श्रीमद भागवत में एक कथा वर्णित है कि एक बार आततायी राजा कंस के भय से भयभीत होकर वसुदेव जी भगवान श्री कृष्ण को लेकर नन्द गोप यानी नन्द बाबा के घर में चल गये।
वहां पहुंचकर उन्होंने बालक श्री कृष्ण को यशोदा के समीप सुलाकर देवी यशोदा की कोख से आविर्भूत कन्या को लेकर मथुरा में चले आये और पूर्व – प्रतिज्ञा अनुसार उस कन्या को कंस सौंप दिया।
जब उस समय क्रूर कंस उस कन्या को मारने के लिये उद्यत हुआ , तब वह दिव्य कन्या उसके हाथ से छूटकर आकाश में एक विराट रूप में स्थित हो गयी।
विराट रूपा उन देवी योगमाया ने दिव्य वस्त्रालंकारों को धारण कर रखा था जिनके सभी आभूषण रत्नों से जटित थे। उनकी आठ भुजाएं थीं, जिनमें वे धनुष, बाण, त्रिशूल, ढाल, तलवार, शंख, चक्र तथा गदा धारण की हुई थीं।
आकाश में वे एक दिव्य तेजो मण्डल से घिरी हुई थीं। देवता, सिद्ध, गंधर्व, विद्याधर एवं ऋषि – महर्षि उनकी स्तुति करते हुए उन पर पुष्प वृष्टि कर रहे थे।
उनका वह विराट रूप देखना वसुदेव – देवकी के लिये तो अत्यन्त सौम्य तथा वरद था, किंतु कंस को वे साक्षात उसकी कालरूपा जैसी दिखाई पड़ रही थीं।
उन योगमाया ने आकाशवाणी में कहा “अरे मूर्ख कंस! तू मुझे क्या मारेगा ? तुझे मारने वाला तो दूसरी जगह पैदा हो गया है, अपना भला चाहता है तो भगवान की शरण में चला जा और अब निर्दोष बालकों की हत्या करना छोड़ दे”। यह कह कर देवी अन्तर्धान हो गयीं और विन्ध्य पर्वत पर जाकर स्थित हो गयीं।
भवगती नन्दा अथवा विन्ध्यवासिनी देवी भक्तों का सब प्रकार से कल्याण करने वाली हैं , इन्हें ‘कृष्णानुजा’ भी कहा गया है। वस्तुतः भवगती नन्दा ही भगवान की साक्षात योगमाया हैं जो सम्पूर्ण योगैश्वर्यों से सम्पन्न हैं। इनकी करूणा की कोई सीमा नहीं है। इनका वाहन सिंह समग्र धर्म का ही विग्रह रूप है।
अनंत कोटि ब्रह्माण्ड नायिका राजराजेश्वरी भगवती विन्ध्यवासिनी का स्थान विन्ध्य पर्वत पर है। यह देवी का जाग्रत शक्ति पीठ है। यहां देवी अपने समग्र रूप से प्रतिष्ठित हैं और महाकाली , महालक्ष्मी तथा महासरस्वती के त्रिकोण के रूप में पूजित होती हैं। इनकी भक्तिपूर्वक स्तुति और पूजा करने वालों के अधीन तीनों लोक हो जाते हैं, ऐसी कृपामयी देवी नन्दा को बार – बार नमन है।