बहुत पुरानी बात है, उस समय सत्य युग चल रहा था | एक बार भगवन ब्रह्मा के मानस-पुत्र सनकादि, जिनकी आयु हमेशा पंचवर्षीय बालक की-सी ही रहती है, वैकुण्ठ लोक में जा पहुँचे । वे भगवान् विष्णु के पास जाना चाहते थे, लेकिन जय-विजय नामक द्वारपालों ने उन्हें बालक समझकर भीतर जाने से रोक दिया ।
तब तो ऋषियों को क्रोध आ गया और उन्होंने शाप देते हुए कहा “तुम लागों की बुद्धि तमोगुण से अभिभूत है, अतः तुम दानों असुर हो जाओ । तीन जन्मों के बाद पुनः तुम्हें इस स्थान की प्राप्ति होगी” । ऋषि-शाप वश ही वे दोनों दिति के गर्भ से हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के रूप में उत्पन्न हुए । हिरण्याक्ष को भगवान् विष्णु ने वराह अवतार धारण करके मार डाला । उसके वध की कथा जानने के लिए यहाँ क्लिक करें |
भाई के वध से अत्यंत दुखी और कुपित हो कर हिरण्यकशिपु दैत्यों और दानवों को अत्याचार करने के लिये आज्ञा देकर स्वयं महेन्द्राचल पर्वत पर चला गया । उसके हृदय में दुश्मनी की आग धधक रही थी, अतः वह विष्णु से बदला लेने के लिये घोर तपस्या में संलग्न हो गया । इधर हिरण्यकशिपु को तपस्या-निरत देखकर इन्द्र ने दैत्यों पर चढ़ाई कर दी । दैत्यगण अनाथ होने के कारण भागकर रसातल में चले गये ।
इन्द्र द्वारा प्रह्लाद को गर्भ में ही मार डालने का प्रयास करना तथा नारद जी द्वारा उन्हें ऐसा करने से रोकना
विजयी इन्द्र ने राजमहल में प्रवेश किया और हिरण्यकशिपु की पत्नी, महारानी कयाधू को बंदी बना लिया । उस समय वह गर्भवती थी | इसे संयोग कहे या प्रभु की इच्छा, उसी समय वहाँ देवर्षि नारद जी प्रकट हो गए । नारद जी ने कहा “इन्द्र ! इसे कहाँ ले जा रहे हो” । इन्द्र ने कहा “देवर्षे ! इसके गर्भ में हिरण्यकशिपु का अंश है, उसे मारकर इसे छोड़ दूँगा” ।
यह सुनकर नारद जी ने कहा-“देवराज ! इसके गर्भ में बहुत बड़ा भगवद भक्त है, जिसे मारना तुम्हारी शक्ति के बाहर है, अतः इसे छोड़ दो” । नारद जी की वाणी का मान रखते हुए इन्द्र कयाधू को वहीँ ससम्मान छोड़कर अमरावती चले गये । नारद जी कयाधू को अपने आश्रम पर ले आये और उससे बोले “बेटी ! तुम यहाँ तब तक सुखपूर्वक निवास करो, जब तक तुम्हारा पति तपस्या से लौटकर नहीं आ जाता” ।
समय-समय पर नारद जी गर्भस्थ बालक को लक्ष्य करके कयाधू को तत्त्व ज्ञान का उपदेश देते रहते थे । यही बालक जन्म लेने पर परम भागवत प्रहलाद हुआ । उधर जब हिरण्यकशिपु की तपस्या से पूरा ब्रह्माण्ड संतप्त हो उठा और देवताओं में खलबली मच गयी, तब वे सब संगठित होकर ब्रह्मा जी की शरण में गये और उनसे हिरण्यकशिपु को तपस्या से विरत करने की प्रार्थना की ।
ब्रह्मा जी हंस पर आरूढ़ होकर वहाँ आये, जहाँ हिरण्यकशिपु तपस्या कर रहा था । उसके शरीर को चींटियाँ चाट गयी थीं, केवल अस्थिगत प्राण अवशेष थे और वह एक बाँबी का आकार लिए दीख पड़ता था । ब्रह्मा जी ने अपने कमण्डलु का जल उस बाँबी पर छिड़क दिया । उसमें से हिरण्यकशिपु अपने असली रूप में निकल आया ।
