महर्षि उग्रश्रवा जी जब शौनक आदि ऋषियों को महाभारत की कथा सुना रहे थे तभी अचानक समुद्र मंथन का प्रसंग उठा | उन्होने उस दैवीय घटना का वहां ज़िक्र करते हुए कहा कि “शौनकादि ऋषियो ! मेरु नामका एक पर्वत है । वह इतना चमकीला है मानो तेज की राशि हो ! उसकी सुनहली चोटियों की चमक के सामने सूर्य की प्रभा भी फीकी पड़ जाती है। उसकी गगनचुम्बी चोटियाँ कई प्रकार के दुर्लभ रत्नों से खचित हैं । उन्हीं में से एक पर देवता लोग इकट्ठे होकर अमृत प्राप्ति के लिये सलाह करने लगे । उस सभा में भगवान् नारायण और ब्रह्मा जी भी थे ।
नारायण ने देवताओं से कहा, “देवता और असुर मिलकर समुद्र-मन्थन करें । इस मन्थन के फलस्वरूप ही अमृत की प्राप्ति होगी” । देवताओं ने भगवान् नारायण के परामर्श से मन्दराचल पर्वत को उखाड़ने की चेष्टा की । वह पर्वत मेघों के समान ऊँची चोटियों से युक्त, ग्यारह हजार योजन ऊँचा और उतना ही नीचे धंसा हुआ था । जब सब देवता पूरी शक्ति लगाकर भी उसे नहीं उखाड़ सके, तब उन्होंने विष्णु भगवान् और ब्रह्मा जी के पास जाकर प्रार्थना की “भगवन् ! आप दोनों हम लोगों के कल्याण के लिये मन्दराचल को उखाड़ने का उपाय कीजिये और हमें कल्याणकारी ज्ञान दीजिये” ।
देवताओं की प्रार्थना सुनकर श्री नारायण और ब्रह्मा जी ने शेषनाग को मन्दराचल उखाड़ने के लिये प्रेरित किया । महाबली शेषनाग ने वन और वनवासियों के साथ मिलकर मन्दराचल को उखाड़ लिया । अब मन्दराचल के साथ देवगण समुद्र तट पर पहुंचे और समुद्र से कहा कि “हम लोग अमृत के लिये तुम्हारा जल मथेंगे” । समुद्र ने कहा, “यदि आप लोग अमृत में मेरा भी हिस्सा रखें तो मैं मन्दराचल को घुमाने से जो कष्ट होगा, वह सह लूँगा” । देवता और असुरों ने समुद्र की बात स्वीकार करके कच्छपराज से कहा, “आप इस पर्वत के आधार बनिये” ।
कच्छपराज ने ‘ठीक है’ कहकर मन्दराचल को अपनी पीठ पर ले लिया । अब देवराज इन्द्र यन्त्र के द्वारा मन्दराचल को घुमाने लगे । इस प्रकार देवता और असुरों ने मन्दराचल की मथानी और वासुकि नाग की डोरी बनाकर यंत्र द्वारा समुद्र- मन्थन प्रारम्भ किया । वासुकि नाग के मुँह की ओर असुर और पूँछ की ओर देवता लगे थे । बार-बार खींचे जाने के कारण वासुकि नाग के मुख से धुएँ और अग्नि ज्वाला के साथ साँस निकलने लगी । वह साँस थोड़ी ही देर में मेघ बन जाती और वह मेघ थके- माँदे देवताओं पर जल बरसाने लगता ।
पर्वत के शिखर से पुष्पों की झड़ी लग गयी । महामेघ के समान गम्भीर शब्द होने लगा । पहाड़ पर के वृक्ष आपस में टकराकर गिरने लगे । उनकी रगड़ से आग लग गयी । इन्द्र ने अपनी वैज्ञानिक शक्ति से मेघों के द्वारा जल बरसवा कर उसे शान्त किया । वृक्षों के दूध और ओषधियों के रस चू-चूकर समुद्र में आने लगे । ओषधियों के अमृत के समान प्रभावशाली रस और दूध तथा सुवर्णमय मन्दराचल की अनेकों दिव्य प्रभाव वाली मणियों से चूने वाले जल के स्पर्श से ही देवता अमरत्व को प्राप्त होने लगे । उन उत्तम रसों के सम्मिश्रण से समुद्र का जल दूध बन गया और दूध से घी बनने लगा ।
देवताओं ने मथते-मथते थककर ब्रह्माजीसे कहा, “भगवान् नारायण के अतिरिक्त सभी देवता और असुर थक गये हैं । समुद्र मथते-मथते इतना समय बीत गया, परन्तु अब तक अमृत नहीं निकला” । ब्रह्माजी ने भगवान् विष्णु से कहा, “भगवन् ! आप इन्हें बल दीजिये । आप ही इनके एकमात्र आश्रय हैं । विष्णु भगवान ने कहा, “जो लोग इस कार्य में लगे हुए हैं, मैं उन्हें बल दे रहा हूँ । सब लोग पूरी शक्ति लगाकर मन्दराचल को घुमावें और समुद्र को क्षुब्ध कर दें” । भगवान के इतना कहते ही देवता और असुरों का बल बढ़ गया । वे बड़े वेग से मथने लगे ।
