कृष्ण अवतार की कथा

कृष्ण अवतार “संसार के प्राणी अत्यन्त दुःखी हैं दयाधाम!” देवर्षि नारद गोलोक में सत्कार स्वीकार करके आसन पर आसीन हो गये थे और कुशल-प्रश्न का अवकाश दिये बिना ही उन्होंने स्वतः प्रार्थना प्रारम्भ कर दी “आपकी अहैतु की कृपा के अतिरिक्त उनका और कोई आश्रय नहीं है।”

“मैं कृपा-कृपण नहीं हुआ हूं देवर्षि!” तनिक मुस्कराये मयूर मुकुटी। “जीवों के परम कल्याण के लिये श्रुति की शाश्वत वाणी मैंने पूर्व से उन्हें प्रदान की। सृष्टि के प्रारम्भ में ही मैं स्रष्टा को वेद-ज्ञान दे देता हूं, जिससे जीवों को अज्ञान के अंधकार में भटकना न पड़े।”

“वे अब भी भटक रहे हैं।” कृपा की अतिशयता के कारण नारद जी के नेत्र टपकने लगे “जप-तप, योग-यज्ञ आदि में प्रथम तो उनकी प्रवृत्ति नहीं होती और कदाचित हो भी गयी तो आपकी लोक विमोहिनी माया के प्रलोभन कहां कम हैं। भोग, यश, स्वर्ग और कुछ न हो तो अहंकार-इन पाशों से परित्राण कैसे पायें वे दुर्बल?”

“अंततः आप चाहते क्या हैं?” सीधा प्रश्न किया गया। श्री नारद जी का क्या ठिकाना कि कब उठ खड़े हों। उनको कहीं स्थिर बैठना आता नहीं। उनकी खड़ाऊँ हिलने लगी है। दूसरे, ये लम्बी चुटिया वाले वीणाधारी विचित्र स्वभाव के हैं। इधर की उधर लगाने में, पहेली बुझाने में इन्हें आनंद आता है। क्या पता कब कह दें कि आगे की बात अपने-आप समझो। अभी सानुकूल हैं। अतएव अभी सीधे ही पूछ लेना अधिक उपयुक्त था।

“मेरे चाहने का कोई महत्व नहीं।” देवर्षि ने उलाहना नहीं दिया। वे प्रार्थना के स्वर में ही बोल रहे थे “आप सर्वज्ञ हैं; किंतु जीव इसे समझ नहीं पाते। उनके मध्य आप पधारो और स्वयं अपने व्यक्त दृगों से उन्हें देखो। वे आपके परम मंगलायतन स्वरूप का दर्शन करें। आपके व्यक्त सगुण साकार श्री विग्रह के रूचिर क्रीडा-विहारों का आधार मिले उनके चंचल चित्त को। तब कहीं माया भगवती भी कुछ संकुचित होंगी, कुछ कृपा करना आवेगा उन्हें।”

पीताम्बरधारी ने तनिक देखा निकुंचेश्वरी की ओर। तात्पर्य स्पष्ट था “इनकी छाया शक्ति ही माया है। आप इनसें क्यों नहीं कहते? ये नित्य प्रेमस्वरूपा-इन्हें तो स्नेह ही देना आता है!” देवर्षि ने अंजलि बांध कर मस्तक झुकाया “आपकी क्रीड़ा-प्रियता में बाधा न पड़ती; इन्होंने कहां कब उपेक्षा सीखी है किसी की। इनके स्मरण से माया का अंधकार तिरोहित होता है; किंतु जीवों का दुर्भाग्य, वे स्मरण ही कहां कर पाते हैं। उनके लिये स्मरण का स्पष्ट, व्यक्त, सुरम्य, आधार प्रदान करने आप स्वयं धरा पर पधारें देव!”

“आपकी इच्छा पूर्ण हो!” देवर्षि ने वीणा तब उठायी, जब सर्वेश्वर के श्री मुख से यह सुन लिया। “मैं बार-बार धरा पर गया और मैंने जीवों के कल्याण के साधन उन्हें प्रदान किये।” युगों के पश्चात देवर्षि फिर गोलोक पधारे थे और इस बार श्याम सुंदर स्वतः बता रहे थे “मानव कर्म में नित्य स्वतन्त्र है और वह उन्हीं कर्मों को प्रिय मानता है, जो उसके बंधन को और दृढ़ करते हैं। वह अपने क्लेश को बढ़ाने में लगा है। मेरी ओर देखने का तो जैसे उसके पास समय ही नहीं।”

“आपने महामत्स्य रूप धारण किया और मानव के एक आदि पुरूष को स्वतः श्री मुख से धर्म का उपदेश किया।” देवर्षि की वाणी में इस बार व्यंग्य था | मानव का दुर्भाग्य कि वह उस धर्म की ओर ध्यान नहीं देता और ध्यान नहीं देता प्रलयाब्धि विहारी महामत्स्य की ओर।”