ब्रह्मा जी द्वारा हिरण्यकशिपु को अनोखा वरदान देना
तब ब्रह्मा जी ने उससे कहा “बेटा ! ऐसी तपस्या तो आज तक न किसी ने की है और न आगे कोई करेगा ही । अब तुम अपना अभीष्ट वर माँग लो” । यह सुनकर हिरण्यकशिपु बोला “प्रभो ! यदि आप मुझे अभीष्ट वर देना चाहते हैं तो ऐसा वर दीजिये कि आपके बनाये हुए किसी प्राणी से-चाहे वह मनुष्य हो या पशु, प्राणी हो या अप्राणी, देवता हो या दैत्य अथवा नागादि-किसी से भी मेरी मृत्यु न हो ।
भीतर-बाहर, दिन में-रात्रि में, आपके बनाये प्राणियों के अतिरिक्त और भी किसी जीव से, अस्त्र-शस्त्र से, पृथ्वी या आकाश में-कहीं भी मेरी मृत्यु न हो । युद्ध में मेरा कोई सामना न कर सके । मैं समस्त प्राणियों का एकच्छत्र सम्राट हो जाऊँ । देवताओं में आप-जैसी महिमा मेरी भी हो और तपस्वियों एवं योगियों के समान अक्षय ऐश्वर्य मुझे भी दीजिये” ।
ब्रह्मा जी उसकी तपस्या से प्रसन्न तो थे ही, अतः उसे मुँहमाँगा वरदान देकर वहीं अन्तर्धान हो गये । हिरण्यकशिपु अपनी राजधानी में चला आया । कयाधू भी नारद जी के आश्रम से अपने राजमहल में आ गयी । उसके गर्भ से भागवत रत्न प्रहलाद पैदा हुए । हिरण्यकशिपु के चार पुत्र थे । प्रहलाद उनमें सबसे छोटे थे, अतः उन पर हिरण्यकशिपु का विशेष स्नेह था ।
उसने अपने गुरू पुत्र षण्ड और अमर्क को बुलवाया और शिक्षा देने के लिये अपने पुत्र प्रहलाद को उनके हवाले कर दिया । तीव्र बुद्धि के स्वामी प्रहलाद गुरू के आश्रम में शिक्षा शीघ्र ही ग्रहण कर लेते थे । साथ ही वहां उनकी भगवद भक्ति भी बढ़ती गयी । वे असुर-बालकों को भी भगवद भक्ति की शिक्षा देते थे ।
हिरण्यकशिपु द्वारा प्रहलाद को मार डालने का हर संभव प्रयास करना
एक दिन हिरण्यकशिपु ने बड़े प्रेम से प्रहलाद को गोद में बैठाकर पुचकारते हुए कहा “बेटा ! अपनी पढ़ी हुई अच्छी-से-अच्छी बात सुनाओ मुझे”। तब प्रहलाद ने भगवद भक्ति की प्रशंसा की । यह सुनते ही हिरण्यकशिपु क्रोध से आगबबूला हो गया और उसने प्रहलाद को अपनी गोद से उठाकर भूमि पर पटक दिया तथा अपने विश्वासपात्र असुरों को उन्हें मार डालने की आज्ञा दे दी ।
फिर तो प्रहलाद का काम तमाम कर देने के लिये असुरों ने उन पर विभिन्न घातक अस्त्रों का प्रयोग किया, परंतु वे सभी निष्फल हो गये । इसके बाद उन्हें पर्वताकार हाथियों से कुचलवाया, तीक्ष्णतम विषधर सर्पों से डँसवाया, पुरोहितों से कृत्या राक्षसी उत्पन्न करायी, अत्यंत ऊंचे पहाड़ की चोटी से नीचे फिंकवा दिया, शम्बरासुर से अनेक प्रकार की माया का प्रयोग करवाया, अँधेरी कोठरियों मे बंद करा दिया, विष पिलाया, भोजन बंद करा दिया, बर्फीली जगह, दहकती हुई आग और समुद्र में डलवाया, आँधी और भयंकर तूफ़ान में छोड़ दिया तथा पर्वत के नीचे दबवा दिया, लेकिन किसी भी उपाय से प्रहलाद का बाल भी बाँका न हुआ ।
