बहुत प्राचीन काल की बात है | उन दिनों राजा, महाराजा धार्मिक हुआ करते थे | वे अपनी प्रजा का पुत्रवत पालन किया करते थे और ब्राह्मणों का सत्कार किया करते थे | उन्ही दिनों भद्रायु नाम के एक महा प्रतापी राजा हुआ करते थे, वे शिव के परम भक्त थे । अनिन्द्य सुंदरी देवी कीर्ति मालिनी उन सम्राट भद्रायु की साध्वी पत्नी थीं।
अपने स्वामी के समान ही एक बार वसन्त काल में राजा-रानी दोनों वन-विहार के लिये वन में गये । उनके आराध्य भगवान शिव ने अपनी अर्द्धांगिनी पार्वती जी से उनकी भक्ति तथा धर्म की परीक्षा करने के लिये द्विज-दम्पती का रूप धारण कर लीला करने की इच्छा प्रकट की, जिसे पार्वती जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया |
उस समय वे स्वयं द्विज-दम्पती उस वन में उसी स्थान पर आये, जहां राजा भद्रायु और उनकी सुधर्मा पत्नी रानी कीर्ति मालिनी सुखपूर्वक बैठे हुए थे। भगवान शंकर ने अपनी लीला से वहां एक मायामय दुर्धर्ष व्याघ्र की रचना भी कर ली | अब भगवान शंकर ने लीला दिखानी प्रारम्भ की। भगवान शंकर तथा पार्वती द्विज-दम्पती के रूप में व्याघ्र के भय से भाग रहे थे और उनके पीछे पीछे वह व्याघ्र भयंकर गर्जना करते हुए आ रहा था।
वे दोनों ‘अरे कोई है, कोई है, बचाओ-बचाओ’-इस प्रकार चिल्लाते-चिल्लाते, रोते-रोते वहां पहुंचे जहां राजा भद्रायु अपनी पत्नी के साथ विहार कर रहे थे । वे दोनों राजा से अपने प्राणों की रक्षा की प्रार्थना करने लगे। उनके आर्त स्वर को सुन कर तथा भयंकर व्याघ्र को उनके पीछे आते देख कर जब तक राजा धनुष बाण चढ़ाते, उतने ही समय में उस तीक्ष्ण दांतो और पंजों वाले व्याघ्र ने ब्राह्मणी के रूप में पार्वती जी को दबोच लिया।
ब्राह्मणी रोती-चिल्लाती रह गयी । राजा ने अनेक अस्त्रों से व्याघ्र पर प्रहार किया, किंतु उस मायामय व्याघ्र पर कुछ भी असर नहीं हुआ। होता भी कैसे, उसे तो लीलाधारी भगवान शिव ने अपनी माया से लीला के लिये ही बनाया था। वह व्याघ्र ब्राह्मणी को दूर तक घसीटता चला गया। राजा के सभी अस्त्र-शस्त्र व्यर्थ सिद्ध हुए।
वह ब्राह्मण अत्यंत दुखित हो कर विलाप करने लगा | वह राजा के क्षत्रियत्व को बहुत प्रकार से धिक्कारने लगा कि उनके रहते उनकी पत्नी को व्याघ्र हर ले गया। ‘जो शरणागत की रक्षा न कर सके उसका जीना व्यर्थ है।’ यह सुन कर राजा के मन में अत्यन्त ग्लानि हुई।
उन्हें अपना जीवन व्यर्थ लगने लगा। अतः उन्होंने प्राणों के उत्सर्ग का निश्चय किया और वृद्ध ब्राह्मण के चरणों में गिर कर वे क्षमा याचना करते हुए कहने लगे | वे बोले ‘ब्राह्मन! अब मेरा जीवन व्यर्थ ही है। मेरा बल, पराक्रम सब व्यर्थ गया। मैं देवी ब्राह्मणी को उस व्याघ्र से छुड़ा नहीं सका, अतः अब मुझे राज्य तथा समस्त वैभव आदि से कोई प्रयोजन नहीं हैं, इसलिये उसे आप स्वीकार कर मुझे क्षमा करें।’