“देवर्षि! मैं मत्स्यावतार, वाराहावतार या वामन अथवा नृसिंह अवतार की चर्चा नहीं कर रहा हूं।” श्री कृष्ण चन्द्र खुलकर हंसे “ये अवतार मनुष्यों के मध्य नहीं हुए और मानव इनमें आकर्षण न पाये तो उसे दोष देने के कारण नहीं है।”

“मनुष्य के कल्याण के लिये आप गृह त्यागी बने और नर-नारायण रूप से आपने दीर्घकालीन तपस्या की। कपिल रूप में आपने तत्व का प्रसंख्यान किया और तप का आदर्श स्वतः उपस्थित किया।” देवर्षि का स्वर परिवर्तित नहीं हुआ “कूर्म, यज्ञ, हयशीर्ष, मोहिनी अवतार की चर्चा आप करेंगे नहीं, क्योंकि वे भी मनुष्यों के मध्य नहीं हुए। यही अवस्था हंस, धन्वन्तरि-जैसे अवतारों की भी है और प्रभु! ऋषभ रूप से भी तप ही का आदर्श दिया आपने। मानव तप कर नहीं पाता। थोड़े से ऋषियों के वश का है तप। जहां वह अपने को समर्थ नहीं पाता, वहां से उदासीन तो होगा ही।”

“आप अपने को आौर अपने अग्रज सनकादि कुमारों को गणना में लेने वाले नहीं हैं। परशुराम का अवतार साधन प्रदान करने के लिये हुआ नहीं। आगे भी कल्कि अवतार प्रयोजन विशेष से होने हैं तथा ध्रुव के लिये अवतार की बात भी मैं नहीं करता।”

इस बार श्री भगवान का स्वर गम्भीर हो गया “आप चाहें तो कह सकते हैं कि पृथु के रूप में भी मैं सत्ययुग में धरा पर गया और यज्ञ का ही विशेष रूप से मैंने प्रतिपादन किया, किंतु मैंने त्रेता में मानव को सम्यक् आदर्श देने में कहां त्रुटि की देवर्षि? मैंने सम्पूर्ण मानव-चरित को क्या उचित रूप में अयोध्या में उपस्थित नहीं किया?”

“मन्दप्रज्ञ ही मर्यादा पुरूषोत्तम के मंगल चरित में त्रुटि देखते हैं!” देवर्षि के स्वर श्रद्धाभरित हुए “आप अनंत कृपा पयोधि हैं, इसीलिये तो यह जन इन श्री चरणों में पुनः जीवों पर कृपा याचना करने उपस्थित हुआ है।”

“तब आप चाहते हैं…..।” श्याम सुंदर की बात पूरी नहीं हुई। देवर्षि ने अंजलि बांध कर मस्तक झुकाया। “कलि-कलुष मानव को मर्यादा में रहने नहीं देता देव! आपके भुवन-पावन चरित उसे निर्मल करते हैं और आपका वह पावन ‘राम’ नाम निखिल पाप-ताप का विनाशक है। आपने मानव के मस्तक वर्गों के लिये सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान एवं साधन-प्रणाली अपने कृष्ण द्वैपायन रूप से सुगम कर दी है; किंतु….।” दो क्षण रूक कर पुनः बोले देवर्षि “यदि आप अपने इस त्रिभुवन मोहन रूप से पधारते! यदि अपने इन दिव्य चरितों को प्रकाशित करते धरा पर, जो श्रवण मात्र से चित्त को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं।”

“प्रेम मानव को श्री चरणों की ओर अधिक आकर्षित करता है मर्यादा की अपेक्षा और भक्ति देवी पर आपका सर्वाधिक अनुग्रह भी है।” देवर्षि ने इस बार श्री निकुंजेश्वरी के पाद-पंकजों की ओर मस्तक झुकाया “महाभाव का आलोक यदि एक बार धरा को धन्य कर जाता।”

“इसका अर्थ है कि अंश और कला का अवतरण देवर्षि को संतुष्ट नहीं कर सका है । आदर्श की मर्यादा से भी ये नित्य अवधूत कुछ अधिक चाहते हैं; किंतु महाभाव…..।” मयूर मुकुट का सर उन महाभाव की नित्यमूर्ति अपनी अभिन्न सहचरी की ओर झुका “वह तो अन्यत्र व्यक्त नहीं होता। उसका आलोक धरा पर यदि व्यक्त होता है, तो वह दूसरे में व्यक्त हो, यह कैसे हो सकता है? आप धरा पर पधारेंगी?”

“अस्वीकृति मैंने कभी सुनी नहीं।” देवर्षि बीच में ही बोले “अनंत स्नेह, अनंत कृपा और अनंत वात्सल्य जहां से शिशु पाता है, वहां उसकी याचना पूर्ण स्वीकृत ही रहती है।” ‘एवमस्तु’ सुनने की भी अपेक्षा देवर्षि ने नहीं की। वे वीणा करों में उठा चुके थे और उठ चुके थे आसन से। उनकी अंगुलियां वीणा के तारों से उल्लासपूर्ण झंकृति गुंजित करने लगी थीं। भला कहीं किसी की आकांक्षा इन चारू चरणों तक पहुंच कर भी कभी अपूर्ण रही है?

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