अवधूत श्रेष्ठ भगवान श्री दत्तात्रेय जी की कथा

भगवान श्री दत्तात्रेय जीब्रह्मपुराण आदि के अनुसार भगवान दत्तात्रेय का अवतार

ब्रह्म पुराण में भगवान दत्तात्रेय के अवतार का प्रयोजन इस प्रकार से वर्णित है ‘सर्वभूतों के अंतरात्मा, विश्वव्यापी भगवान विष्णु, विश्व कल्याण हेतुु पुुनः अवतीर्ण हुुए और दत्तात्रेय नाम से विख्यात हुुए।’ वहीँ पर आगे कहा गया है कि जब वेद नष्ट प्रायः हो गये थे, सत्य युग होने पर भी कलि युग की कला मानोे आ गयी थी, चातुर्वण्र्य संकीर्ण होे गये थे, अपने-अपने धर्म (कर्तव्य कर्म)- में शिथिलता आ गयी थी, ब्राह्मणों ने नित्य-नैमित्तिक कर्म्र, अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ-यागादि छोड़ दिये थे, वैसे विषम समय में वेद का पुनरूद्धार करने हेतुु एवं धर्म के पुनः स्थापन करने हेतु भगवान विष्णु ने दत्तात्रेय रूप में अवतार लिया।

ब्रह्मा के मानस पुत्र महर्षि अत्रि एवं प्रजापति कर्दमसुता महासती अनुसूया के माध्यम से दत्तात्रेय पृथ्वी पर अवतीर्ण हुुए। उन्होंने श्रुतियों का उद्धार किया, वैदिक धर्म की स्थापना की, लोगों को अपने-अपने कर्तव्य कर्म का उपदेश दिया, सामाजिक वैमनस्य का निवारण किया तथा भक्तों को त्रिताप से मुक्ति का-सच्चेे सुख शान्ति का मार्ग दिखला कर आवागमन सेे मुक्त करवाया।

विष्णु पुुराण में ऐसा उल्लेख है कि विष्णु, महेश्वर और ब्रह्मा (त्रिदेव) महर्षि अत्रि एवं अनुसूया के पुत्र रूप में दत्तात्रेय, दुर्वासा तथा चन्द्र (प्रजापति) नाम से अवतीर्ण हुए।

मार्कण्डेय पुराण (अध्याय 17) मेें कहा गया है कि अत्रि-अनसूया के पुत्रों में प्रथम पुत्र ‘सोम’ ब्रह्मा जी केे अवतार रजोगुण प्रधान थे, द्वितीय पुुत्र ‘दत्तात्रेय’ विष्णु के अवतार सत्त्व गुण प्रधान थे और तृतीय पुुत्र ‘दुर्वासा’ महेश्वर के अवतार तमोगुण प्रधान थे।

मत्स्य पुराण में वर्णित भगवान की बारह विभूतियों में दत्तात्रेय जी का समावेश है। उनकेे जन्म के विषय में विस्तृत एवं संक्षिप्त वर्णन शिव पुराण, स्कन्द पुराण, भविष्य पुराण, मार्कण्डेय पुराण, श्री मदभागवत, वायु पुराण तथा विष्णुुधर्मोत्तर पुराण आदि में हैं।

दत्तात्रेय जी का जन्म क्या गुजरात में हुआ था?

भगवान दत्तात्रेय के अवतार-स्थान के विषय में स्कन्द पुराण (माहेश्वर खण्ड, अध्याय 22, श्लोक 17-18) में ऐेसा वर्णन आया है कि ‘महर्षि अत्रि एवं महासती अनसूया’ गुजरात-प्रदेश के स्तम्भ तीर्थ (खंभात) के समीप केे महीसागर-संगम स्थान पर आश्रम बनवा कर दीर्घ काल तक तपस्या करते थे। उसी पवित्र स्थान में भगवान दत्तात्रेय का आविर्भाव हुआ।

महर्षि अत्रि ने वहां पर अत्रीश्वर नामक शिवलिंग की सविधि स्थापना की थी। स्कन्द पुराण में ऐसा भी कहा गया है कि ‘भृगुकच्छ (भडोच)-के समीप के रेवा-सागर संगम के सन्निकट में सुवर्ण शिला-स्थान में दत्तात्रेय का अवतार हुआ था।’ गुजरात के नर्मदा तटस्थ अनसूया-तीर्थ को भी दत्तात्रेय अवतार स्थान माना जाता है।