इस पर लीला रूप वृद्ध ब्राह्मण ने कहा-‘अरे राजन! मेरी प्रिया ब्राह्मणी नहीं रही, इसलिये मेरे लिये सारा सुख उपभोग व्यर्थ ही है, यह तो वैसा ही है जैसे अंधे के लिये दर्पण निष्प्रयोजन ही होता है। यदि आपको देना ही है तो मेरी स्त्री नहीं रही, इसलिये आप अपनी स्त्री मुझे प्रदान करें। अन्यथा मेरे प्राण शरीर में नहीं रह सकते।’
वृद्ध ब्राह्मण के मुख से ऐसी बात सुनकर पहले तो राजा भद्रायु अवाक् रह गये। उन्हें महान आश्चर्य हुआ । उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वे इसे युग परिवर्तन की वजह से समाज में होने वाला क्षरण समझे या व्यक्तिगत रूप से उस ब्राह्मण का पतन समझे लेकिन उस समय वे कुछ निर्णय करने में समर्थ नहीं हुए |
किंतु दूसरे ही क्षण उन्होंने निश्चय किया कि ब्राह्मण के प्राणों की रक्षा न करने से महान पाप होगा। अतः उन्होंने पत्नी का दान करके अग्नि में प्रवेश कर जाने का निर्णय लिया। ऐसा निश्चय करके उन्होंने लकड़ियां एकत्र कीं तथा अग्नि प्रज्वलित कर ब्राह्मण को बुला कर अपनी पत्नी उन्हें दे दी और फिर भगवान शिव का स्मरण-ध्यान करके ज्यों ही राजा भद्रायु अग्नि में प्रविष्ट होने के लिये उद्यत हुए, त्यों ही लीलाधारी भगवान शंकर जो द्विज रूप में थे, वे साक्षात शिव रूप में सामने प्रकट हो गये।
उनके पांच मुख थे, मस्तक पर चन्द्र कला सुशोभित थी, जटाएं लटकी हुई थीं। वे हाथों में त्रिशूल, खटवाडग, ढाल, कुठार, पिनाक तथा वरद और अभय-मुद्रा धारण किये थे। वे वृषभ पर आरूढ़ थे। उनका मुख मण्डल अदभुत दिव्य प्रकाश की आभा से प्रकाशित हो रहा था। उनका वह रूप अत्यन्त मनोरम तथा सुखदायी था।
अपने आराध्य लीलाधारी भगवान शिव को अपने सामने पाकर राजा भद्रायु के आनंद की सीमा न रही। वे बार-बार प्रणाम करते हुए अनेक प्रकार से उनकी स्तुति करने लगे। उस समय आकाश से पुष्प वृष्टि होने लगी। देवी उमा भी वहीँ प्रकट हो गयीं।
राजा के महान त्याग और दृढ़ भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने भद्रायु को लीला का रहस्य समझाते हुए कहा-‘राजन! मैं ही तुम्हारे शिव-भाव की परीक्षा लेने के लिये द्विज रूप में अवतरित हुआ था और वह वृद्ध ब्राह्मणी भी और कोई नहीं मेरी अंतरंग प्रिया ये देवी पार्वती ही थीं। वह व्याघ्र भी मैंने लीला से ही रचा था।
तुम्हारे धैर्य को देखने के लिये ही मैंने तुम्हारी पत्नी को मांगा था। तुम्हारी पत्नी कीर्ति मालिनी और तुम्हारी भक्ति से हम प्रसन्न हैं, कोई वर मांगो!’ फिर शिव भक्ति का वरदान प्राप्त कर अंत में राजा भद्रायु तथा कीर्ति मालिनी ने शिव सायुज्य प्राप्त किया। भद्रायु ने अपने माता-पिता एवं कुल-परम्परा और कीर्ति मालिनी ने भी अपने माता-पिता एवं कुल-परम्परा को शिव-भक्त होने का वरदान प्राप्त किया। इस प्रकार भगवान शिव ने अपने भक्त के कल्याण के लिये द्विज रूप होकर लीला की और वे द्विजेश्वर कहलाये।