एक दिन गुरू-पुत्रों के शिकायत करने पर हिरण्यकशिपु ने प्रहलाद को अपने निकट बुलाया और उन्हें तरह-तरह से डराने-धमकाने लगा । फिर उसे कहा “अरे दुष्ट ! जिसके बल पर तू ऐसी बहकी-बहकी बातें बोल रहा है, तेरा वह ईश्वर कहाँ है ? वह यदि सर्वत्र है तो इस खम्भे में क्यों नहीं दिखायी देता” ? तब प्रहलाद ने कहा “मुझे तो वे प्रभु खम्भे में भी दीख रहे हैं” ।
यह सुनकर हिरण्यकशिपु अत्यंत क्रोध के मारे अपने को सँभाल न सका, और हाथ में खड्ग जैसा भयंकर अस्त्र लेकर सिंहासन से कूद पड़ा और बड़े जोर से उस खम्भे में एक घूँसा मारा । उसी समय उस खम्भे से बड़ा भयंकर विस्फोट जैसा शब्द हुआ । ऐसा लगा मानो पूरा ब्रह्माण्ड फट गया हो । उस भयंकर शब्द के प्रभाव से वहां उपस्थित कई दैत्यों के ह्रदय भंग हो गए और वे काल के गराल में विगलित हो गए |
भगवान् विष्णु का नरसिंह भगवान् के रूप में अवतार लेना तथा हिरण्यकशिपु का वध करना
उस अति भयंकर शब्द को सुनकर हिरण्यकशिपु घबराया हुआ-सा इधर-उधर देखने लगा कि यह शब्द करने वाला कौन है, परंतु उसे सभा के भीतर कुछ भी दिखायी न पड़ा । इतने मे ही वहाँ बड़ी अलौकिक घटना घटी । उस समय अपने भक्त प्रहलाद की वाणी सत्य करने तथा समस्त भूतों में अपनी व्यापकता दिखाने के लिये सभा के भीतर उसी खम्भे में से अत्यन्त अदभुत रूप धारण करके भगवान् प्रकट हुए ।
वह अत्यंत विचित्र रूप था | वह न तो समूचा सिंह का ही था और न मनुष्य का ही था । जिस समय हिरण्यकशिपु शब्द करने वाले की खोज कर रहा था, उसी समय उसने खम्भे के भीतर से निकलते हुए उस विशालकाय अदभुत प्राणी को देखा । वह सोचने लगा “अरे ! यह न तो मनुष्य है न पशु, फिर यह नृसिंह के रूप में कौन सा अलौकिक जीव है”?
जिस समय हिरण्यकशिपु इस उधेड़-बुन में लगा हुआ था, उसी समय उसके ठीक सामने ही भगवान् नृसिंह खड़े हो गये । वास्तव में उनका रूप बड़ा ही भयानक और दिल दहला देने वाला था |
उनकी तपाये हुए सोने के समान पीली-पीली भयावनी आँखें थीं, चमचमाते हुए गरदन के तथा मुँह के बालों से उनका चेहरा भरा-भरा दीख रहा था, उनकी दाढ़ें बड़ी विकराल थीं, तलवार के समान लपलपाती हुई तथा छुरे की धार के सदृश तीखी उनकी जीभ, उनके मुख से अन्दर-बाहर कर रही थी, टेढ़ी भौंहों के कारण उनका मुख और भी भीषण था, उनके कान निश्चल एवं ऊपर की ओर उठे हुए थे, उनकी फूली हुई नासिका और खुला हुआ मुख पर्वत की गुफा के सदृश अदभुत जान पड़ता था, फटे हुए जबड़ों के कारण उसकी भीषणता बहुत बढ़ गयी थी ।
उनका विशाल शरीर स्वर्ग का स्पर्श कर रहा था । गरदन कुछ छोटी और मोटी थी, छाती चौड़ी और कमर पतली थी, चन्द्रमा की किरणों के समान सफेद रोएँ सारे शरीर पर चमक रहे थे, चारो और सैकड़ों भुजाएँ फली हुई थीं, जिनके बड़े-बड़े नख आयुध का काम दे रहे थे । भय के मारे भगवान् नृसिंह के निकट जाने का साहस किसी को नहीं हुआ उस समय ।