नारद पुराण के अनुसार महाराष्ट्र प्रदेश में वर्धा के समीपस्थ माहुरगढ़ दत्तात्रेय जी का जन्म स्थान है। ‘शुचिन्द्रम-माहात्म्य’ नामक धर्म ग्रन्थ में केरल प्रदेश के त्रिवेन्दम के समीपस्थ शुचिन्द्रम तीर्थ में दत्तात्रेय जी का अवतार होने का वृत्तान्त है। वहां पर भगवान दत्तात्रेय की मूर्ति भव्य मंदिर में स्थापित है। मलयालम भाषा में त्रिमूर्ति दत्तात्रेय को ‘थान्नूमल्लायम’ कहते हैं। उनके चमत्कार की अनेक कथाएं मलयाली ग्रन्थों में वर्णित है।

रेवा तटस्थ अनसूया तीर्थ में त्रिदेव (ब्रह्मा-विष्णु-महेश्वर) ने भगवती अनसूया के सतीत्व की परीक्षा ली थी, फलतः अनसूया ने अपने पातिव्रत्य की महा शक्ति से त्रिदेवों को शिशु बना दिया था।

भगवान दत्तात्रेय जी का जन्म कब हुआ था?

विविध धर्म ग्रन्थों का अध्ययन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि ‘भगवान दत्तात्रेय का अवतार सत्य युग के प्रारम्भ में स्वायम्भुव मन्वन्तर’ के मार्ग शीर्ष पूर्णिमा सौम्यवासर, सायंकाल शुभ मुहूर्त में हुआ था।

कुछ पुराण ग्रंथों से ऐसा भी प्रमाण मिलता है कि दत्तात्रेय अयोनिज संतान थे अर्थात अनसूयागर्भ सम्भूत नहीं थे। मराठी भाषा के प्रसिद्ध धर्म ग्रन्थ ‘श्री गुरूचरित्र’ में ‘त्रिमूर्ति दत्तात्रेय’ के विषय में लिखा है कि सोम, दत्तात्रेय एवं दुर्वासा का यज्ञोपवित-संस्कार होने के बाद सोम और दुर्वासा ने अपना स्वरूप तथा तेज दत्तात्रेय को प्रदान कर तपस्या हेतु अरण्य के लिये प्रस्थान किया। अतः दत्तात्रेय तीन स्वरूप वाले (त्रिमूर्ति) और तीन तेजों से युक्त (त्रिशक्ति सम्पन्न) हुए|

भगवान दत्तात्रेय जी का स्वरुप कैसा है?

श्री गुरू चरित्र में दत्तात्रेय जी के आविर्भाव (अवतार) के समय का स्वरूप-वर्णन करते हुए कहा गया है कि वे त्रिगुणात्मक त्रिमूर्ति, ब्रह्माा, विष्णु, महेश्वर-त्रिदेव का एकीभूत रूप थे। वे त्रिमुख, षडभुज, मस्तक पर जटा मुकुट से युक्त भस्म भूषित अंग वाले, ग्रीवा में रूदाक्ष-माला से शोभित दाहिने हाथ में अक्षमाला तथा अन्य हाथों में डमरू, शंख, त्रिशूल, कमण्डलु और चक्र धारण किये हुए हैं।

योग मार्ग के प्रवर्तक दत्तात्रेय शाम्भवी मुद्रा में शोभित हैं। अर्थात श्री दत्तात्रेय जी भक्तों पर नित्य अनुग्रह (कृपा) करने की प्रवृत्ति वाले, भक्त जनों के पाप एवं त्रिताप का निवारण करने वाले, अंदर से बालक के समान सरल एवं शुद्ध और बाहर से उन्मत्त तथा पिशाच (भूत)-से दिखायी पड़ने वाले हैं, सच्चे हृदय से उनका स्मरण करने पर वे तुरंत प्रकट हो जाने वाले और दया के सागर हैं।

