श्री रामानुजाचार्य जी बड़े ही विद्वान , सदाचारी , धैर्यवान , सरल एवं उदार थे। यह आचार्य आलवन्दार (यामुनाचार्य) की परम्परा से थे। इनके पिता का नाम श्री केशव भटट था। ये दक्षिण के तिरूकुदूर नामक क्षेत्र में रहते थे।
जब इनकी अवस्था बहुत छोटी थी, तभी इनके पिता का देहान्त हो गया और इन्होंने काशी में जाकर यादव प्रकाश नामक गुरू से वेदाध्ययन किया। इनकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि ये अपने गुरू की व्याख्या में भी दोष निकाल दिया करते थे। इसीलिये इनके गुरू जी इनसे बड़ी ईर्ष्या करने लगे, यहां तक कि वे इनके प्राण लेने तक को उतारू हो गये।
उन्होंने रामानुज के सहाध्यायी एवं उनके चचेरे भाई गोविन्द भटट से मिलकर यह षडयंत्र रचा कि गोविन्द भटट रामानुज को काशी यात्रा के बहाने किसी घने जंगल में ले जाकर वहीं मार डाले।
गोविन्द भटट ने ऐसा ही करना चाहा, परंतु भगवान की कृपा से एक व्याध और उसकी स्त्री ने इनके प्राणों की रक्षा की। विद्या , चरित्र बल और भक्ति में रामानुज अद्वितीय थे। इन्हें कुछ योग सिद्धियां भी प्राप्त थीं , जिनके बल से इन्होंने काशी नगरी की राजकुमारी को प्रेतबाधा से मुक्त कर दिया।
जब महात्मा आलवन्दार अपनी मृत्यु की घड़ियां गिन रहे थे तब उस समय उन्होंने अपने शिष्य के द्वारा रामानुजचार्य को अपने पास बुलवा भेजा। परंतु रामानुज के श्री रंगम पहुंचने के पहले ही आलवन्दार (यामुनाचार्य) भगवान नारायण के धाम में पहुंच चुके थे।
रामानुज ने देखा कि श्री यामुनाचार्य के हाथ की तीन अंगुलियां मुड़ी हुई हैं जिसका कारण कोई और नहीं समझ सका। रामानुज तुरंत ताड़ गये कि यह संकेत मेरे लिये है। उन्होंने यह जान लिया कि श्री यामुनाचार्य मेरे द्वारा ब्रह्मसूत्र , विष्णुसहस्रनाम और आलवन्दारों के ‘ दिव्यप्रबन्धम् ’ की टीका करवाना चाहते थे।
उन्होंने आलवन्दार के मृत शरीर को प्रणाम किया और बोलें ‘हे भगवन! मुझे आपकी आज्ञा शिरोधार्य है , मैं इन तीनों ग्रंथों की टीका अवश्य लिखूंगा अथवा लिखवाऊंगा।’ कहते हैं कि रामानुज के यह कहते ही आलवन्दार की तीनों अंगुलियां सीधी हो गयीं।
श्री रामानुज ने इसके बाद आलवन्दार के प्रधान शिष्य पेरियनाम्बि से विधिपूर्वक वैष्णव दीक्षा ली और वे भक्ति मार्ग में प्रवृत्त हो गये। जब रामानुज गृहस्थ थे , तब उन्होंने देखा कि गृहस्थी में रहकर अपने उददेश्य को पूरा करना कठिन है , तब उन्होंने गृहस्थी का परित्याग कर दिया और श्री रंगम जाकर यतिराज नामक संयासी से संयास की दीक्षा ले ली।
इधर इनके गुरू यादव प्रकाश को अपनी करनी पर बड़ा पश्चाताप हुआ और वे भी सन्यास लेकर श्री रामानुज की सेवा करने के लिये श्री रंगम चले आये। उन्होंने सन्यास -आश्रम का अपना नाम गोविन्द योगी रखा।
आचार्य दया में भगवान बुद्ध के समान, शरणागति में आलवारों के समान उत्साही थे। इन्होंने तिरूकोटिटयूर के महात्मा नाम्बि से अष्टाक्षर मंत्र (ऊँ नमो नारायण) – की दीक्षा ली थी।
नाम्बि ने मंत्र देते समय इनसे कहा था ‘ तुम इस मंत्र को गुप्त रखना। ’ परंतु रामानुज ने सभी वर्ण के लोगों को एकत्र कर मंदिर के शिखर पर खड़े होकर सब लोगों को वह मंत्र सुना दिया।
