा लिया गया । सब राजा के सामने पहुँचे ।

राजा ने पूछा, “योगी महाराज, ये गहने आपको कहाँ से मिले?” योगी बने दीवान के बेटे ने कहा, “महाराज, मैं श्मशान में काली चौदस को डाकिनी-मंत्र सिद्ध कर रहा था कि एक डाकिनी आयी । मैंने उसके गहने उतार लिये और उसकी बायीं जाँघ में त्रिशूल का चिन्ह बना दिया ।”

इतना सुनकर राजा महल में गया और उसने अपनी रानी से कहा कि पद्मावती की बायीं जाँघ पर देखो कि त्रिशूल का निशान तो नहीं है । रानी ने देखा, तो था । राजा को बड़ा दु:ख हुआ । बाहर आकर वह योगी को एकांत में ले गया और बोला, “महाराज, धर्मशास्त्र में नीच स्त्रियों के लिए क्या दण्ड निर्धारित है?”

योगी ने जवाब दिया, “राजन्, ब्राह्मण, गऊ, स्त्री, लड़का और अपने आश्रय में रहने वाले से कोई नीच कर्म हो जाये तो उसे स-सम्मान देश से विदा कर देना चाहिए ।” यह सुनकर राजा ने पद्मावती को डोली में बिठाकर राज्य से बाहर करवा दिया । राजकुमार और दीवान का बेटा तो इसी ताक में बैठे ही थे । राजकुमारी को अकेली पाकर वे उसे साथ ले अपने नगर में लौट आये और राजकुमार से उसका विधि पूर्वक विवाह करा दिया गया | और वे आनंद से रहने लगे ।

इतनी बात सुनाकर बेताल बोला, “राजन्, यह बताओ कि यहाँ स्त्री को अपमानित करने का पाप किसको लगा है?” राजा ने कहा, “पाप तो राजा को ही लगा । दीवान के बेटे ने अपने स्वामी का कार्य किया । कोतवाल ने राजा को कहना माना और राजकुमार ने अपनी प्रेमिका को अपनी धर्मपत्नी बनाने के लिए ही सब कुछ किया | राजा ने पाप किया, जो बिना विचारे अपनी पुत्री को देश-निकाला दे दिया ।”

राजा विक्रमादित्य का इतना कहना था कि बेताल ने पहले विक्रम की प्रशंसा की फिर अपनी प्रतिज्ञा की याद दिलाते हुए वह विक्रम की पीठ पर से उठा और उसी पेड़ पर जा लटका । लेकिन विक्रमादित्य भी अपनी धुन के पक्के थे | वे वापस गए और बेताल को अपनी पीठ पर लेकर चल दिए । बेताल फिर उनसे बोला, “राजन्, सुनो, एक कहानी और सुनाता हूँ ।”

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