कवि दासोपन्त लिखित ग्रंथ ‘दत्तात्रेयसर्वस्व’ में दत्तात्रेय के त्रिमूर्तिस्वरूप के विषय में लिखा है कि ‘शीर्षत्रयेणसहितं शीर्षवेदत्रयस्य’ सारांश यह है कि त्रिमूर्ति के तीन मस्तक तीन वेद का प्रतिपादन करते हैं। महा कवि कालिदास कुमार सम्भव (2।4) में त्रिमूर्ति दत्तात्रेय की प्रार्थना करते हैं-“सृष्टि की उत्पत्ति से पहले केवल ‘एकमेव अद्वितीय’ परब्रह्म था, बाद में त्रिगुणात्मक-सृष्टि का निर्माण करने के लिये सत्त्व, रज, तम-इन तीन गुणों का भेद हुआ, तत्पश्चात गुणानु भेदरूप ब्रह्मा-विष्णु-महेश्वर हुए। ऐसे त्रिमूर्ति स्वरूप दत्तात्रेय! आपको मेरा नमस्कार है।”

कवि, बाण, कवि, शूद्रक, कवि मल्लिनाथ आदि ने अपने-अपने ग्रंथों में त्रिमूर्ति स्वरूप दत्तात्रेय जी के प्रति आदर भाव अभिव्यक्त किया है। मलयालम भाषा के ग्रंथ ‘शुचिन्द्रम-माहात्म्य’ में दत्तात्रेय के त्रिमूर्ति स्वरूप को प्रणव (ऊँ)-का आद्य स्वरूप कहा है और अश्वत्थ वृक्ष में से त्रिमुख दत्तात्रेय का स्वयंभू महाज्योतिर्लिंग रूप में प्रकट होने का वर्णन है।

‘दत्तात्रेय-अवतार’ के विषय में ऐसा वृत्तान्त है कि जब त्रिदेेव (ब्रह्मा-विष्णु-महेश्वर) महर्षि अत्रि के उत्कट तप से तथा सती अनसूया की उच्च कोटि की भक्ति से अति प्रसन्न हुए तब उन्होंने ‘वरं ब्रूहि’ (वर मांगो) ऐसा कहा। तब अत्रि ने त्रिमूर्ति-स्वरूप के दर्शन की इच्छा अभिव्यक्त की। अनसूया ने तो तीनों देवों को अपने पुत्र रूप में मांग लिया |

त्रिदेवों ने अत्रि एवं अनसूया की इच्छा पूर्ण करने को सहर्ष स्वीकार किया और वैसा ही किया। अत्रि को त्रिदेव के दर्शन से उत्तम ज्ञान लाभ हुआ कि ‘एको देवस्त्रिधा स्मृतः’ (तीन देव भिन्न-भिन्न होने पर भी वस्तुतः वे एक ही हैं) अनसूया ने त्रिदेव को अपने पुत्र (1) सोम, (2) दत्तात्रेय, (3) दुर्वासा के रूप में प्राप्त कर मातृ वात्सल्य प्राप्त किया, देव माता एवं महासती बनने का दिव्य आनंद-लाभ किया।

इस कथा का तात्पर्य यह हुआ कि त्रिदेव के दिव्य दर्शन से अत्रि महाज्ञानी हुए और देवी अनसूया पराभक्ति सम्पन्ना हुई। वस्तुतः परम ज्ञान एवं पराभक्ति अभिन्न ही है।

क्या ब्रह्मा विष्णु और महेश एक ही निराकार परब्रह्म के स्वरुप हैं?

शिव पुराण (शत रूद्र संहिता अध्याय 19), श्री मदभागवत (4।9) में ऐसी कथा वर्णित है कि महर्षि अत्रि स्वपत्नी अनसूया के साथ पिता ब्रह्मा की आज्ञा लेकर यक्षकुल पर्वत (चित्रकूट) में सुपुत्र की कामना से उत्कट तपस्या करने के लिए चल पड़े | ‘जो एक अविकारी महाप्रभु हैं, परमेश्वर हैं, वे हमें पुत्र रूप में प्राप्त हों।’ ऐसा महर्षि अत्रि का संकल्प था।

अत्रि के दीर्घकालीन उत्कट तप से त्रिदेव प्रसन्न हुए और उनके सम्मुख प्रकट हुए। अत्रि ने शंका व्यक्त की कि मैंने तो एक अविकारी, निराकार ईश्वर के लिये तपस्या की थी, किंतु आप तीन अलग-अलग देव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर) साकार रूप में मेरे समक्ष क्यों उपस्थित हुए हैं? यह सुनकर तीनों देवों ने कहा कि ‘हम जगत की सृष्टि, स्थिति एवं लय के तीन देव एक ही निर्गुण ब्रह्मा के स्वरूप हैं।’

क्या दत्तात्रेय अयोनिज संतान है?

