भारतीय धार्मिक इतिहास में अवतारवाद के एक विशिष्ट सिद्धांत ने भारतीयों को एक विशिष्ट जीवन-शक्ति तथा आशावादिता भी प्रदान की, जिसके कारण वे विभिन्न संकटों तथा विपत्तियो को यह विश्वास रखते हुए झेल सकें कि वर्तमान विपत्ति की घड़ी कुछ ही काल के लिये है और उपयुक्त समय पर कोई दैवीय-सत्ता उत्पन्न होने वाली है।
यह विश्वास प्रचलित है कि देश-काल की विषम परिस्थितयों में लोक-मंगल हेतु, साधु-सज्जनों और ऋषियों-मुनियों के परित्राण हेतु तथा धर्म के समुत्थान के लिये भगवान विष्णु विभिन्न रूपों में अवतरित होते रहते हैं।
विभिन्न रूपों में अवतार लेकर भगवान विष्णु जागतिक संकटों को दूर करते हैं। धर्मशास्त्रों में भगवान विष्णु के चैबीस अवतारों का परिगणन हुआ है। ऐसे ही जैन धर्म में चैबीस तीर्थंकरों तथा बौद्ध धर्म मेें चैबीस बोधिसत्त्वों की अवधारणा प्रकट हुई। अवतारवादों को कतिपय भौतिक विकासवादी विद्वानों ने सृष्टि के विकास क्रम की दृष्टि से भी देखा है।
भगवान विष्णु के चैबीस अवतारों में मत्स्य अवतार विशेष महत्त्व का हैं मत्स्य का संबंध एक प्राचीन जल-प्लावन की कथा से है, जो भारतीय ही नहीं, लगभग सभी प्राचीन आर्य तथा सेमेटिक देशों के साहित्य (बाइबिल आदि)-में प्राप्त होती है। सम्भवतः यही एक ऐसी कथा है, जो आर्य तथा सेमेटिक-दोनों देशों की कथा-परम्पराओं में प्रायः समान है।
कुछ विद्वान इस कथा का सेमेटिक उदगम मानने के पक्ष में हैं, उनका कहना है कि आर्यों ने इस कथा को बाद में आर्येतर जातियों से ग्रहण किया, किंतु इस धारणा का सशक्त शब्दों में खण्डन हुआ है कि बैबीलोनिया तथा इजराइल में मिलने वाले विवरण भारतीय साहित्य में प्राप्य प्राचीनतम विवरण (शतपथ ब्राह्मण 1।8।1।1-19) से परवर्ती हैं और दोनों देशों की कथाओं की विभिन्न प्रकृति यह सिद्ध करती है कि दोनों स्वतंत्र रूप से अपने-अपने देश की तत्कालीन भौगोलिक स्थिति तथा परम्पराओं के आधार पर विकसित हुइ हैं।
शत पथ ब्राह्मण में मत्स्य अवतार की कथा इस प्रकार है-एक दिन विवस्वान के पुत्र वैवस्वत मनु के पास उनके सेवक आचमन करने के लिये जल लाये। जब मनु ने आचमन के लिये अंजलि में जल लिया तो एक छोटा-सा मत्स्य उनके हाथ में आ गया। उसने कहा-‘मेरा पोषण करो, मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा।’ वैवस्वत मनु का माथा ठनका क्योंकि पूरी धरती पर विकसित उन्नत सभ्यताओं के अधिपति थे वो।
‘कैसे मेरी रक्षा करोगे? ऐेसा मनु केे पूूछनेेे पर मत्स्य बोला-‘थोेड़े ही दिनों में इस धरती पर एक महा भयंकर जल-प्लावन होगा, जोे सम्पूर्ण पृथ्वी के प्रजा वर्ग को नष्ट कर देगा, उससेे मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा।’ मनु ने पुनः उससे पूछा ‘अब यह बताओ कि तुम्हारी रक्षा कैसे हो सकती है?’