भगवान् ने चक्र आदि आयुधों द्वारा सारे दैत्य-दानवों को खदेड़ दिया । उसके बाद हिरण्यकशिपु सिंहनाद करता हुआ हाथ में गदा लेकर नृसिंह भगवान पर टूट पड़ा । तब भगवान भी कुछ देर तक उसके साथ युद्धलीला करते रहे । अन्त में उन्होंने बड़ा भीषण अटटहास किया, जिससे हिरण्यकशिपु की आँखें बंद हो गयीं ।
तब भगवान ने झपटकर उसे उसी प्रकार दबोच लिया, जैसे साँप चूहे को पकड़ लेता है । फिर उसे सभा के दरवाजे पर ले जाकर अपनी जाँघों पर गिरा लिया और खेल-ही-खेल में अपने नखों से उसके कलेजे को फाड़ डाला । उस समय उनकी क्रोध से भरी आँखों की ओर देखा नहीं जा सकता था । वे अपनी लपलपाती हुई जीभ से दोनों जबड़ों को चाट रहे थे ।
उनके मुख और गरदन के बालों पर खून के छींटे झलक रहे थे । उन्होंने अपने तीखे नाखूनों से हिरण्यकशिपु के कलेजे को फाड़कर उसे पृथ्वी पर पटक दिया । फिर सहायतार्थ आये हुए सभी दैत्यों को उन्होंने खदेड़-खदेड़कर मार डाला । उस समय भगवान नृसिंह के गरदन के बालों के झटके से बादल तितर-बितर हो जा रहे थे । उनके नेत्रों की ज्वाला से सूर्य आदि ग्रहों का तेज फीका पड़ गया ।
उनके श्वास के धक्के से समुद्र क्षुब्ध हो उठे । उनके सिंहनाद से भयभीत होकर दिग्गज पशु चिग्घाड़ने लगे । उनकी गरदन के बालों से टकराकर देवताओं के विमान अस्त-व्यस्त हो गये । स्वर्ग डगमगा गया, पैरों की धमक से भूकम्प आ गया, वेग से पर्वत उड़ने लगे, तेज की चकाचैंध से दिशाओं की दीखना बंद हो गया । उनका क्रोध बढ़ता ही जा रहा था ।
वे हिरण्यकशिपु की राजसभा में ऊँचे सिंहासन पर विराजमान हो गये । उनकी क्रोधपूर्ण भयंकर मुखाकृति को देखकर किसी का भी साहस नहीं हुआ, जो निकट जाकर उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा करे । उधर स्वर्ग में देवांगनाओं को जब यह समाचार मिला कि भगवान के हाथों हिरण्यकशिपु की जीवन-लीला समाप्त हो गयी, तब वे आनन्द से खिल उठीं और भगवान पर बारंबार पुष्पों की वर्षा करने लगीं ।
इसी समय ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर आदि देवगण, ऋषि, पितर, सिद्ध, विद्याधर, महानाग, मनु, प्रजापति, गन्धर्व, अप्सराएँ, चारण, यक्ष, किम्पुरूष, वेताल, किंनर और भगवान के सभी पार्षद उनके पास आये और थोड़ी दूर पर स्थित होकर सभी ने अंजलि बाँधकर अलग-अलग नृसिंह भगवान की स्तुति की ।
इस प्रकार स्तवन करने पर भी जब भगवान का क्रोध शान्त नहीं हुआ, तब देवताओं ने लक्ष्मी जी को उनके निकट भेजा, परंतु भगवान के उस उग्र रूप को देखकर वे भी भयभीत हो गयीं और उनके पास तक न जा सकीं । तब ब्रह्मा ने प्रहलाद से कहा “बेटा ! तुम्हारे पिता पर ही तो भगवान् कुपित हुए थे । अब तुम्हीं जाकर उन्हें शांत करो” ।