स्कन्द पुराण की एक कथा में ऐसा वर्णन है कि एक बार अत्रि एवं अनसूया अपने आश्रम में बैठे थे, तब महा तपस्वी अत्रि के चक्षुओं में से भी तप का दिव्य तेज निकला और उसी समय महासती अनसूया के चक्षुओं में से भक्ति का दिव्य तेज निकला। दोनों तेज मिल कर घनीभूत हुआ और तेजस्वी दत्तात्रेय का प्राकटय हुआ। अतः दत्तात्रेय अयोनिज संतान है।

दत्तात्रेय जी की मूर्ती का गूढ़ रहस्य क्या है?

‘दत्तात्रेय-स्र्वस्व’ नामक ग्रन्थ में दत्तात्रेय-त्रिमूर्ति का आध्यात्मिक रहस्य इस प्रकार से बताया गया है-भगवान दत्तात्रेय प्रणव (ऊँ)-स्वरूप हैं, उनके तीन मस्तक प्रणव की तीन मात्राएं (अ, उ, म) हैं, जो उनका व्यक्त स्वरूप है। प्रणव की अर्धमात्रा एवं बिन्दु उनका अव्यक्त स्वरूप है। प्रणव की विस्तार रूपा वेदमाता गायत्री गाय के रूप में दत्तात्रेय के समीप खड़ी हैं। गायत्री साधना से प्राप्त (1) धर्म (2) अर्थ (3) काम (4) मोक्ष-ये चार श्वान (कुत्ते) दत्तात्रेय के चरणों के समीप रहते है। दत्तात्रेय के छः हाथ षडैश्वर्य के प्रतीक हैं और दो पैर श्रेय एवं प्रेय के द्योतक हैं। ऐसा दत्तात्रेय मूर्ति का गूढ़ रहस्य है।

आधि दैविक दृष्टि से दत्तात्रेय भगवान विष्णु के अवतार हैं, गाय पृथ्वी है और चार श्वान गुण-कर्म हीन चार वर्ण हैं। अत्रि का अर्थ है त्रिगुणातीत चैतन्य और अनसूया का अर्थ है पराप्रकृति। इन दोनों का सृजन है भगवान दत्तात्रेय का प्रादुर्भाव। अतः श्री दत्तात्रेय आदि गुरू एवं विश्व गुरू हैं।

दत्तात्रेय जी अवधूत कुल शिरोमणि हैं

अवधूत-उपनिषद में दत्तात्रेय को अति वर्णाश्रमी, योगी किंवा पंचमाश्रमी कहा गया है। उनको अवधूत श्रेष्ठ एवं अवधूत कुल शिरोमणि कहा गया है। अवधूत शब्द के चार अक्षरों का अर्थ इस प्रकार है-(1) अ-‘अक्षरत्वात’ अर्थात अक्षर पर ब्रह्म को प्राप्त अथवा कार्यासिद्धि प्राप्त, (2) व-‘वरेण्यत्वात’ अर्थात सबके द्वारा वरणीय (पूजनीय), (3) धू-‘धूतसंसारबन्धनात’ अर्थात जिनके सभी सांसारिक बंधन अपने-आप छूट गये हैं तथा (4) त-‘तत्त्वमस्या-दिलक्ष्यत्वात-अर्थात जिनका लक्ष्य निरन्तर ही ‘तत त्वम असि’ महा वाक्य है।

इन चारों अक्षरों (अ, व, धू, त)-के गुणों से युक्त महात्मा को अवधूत कहते हैं। भगवान दत्तात्रेय को तंत्र-ग्रंथों में परमावधूत कहा गया है। वे अवधूत कुल शिरोमणि हैं। सारांश यह है कि दत्तात्रेय हरि (विष्णु)-के अवतार होने से साक्षात हरि हैं और भक्तों को भुक्ति (सासांरिक सुख) एवं मुक्ति (पारमार्थिक सुख) प्रदान करने वाले हैं। आद्यशंकराचार्य ने जीवन्मुक्ता नंद लहरी ग्रन्थ में दत्तात्रेय को त्रिभुवनजयी परमावधूत कहा है।