उसने कहा “जब तक हम छोटे रहते हैं, तब तक हमारेे अनेक विनाशक होते हैं-बड़ा मत्स्य हीे छोटे मत्स्य कोे खा जाता हैं। अभी तुम मुझे एक घड़े में रख दो, जब उससे बढ़ जाऊं तो मुझे एक पोखरे में रख देना और उसके बाद मुझे समुुद्र में छोड़ देना, तब मेेरा कोई विनाश नहीं कर सकेगा।”
वैवस्वत मनु ने ऐसा ही किया और अंत में समुद्र मेें छोड़ेे जानेे तक उस मत्स्य का आकार, आज के आधुनिक युग की किसी विशालकाय सबमरीन से भी बड़ा हो गया था। समुद्र मेें छोड़ेे जाते समय वह मत्स्य मनु को जल प्लावन का समय बताकर तथा उनको उस दिन एक अत्यन्त विशालकाय नौका लेकर तैयार रहने का आदेश देकर महासमुद्र के अथाह जल में विलीन हो गया।
जब महा प्रलयंकारी जल प्लावन हुआ तो मनु उन्नत वैज्ञानिक क्षमताओं वाली उस विशालकाय नौका में चढ़ गये। उसी समय वह मत्स्य एक सींग वाले विशालकाय महा मत्स्य के रूप में प्रकट हुआ। उसके निर्देश पर मनु ने अपनी नौका की रस्सी उसके सींग में बांध दी। नाव लेकर वह महा मत्स्य उत्तर पर्वत (हिमालय) की ओर बढ़ गया।
उसने वहाँ नाव को एक अत्यन्त विशालकाय वृक्ष से बांधने का आदेश दिया और कहा कि जल के उतरने पर नीचे आ जाना। जल प्लावन से सम्पूर्ण प्रजा नष्ट हो गयी, केवल मनु बचे रहे।
जल घटने पर मनु नीचे आये और उन्होंने घृत, दधि आदि से जल में ही हवन किया। एक वर्ष बाद जल से इड़ा नामक एक कन्या उत्पन्न हुई। उसने मुन से कहा ‘तुम मुझसे यज्ञ करो, इससे तुम्हें धन, पशु तथा अन्य अभीष्ट वस्तुएं प्राप्त होंगी।’ मनु ने ऐसा ही किया और उसके द्वारा यह सारी प्रजा उत्पन्न की।
मत्स्य अवतार कथा का यही अंश सबसे प्राचीन तथा मुख्य है। मूल कथा में किसी भी देवता विशेष की कोई भूमिका नहीं है। शत पथ ब्राह्मण के इस आख्यान को हिन्दी साहित्य के कविवर जयशंकर प्रसाद ने अपने अद्वितीय महाकाव्य कामायनी द्वारा अमर कर दिया है।
शत पथ ब्राह्मण के बाद यह कथा विविध पुराणों तथा महाभारत (वन पर्व, अ0 187) में प्राप्त होती है। महाभारत में स्पष्ट कहा गया है कि यह मत्स्य प्रजापति या ब्रह्मा जी का ही रूप था।
ठीक भी है, प्रलयकालीन जल से मानव जाति के आदि पूवर्ज मनु की रक्षा करके सृष्टि के अंकुरों को सुरक्षित रखने का प्रयास प्रजापति के अतिरिक्त कौन कर सकता है? और जल प्लावन का पूर्वज्ञान, अतुलित विस्तार से विवर्धन तथा समुद्र में नौवाहन आदि अतिमानुषिक कार्य भी सर्वोच्च दैवी शक्ति प्रजापति के द्वारा ही सम्भव है।
भारतीय पौराणिक ग्रंथों में प्रलयंकारी बाढ़ का वर्णन
भागीरथी नदी के तट पर स्नान करते हुए वैवस्वत मनु के हाथों में एक छोटा-सा मत्स्य आ जाता है और दीनतापूर्वक मनु से अपनी रक्षा करने की प्रार्थना करता है। ‘भगवन्! मैं एक छोटा-सा मत्स्य हूं। मुझे (अपनी जाति के) बलवान मत्स्यों से बराबर भय बना रहता है। अतः उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षे! आप उससे मेरी रक्षा करें।’
मत्स्य पुनः बोला ‘मैं भय के महान समुद्र में डूब रहा हूं, आप विशेष प्रयत्न करके मुझे बचाने का कष्ट करें, आपके इस उपकार के बदले में प्रत्युपकार करूंगा। मत्स्य की यह बात सुुनकर वैवस्वत मनु की बड़ी दया आयी और उन्होंने चन्द्रमा की किरणों के समान श्वेत रंग वाले उस मत्स्य को उठा लिया। इसके बाद पानी से बाहर लाकर उसे मटके मेें डाल दिया।