गुरू ने जब रामानुज की इस धृष्टता का हाल सुना, तब वे इन पर बड़े रूष्ट हुए और कहने लगे ‘तुम्हें इस अपराध के बदले नरक भोगना पड़ेगा।’ श्री रामानुज ने इस बात पर बड़े विनयपूर्वक कहा कि ‘भगवन! यदि इस महामंत्र का उच्चारण करके हजारों आदमी नरक की यंत्रणा से बच सकते हैं , तो मुझे नरक भोगने में आनंद ही मिलेगा।’
रामानुज के इस उत्तर से गुरू का क्रोध जाता रहा। उन्होंने बड़े प्रेम से इन्हें गले लगाया और आशीर्वाद दिया। इस प्रकार रामानुज ने अपनी समदर्शिता और उदारता का परिचय दिया।
रामानुज ने आलवन्दार की आज्ञा के अनुसार आलवरों के ‘ दिव्यप्रबन्धम ’ का कई बार अनुशीलन किया और उसे कण्ठ में डाला। उनके कई शिष्य हो गये और उन्होंने इन्हें आलवन्दार की गददी पर बिठाया; परंतु इनके कई शत्रु भी हो गये, जिन्होंने कई बार इन्हें मरवा डालने की चेष्ट की।
एक दिन इनके किसी शत्रु ने इन्हें भिक्षा में विष मिला हुआ भोजन दे दिया; परंतु एक स्त्री ने इन्हें सावधान कर दिया और इस प्रकार रामानुज के प्राण बच गये। रामानुज ने आलवारों के भक्ति मार्ग का प्रचार करने के लिये सारे भारत की यात्रा की और गीता तथा ब्रह्मसूत्र पर कई भाष्य लिखे।
वेदान्त सूत्रों पर इनका भाष्य ‘श्रीभाष्य’ नाम से प्रसिद्ध है और इनका सम्प्रदाय भी ‘श्रीसम्प्रदाय’ कहलाता है; क्योंकि इस सम्प्रदाय की आद्य प्रवर्तिका श्री महालक्ष्मी जी मानी जाती हैं। यह ग्रंथ पहले-पहले कश्मीर के विद्वानों को सुनाया गया था।
इनके प्रधान शिष्य का नाम कूरत्तालवार (कूरेश) था। कूरत्तालवार के पराशर और पिल्लन नाम के दो पुत्र थे। रामानुज ने पराशर के द्वारा विष्णु सहस्र नाम की और पिल्लन से ‘ दिव्यप्रबन्धम ’ की टीका लिखवायी। इस प्रकार उन्होंने आलवन्दार की तीनों इच्छाओं को पूर्ण किया।
उन दिनों श्री रंगम पर चोल देश के राजा कुलोत्तुगड़ का अधिकार था जो बडे़ कट्टर शैव थे। इन्होने श्री रंगम जी के मंदिर में एक ध्वजा टंगवा दी थी , जिस पर लिखा था ‘शिवात्परं नास्ति’ (शिव से बढ़कर कोई नहीं है)। जो कोई इसका विरोध करता , वो संकट में पड़ जाता।
कुलोत्तुगड़ ने रामानुज के शिष्य कूरत्तालवार को बहुत पीड़ा दी। इस समय आचार्य रामानुज मैसूर राज्य के शाल ग्राम नामक स्थान में रहने लगे थे। वहां के राजा भिटिट देव वैष्णव धर्म के सबसे बड़े पक्षपाती थे।
आचार्य रामानुज ने वहां बारह वर्ष तक रहकर वैष्णव धर्म की बड़ी सेवा की। सन् 1099 में उन्हें नम्मले नामक स्थान में एक प्राचीन मंदिर मिला और राजा ने उसका जीर्णोद्धार करवा कर पुनः नये ढंग से निर्माण करवाया।
वह मंदिर आज भी तिरू नारायणपुर के नाम से प्रसिद्ध है जहां पर भगवान श्री राम का जो प्राचीन विग्रह है, वह पहले दिल्ली के सम्राट के अधिकार में था। सम्राट की कन्या उसे प्राणों से भी बढ़कर मानती थी। रामानुज अपनी योगशक्ति के द्वारा सम्राट की स्वीकृति प्राप्त कर उस विग्रह को वहां से ले आये और उन्होंने पुनः तिरूनारायणपुर में उसकी स्थापना की।