दत्तात्रेय-सर्वस्व नामक ग्रंथ में दत्तात्रेय को यति श्रेष्ठ, योगिराज, जगत गुरू इत्यादि कहा गया है।

दत्तात्रेय जी का रहस्यमय स्वरुप भक्तों पर उपकार करने वाला है

त्रिपुरा रहस्य में महामुनि दत्तात्रेय जी को भगवान विष्णु का अंश अवतार और योगीश्वर माना गया है, साथ ही तंत्र मार्ग का श्रेष्ठ पथिक भी कहा गया है-
विष्णु के रूप में अवतरित होकर भगवान दत्तात्रेय ने जगत का बड़ा ही उपकार किया है। इनकी प्रकृति शान्त थी। इन्होंने चैबीस गुरूओं से दिव्य भावपूर्ण शिक्षा ग्रहण कर अंत में विरक्ति ली थी और कार्तिकेय श्री गणेश, प्रहलाद, यदु, अलर्क, राजा पुरूरवा, आयु, परशुराम तथा हैहयाधिपति कार्तवीर्य आदि को योग विद्या एवं अध्यात्म विद्या का उपदेश दिया था।

ये जीवन मुक्त होकर यावज्जवीन सदगुरू के रूप में अपने भक्तों को अनुगृहीत करते हुए विचरण करते रहे (भाग0 2।7) भगवान शंकराचार्य, गोरक्षनाथ तथा सिद्ध नागर्जुनादि इन्हीं की कृपा पात्रता केा प्राप्त हुए। ये परम भक्त वत्सल कहे गये हैं। भक्त के स्मरण करते ही ये तत्क्षण उनके पास पहुंच जाते हैं, इसीलिये इन्हें-‘स्मृतिगामी’ तथा ‘स्मृतिमात्रानुगन्ता’ कहा गया है।

पुराणों में इनका जो स्वरूप प्राप्त होता है, उससे यह निश्चित होता है कि ये अवधूत-विद्या के आद्य आचार्य थे। इनके अवधूत होने का इससे प्रबल प्रमाण और क्या हो सकता है कि ये प्रातः काल वाराणसी में स्नान करते हैं, कोल्हापुर के देवी-मंदिर में जप-ध्यान करते हैं, माहुरीपुर (मातापुर)-में भिक्षा ग्रहण करते हैं तथा सहृाद्रि में विश्राम करते हैं-

दत्तात्रेय जी श्री विद्या के परम आचार्य हैं

पद्यपुराण-भूमि खण्ड के वर्णन से ज्ञात होता है कि दत्तात्रेय को भगवान धर्म का साक्षात्कार हुआ था। इसीलिये ये ‘धर्मविग्रही’ भी कहलाते हैं। ये श्री विद्या के परम आचार्य हैं। परशुराम जी को इन्होंने अधिकारी जानकार श्री विद्या का उपदेश किया था। उनकी परा-विद्या का उपदेश त्रिपुरा रहस्य-माहात्म्य-खण्ड के नाम से प्रसिद्ध है। ये सिद्धों के भी परम आचार्य कहे गये हैं।

दासोपन्त, महानुभाव, गोसाईं तथा गुुरू चरित्र इनके नाम पर अनेक सम्प्रदाय हैं। इनका दत्त-सम्प्रदाय दक्षिण भारत में विशेष प्रसिद्ध है। ‘गिरनार’ श्री दत्तात्रेय जी का सिद्धपीठ है। त्रिपुरा रहस्य के अनुसार इनका एक आश्रम गन्धमादन पर्वत पर भी है। इनकी गुरू चरण पादुकाएं वाराणसी तथा आबू पर्वत आदि कई स्थानों में हैं। इनका बीज मंत्र ‘द्राँ’ है। चिरंजीवी होने के कारण इनके दर्शन अब भी भक्तों को होते हैं। ऐसे विष्णु के अवतार भगवान दत्तात्रेय जी को कोटिशः वन्दन है।

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