वह मत्स्य इतनी तेजी से बढ़ने लगा कि क्रमशः घ, पोखरा तथा नदी आदि भी उसके लिये छोटे पड़ गये। अंत में मनु ने उसे समुद्र में छोड़ दिया। वह महामत्स्य अपनी लीला से उनके वहन करने योग्य हो गया। उस समय उस मुस्कारते हुए महा मत्स्य ने मनु से कहा ‘भगवन्! आपने विशेष मनोयोग के साथ सब प्रकार से मेरी रक्षा की है, अब आपके लिये जिस कार्य का अवसर प्राप्त हुआ, वह बताता हूं, सुनिये।’
‘भगवन! यह सारा का सारा चराचर पार्थिव जगत शीघ्र ही नष्ट होेने वाला है। महाभाग! सम्पूर्ण जगत में प्रलय होने वाला है। समस्त जङ्गम तथा स्थावर पदार्थों में जोे हिल-डुल (अर्थात गति कर) सकते हैं और जोे हिलने-डुलनेे में सक्षम नहीं हैं, उन सबकेे लिये अत्यन्त भयंकर समय आ पहुुंचा है।’
यह सूचना देने केे पश्चात उस मत्स्य ने मनु सेे एक अत्यन्त विशालकाय एवं दृढ़ नाव बनवाने के लिये केे लिये कहा और बताया कि उसमें विशेष रूप से एक कठोर किन्तु हलके धातु की रस्सी लगी हो, आप सम्पूर्ण ओेषधियों एवं अन्नों के बीजों को लेकर स्प्तर्षियों के साथ उस उन्नत नौका में बैठ जाना।
मै एक सींग वाले महा मत्स्य के रूप में आऊंगा और तुम्हें सुरक्षित स्थान पर ले जाऊंगा। कालान्तर में, उस मत्स्य द्वारा बताये गए नियत समय पर ऐसा ही हुुआ। उस दिन महासमुद्र अपनी मर्यादा भंग करके पृथ्वी -मण्डल को डुबाने लगा। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यहाँ इतिहास की भयंकरतम सुनामी का वर्णन हो रहा है।
उस महा जलप्लावन के उपस्थित हो जाने पर मनु ने सभी को ले कर उस विशालकाय और उन्नत नौका में प्रवेश किया। मनु की नौका प्रलय-जल में तैरनेे लगी। वैवस्वत मनु उस समय भगवान मत्स्य का स्मरण करने लगे।
स्मरण करते ही श्रृगंधारी भगवान मत्स्य वहां आ पहुंचे । मनु ने नौका की रस्सी उनके सींग में बांध दी और भगवान मत्स्य नाव खींचनेे लगे। वेे नाव को हिमालय पर्वत के सबसे बड़े शिखर तक लेे गये और उन्होंने उन सप्तर्षियों से पर्वत शिखर में नौका की रस्सी बांधने के लिये कहा।
इसके पश्चात भगवान मत्स्य ने अपना परिचय देते हुुए उन ऋषियों से कहा ‘मैं प्रजापति ब्रह्म हूँ। मत्स्य रूप में मैंने ही मनु तथा आप लोगों (सप्तर्षिगण) की रक्षा की है; क्योेंकि मनु ही (इस प्रलय के उपरान्त) देवता, असुुर तथा मानवों की सृष्टि करेंगे। तपस्या के बल से मनु की प्रतिभा अत्यन्त विकसित हो जायेेगी और प्रजा की सृष्टि करते समय इनकी बुुद्धि मोह कोे प्राप्त नहीं होगी, सदा जागरूक रहेगी।’
ऐसा कहकर भगवान मत्स्य क्षण भर में अदृश्य हो गये औैर मनुु जी भी तपस्या करके सृष्टि कार्य में प्रवृत्त हो गये। मत्स्य पुराण की यह कथा सम्पूर्ण पुराणों में आयी मत्स्यावतार कथा की आधार-भूमि है। मत्स्यरूपधारी भगवान प्रलय-काल में मनु को जिस पुराण का उपदेश देते हैं, वही मत्स्यपुुराण’ नाम से प्रसिद्ध है।
श्रीमद भागवत मेें यह कथा और अधिक क्रमबद्ध रूप में आयी है। कथा का प्रारम्भ श्री मदभागवत महापुराण के मुख्य श्रोता राजा परीक्षित के प्रश्न से होता है कि भगवान विष्णु ने मत्स्य-जैसे तुुच्छ एवं विगिर्हित प्राणी का रूप क्यों धारण किया?
श्री शुक देव जी उत्तर देते हैं कि ‘राजन! यों तो भगवान सबके एकमात्र प्रभु हैं, फिर भी गो, ब्राह्मण, देवता, साधु, वेद, धर्म तथा अर्थ की रक्षा के लियेे वे शरीर धारण किया करते हैं।
महाभारत में प्रजापति के मत्स्य रूप का कारण केवल मनु आदि की रक्षा है, किंतु श्री मदभागवत महापुराण में हयग्रीव दैत्य सेे वेदोें के उद्धार का महत्वपूर्ण कार्य भी इस अवतार के साथ जुड़ा है।