राजा कुलोत्तुगड़ का देहान्त हो जाने पर आचार्य रामानुज श्री रंगम चले आये। वहां उन्होंने एक मंदिर बनवाया , जिसमें नम्मालवार और दूसरे आलवार संतों की प्रतिमाएं स्थापित की गयीं और उनके नाम से कई उत्सव भी जारी किये।
उन्होंने तिरूपति के मंदिर में भगवान गोविन्दराज पेरूमल की पुनः स्थापना करवायी और मंदिर का पुनः निर्माण करवाया। उन्होंने देश भर में भ्रमण करके हजारों नर – नारियों को भक्ति मार्ग में लगाया।
आचार्य के कुल चौहत्तर शिष्य थे, जो सब के सब संत हुए। उन्होंने कूरत्तालवार के पुत्र महात्मा पिल्ल लोकाचार्य को अपना उत्तराधिकारी बनाकर एक सौ बीस वर्ष की अवस्था में इस असार संसार को त्याग दिया। रामानुज के सिद्धांत के अनुसार भगवान ही पुरूषोत्तम हैं।
वे ही प्रत्येक शरीर में साक्षी रूप में विद्यमान हैं। वे ही जगत के नियन्ता , शेषी (अवयवी) एवं स्वामी हैं और सभी जीव उनका नियम्य , शेष तथा सेवक है। अपने व्यष्टि अहंकार को सर्वथा मिटाकर भगवान की सर्वतोभावेन शरण ग्रहण करना ही जीव का परम पुरूषार्थ है।
भगवान नारायण ही सत हैं, उनकी शक्ति महालक्ष्मी चित हैं और यह जगत उनके आनंद का विलास है, रज्जु में सर्प की भांति असत नहीं है। भगवान लक्ष्मी नारायण जगत के माता – पिता और जीव उनकी संतान हैं।
माता – पिता का प्रेम और उनकी कृपा प्राप्त करना ही संतान का धर्म है। वाणी से भगवान नारायण के नाम का ही उच्चारण करना चाहिये और मन , वाणी , शरीर से उनकी सेवा करनी चाहिये।
श्री रामानुजाचार्य जी के सिद्धांत के अनुसार ब्रह्म सगुण और सविशेष है। ब्रह्म की शक्ति एक माया है। ब्रह्म अशेष कल्याणकारी गुणों के आलय हैं। जीव और जगत उनका शरीर है एवं भगवान ही आत्मा हैं जिनके गुणों की कोई संख्या नहीं है।
वे गुणों में अद्वितीय हैं। ईश्वर सृष्टिकर्ता , कर्मफलदाता , नियन्ता तथा सर्वान्तर्यामी हैं। नारायण विष्णु ही सबके अधीश्वर हैं। वे पर , व्यूह , विभव , अन्तर्यामी और अर्चावतार भेद से पांच प्रकार के हैं। वे शंख , चक्र , गदा ,पद्मधारी चतुर्भुज हैं।
श्री , भू और लीला सहित हैं , किरीट आदि भूषणों से अलंकृत हैं। अवतार दस प्रकार के हैं – मत्स्य , कूर्म , नृसिंह , वराह , वासन , परशुराम , श्री राम , बलभद्र , श्री कृष्ण और कलि। इनमें मुख्य , गौण , पूर्ण और अंश भेद से और भी अनेक भेद हैं।
अवतार हेतु इच्छा है , कर्म प्रयोजन हेतु नहीं है। दुष्कृतों के विनाश तथा साधुओं के परित्राण के लिये अवतार होता है। श्री रामानुजाचार्य ने ‘प्रपत्ति’ पर बहुत जोर दिया है। न्यास विद्या ही वह प्रपत्ति है। भगवान में आत्म समर्पण करना प्रपत्ति का लक्षण है। नारायण विभु हैं , भूमा हैं , उनके चरणों में आत्म समर्पण करने से जीव की शांति मिलती है।
उनके प्रसन्न होने पर मुक्ति मिल सकती है। उन्हें सर्वस्व निवेदन करना होगा। सब विषयों को त्याग कर उनकी शरण लेनी होगी। ‘हे प्रभो! मैं पिता , माता , स्त्री , पुत्र , बंधु , मित्र , गुरू, सब रत्न, धन-धान्य , खेत , घर , सारे धर्म और अक्षर सहित सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग कर समस्त ब्रह्माण्ड को आह्लादित करने वाले आपके दानों चरणों की शरण में आया हूं।’