प्रहलाद “जो आज्ञा” कहकर भगवान् के निकट जा, हाथ जोड़ पृथ्वी पर साष्टांग लोट गये । अपने चरणों में एक नन्हें से बालक को पड़ा हुआ देखकर भगवान् दयार्द्र हो गये । उन्होंने प्रहलाद को उठाकर उनके सिर पर अपना कर कमल रख दिया । फिर तो प्रहलाद के बचे-खुचे सभी अशुभ संस्कार नष्ट हो गये । तत्काल उन्हें परमतत्त्व का साक्षात्कार हो गया ।
उन्होंने भावपूर्ण हृदय तथा निर्निमेष नयनों से भगवान् को निहारते हुए प्रेम-गदगद वाणी से स्तुति की । प्रहलाद द्वारा की गयी स्तुति से नृसिंह भगवान् संतुष्ट हो गये और उनका क्रोध जाता रहा । तब वे प्रेम से भरकर प्रसन्नतापूर्वक बोले “भद्र प्रहलाद ! तुम्हारा कल्याण हो । असुरोत्तम ! मैं तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ । तुम्हारी जो अभिलाषा हो, माँग लो, मैं मनुष्यों की कामना पूर्ण करने वाला हूँ ।
आयुष्मन ! जो मुझे प्रसन्न नहीं कर लेता, उसके लिये मेरा दर्शन दुर्लभ है, परंतु जब मेरे दर्शन हो जाते हैं, तब उसके हृदय में किसी प्रकार की जलन नहीं रह जाती । मैं समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाला हूँ, इसीलिये सभी कल्याणकामी परम भाग्यवान साधुजन जितेन्द्रिय होकर अपनी समस्त वृत्तियों से मुझे प्रसन्न करने का ही प्रयत्न करते हैं” ।
तब प्रहलाद ने कहा “मेरे वरदानि शिरोमणि स्वामी ! यदि आप मुझे मुँहमाँगा वरदान देना चाहते हैं तो ऐसी कृपा कर दीजिये कि मेरे हृदय मे कभी किसी कामना का बीज अंकुरित ही न हो” । यह सुनकर नृसिंह भगवान् ने कहा “वत्स प्रहलाद ! तुम्हारे-जैसे एकान्त प्रेमी भक्त को यद्यपि किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं रहती तथापि तुम केवल एक मन्वन्तरतक मेरी प्रसन्नता के लिये इस लोक में दैत्याधिपति के समस्त भोग स्वीकार कर लो ।
यज्ञभोक्ता ईश्वर के रूप में मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान हूँ, अतः तुम मुझे अपने हृदय में देखते रहना और मेरी लीला-कथाएँ सुनते रहना । समस्त कर्मों के द्वारा मेरी ही आराधना करके अपने प्रारब्ध-कर्म का क्षय कर देना । भोग के द्वारा पुण्य कर्मों के फल और निष्काम पुण्य कर्मों के द्वारा पाप का नाश करते हुए समय पर शरीर का त्याग करके समस्त बंधनों से मुक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे ।
देवलोक में भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्ति का गान करेंगे । इतना ही नहीं, जो भी हमारा और तुम्हारा स्मरण करेगा, वह समस्त कर्म-बंधनों से मुक्त हो जायेगा” । इस पर प्रहलाद ने कहा “दीनबन्धो ! मेरी एक प्रार्थना यह है कि मेरे पिता ने आपको भ्रातृहन्ता समझकर आपसे और आपका भक्त जानकर मुझसे जो द्रोह किया है, उस दुस्तर दोष से वे आपकी कृपा से मुक्त हो जायँ” ।
तब नृसिंह भगवान् ने हिरण्यकशिपु की पवित्रता को प्रमाणित करते हुए प्रहलाद को उसकी अन्त्येष्टि-क्रिया करने की आज्ञा दी और स्वयं ब्रह्मा द्वारा की गयी स्तुति को सुनकर उन्हें वैसा वर देने से मना करते हुए वे वहीं अन्तर्धान हो गये ।