सारा समुद्र क्षुब्ध हो उठा । उस समय समुद्र से अगणित किरणों वाला, शीतल प्रकाश से युक्त, श्वेतवर्ण का चन्द्रमा प्रकट हुआ । चन्द्रमा के बाद भगवती लक्ष्मी और सुरा देवी निकलीं । उसी समय श्वेतवर्ण का उच्चैःश्रवा घोड़ा भी पैदा हुआ । भगवान् नारायण के वक्षःस्थल पर सुशोभित होने वाली दिव्य किरणों से उज्ज्वल कौस्तुभमणि तथा वांछित फल देने वाले कल्प वृक्ष और कामधेनु भी उसी समय निकले । लक्ष्मी, सुरा, चन्द्रमा, उच्चैःश्रवा ये सब आकाश मार्ग से देवताओं के लोक में चले गये । इसके बाद दिव्य शरीर धारी धन्वन्तरि देव प्रकट हुए ।
वे अपने हाथ में अमृत से भरा श्वेतकमण्डलु लिये हुए थे । यह अद्भुत चमत्कार देखकर दानवों में यह मेरा है, यह मेरा है’ ऐसा कोलाहल मच गया । इसके बाद चार श्वेत दाँतों से युक्त विशाल ऐरावत हाथी निकला । उसे इन्द्र ने ले लिया । जब समुद्र का बहुत मन्थन किया गया, तब उसमें से कालकूट विष निकला । उसकी गन्ध से ही लोगों की चेतना जाती रही । ब्रह्मा की प्रार्थनासे भगवान् शंकर ने उसे अपने कण्ठ में धारण कर लिया । तभी से वे ‘नीलकण्ठ’ नाम से प्रसिद्ध हुए । यह सब देखकर दानवों की आशा टूट गयी ।
अमृत और लक्ष्मी के लिये उनमें बड़ा वैर-विरोध और फूट हो गयी । उसी समय भगवान् विष्णु मोहिनी स्त्री का वेष धारण करके दानवों के पास आये । दैत्यों ने उनकी माया न जानकर मोहिनी रूपधारी भगवान को अमृत का पात्र दे दिया । उस समय वे सभी मोहिनी के रूप पर लटू हो रहे थे । इस प्रकार विष्णु भगवान ने मोहिनी रूप धारण करके दैत्य और दानवों से अमृत छीन लिया और देवताओं ने उनके पास जाकर उसे पी लिया । उसी समय राहु दानव भी देवताओं का रूप धारण करके अमृत पीने लगा ।
अभी अमृत उसके कण्ठ तक ही पहुंचा था कि चन्द्रमा और सूर्य ने उसका भेद बतला दिया । भगवान् विष्णु ने तुरंत ही अपने चक्र से उसका सिर काट डाला । राहु का पर्वत शिखर के समान सिर आकाश में उड़कर गरजने लगा और उसका धड़ पृथ्वी पर गिरकर सबको कँपाता हुआ तड़फड़ाने लगा । तभी से राहु के साथ चन्द्रमा और सूर्य का वैमनस्य स्थायी हो गया । विष्णु भगवान ने अमृत पिलाने के बाद अपना मोहनी रूप त्याग दिया और वे तरह-तरह के भयावने अस्त्र-शस्त्रों से असुरों को डराने लगे । बस, खारे समुद्र के तट पर देवता और असुरों का भयंकर संग्राम छिड़ गया ।
भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्र बरसने लगे । भगवान के चक्र से कट-कुट कर कोई-कोई असुर खून उगलने लगे तो कोई-कोई देवताओं के खड्ग, शक्ति और गदा से घायल होकर धरती पर लोटने लगे । चारों ओर से यही आवाज सुनायी पड़ती कि ‘मारो, काटो, दौड़ो, गिरा दो, पीछा करो ! इस प्रकार भयंकर युद्ध हो ही रहा था कि विष्णु भगवान के दो रूप ‘नर’ और ‘नारायण’ युद्ध भूमि में दिखायी पड़े । नर का दिव्य धनुष देखकर नारायण ने अपने चक्र का स्मरण किया । और उसी समय सूर्य के समान तेजस्वी गोलाकार चक्र आकाश मार्ग से वहाँ उपस्थित हुआ ।
भगवान् नारायण के चलाने पर चक्र शत्रु-दल में घूम-घूम कर कालाग्नि के समान सहस्र-सहस्र असुरों का संहार करने लगा । असुर भी आकाश में उड़-उड़कर पर्वतों की वर्षा से देवताओं को घायल करते रहे । उस समय देव शिरोमणि नर ने बाणों के द्वारा पर्वतों की चोटियाँ काट-काटकर उन्हें आकाश में बिछा दिया और सुदर्शन चक्र घास-फूस की तरह दैत्यों को काटने लगा । इससे भयभीत होकर असुरगण पृथ्वी और समुद्र में छिप गये । देवताओं की जीत हुई । मन्दराचल को सम्मान पूर्वक यथास्थान पहुंचा दिया गया । सभी अपने-अपने स्थान पर गये । देवता और इन्द्र ने बड़े आनन्द से सुरक्षित रखने के लिये भगवान् नर को अमृत दे दिया । यही समुद्र मन्थन की कथा है।