“निरन्तर सांसारिक विषय-भोगों की अभिलाषा करने के कारण अपने वास्तविक श्रेय से चिरकाल तक बेसुध हुई जीवात्माओं को जिन्होंने करूणावश निर्भय आत्मलोक का उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होने वाले आत्मस्वरूप् की प्राप्ति से सब प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त थे, उन भगवान् ऋषभ देव को नमस्कार है” ।
महाराज आग्रीध्र के पुत्र महाराज नाभि का सबसे बड़ा दुःख यही था कि उनकी कोई संतान नहीं थी । इस कारण उन्होंने अपनी धर्मपत्नी मेरूदेवी के साथ पुत्र की कामना से यज्ञ प्रारम्भ किया । दिव्य तेजस्वी एवं ओजस्वी ऋत्विजनों ने श्रुति के मंत्रों से यज्ञपुरूष का स्तवन किया और शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी चतुर्भुज नारायण प्रकट हुए । उनके श्री अंगों की अदभुत शोभा थी ।
अनन्त, अपरिसीम सौन्दर्यसुधासिन्धु मंगलमय प्रभु विष्णु का दर्शन कर राजा, रानी और ऋत्विजों की प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं रही । सबने अत्यन्त श्रद्धा और भक्ति से प्रभु के चरण कमलों में सादर दण्डवत प्रणाम कर अघ्र्यादि के द्वारा उनकी विधिवत पूजा एवं वंदना की । “प्रभु ! राजर्षि नाभि और उनकी पत्नी मेरूदेवी आपके ही समान पुत्र चाहते हैं” ।
ऋत्विजों ने उनकी पूजा-अर्चना करने के बाद सभी की कामना स्पष्ट कर दी । “ऋषियों ! आप लोगों ने बड़ा दुर्लभ वर मांगा है” । श्री भगवान् ने मन्द-मन्द मुस्कराते हुए कहा । “मैं अद्वितीय हूँ । अतएव आप लोगों के वचन की रक्षा के लिये मैं स्वयं महाराज नाभि के यहाँ अवतरित होऊँगा, क्योंकि मेरे समान तो में ही हूँ, अन्य कोई नहीं” ।
इस प्रकार से कहकर भगवान् वहीँ अन्तर्धान हो गये और कुछ दिनों के बाद महाराज नाभि की परम सौभाग्यशालिनी पत्नी मेरूदेवी के गर्भ से परम तत्त्व प्रकट हुआ । नाभिनन्दन के अंग विष्णु के वज्र-वत्स आदि चिन्हों से युक्त थे । पुत्र के अत्यन्त सुन्दर सुगठित शरीर, कीर्ति, तेज, बल, ऐश्वर्य, यश, पराक्रम और शूरवीरता आदि गुणों को देखकर महाराज नाभि ने उसका नाम ‘ऋषभ’ रखा, जिसका अर्थ श्रेष्ठ होता है ।
महाराज नाभि, उन ऋषभ देव का पुत्रवत पालन करने लगे । अपने पुत्र को अतिशय प्यार से पुकारने तथा अंग में लेकर लाड़ लड़ाने से वे अत्यधिक आनन्द का अनुभव करने लगे | किंतु कुछ ही दिनों के बाद जब ऋषभ देव व्यस्क हो गये और महाराज नाभि ने देखा कि सम्पूर्ण राष्ट्र के नागरिक तथा मंत्री आदि सभी लोग ऋषभ देव को अतिशय आदर और प्रीति की दृष्टि से देखते हैं, तब उन्होंने ऋषभ देव को राज पद पर अभिषिक्त कर दिया और स्वयं अपनी धर्म पत्नी मेरूदेवी के साथ तप करने वन में चले गये ।
वे उत्तर दिशा में हिमालय के अनेक शिखरों को पार करते हुए गन्धमादन पर्वत पर भगवान् नर-नारायण के निवास स्थान बदरिकाश्रम में पहुँचे । वहाँ वे दोनों परम प्रभु के नर-नारायण रूप की उपासना एवं उनका चिन्तन करते हुए समयानुसार उन्हीं में विलीन हो गये । उधर शासन का दायित्व अपने कन्धे पर आ जाने के कारण ऋषभ देव ने मानवोचित्त कर्तव्य का पालन करना प्रारम्भ किया ।
उन्होंने गुरूकुल में कुछ काल रहकर वेद-वेदान्तों का अध्ययन किया और फिर अन्तिम गुरू दक्षिणा देकर व्रतान्तस्नान किया । इसके बाद वे राज-कार्य देखने लगे । ऋषभ देव राज्य का सारा कार्य बड़ी ही सावधानी एवं तत्परतापूर्वक देखते थे । उनकी राज्य-व्यवस्था और शासन प्रणाली सर्वथा अनुकरणीय और अभिनन्दनीय थी, एक प्रकार से एकदम आदर्श थी ।
ऋषभ देव जी के शासनकाल में इस देश का कोई भी पुरूष अपने लिये किसी से भी अपने प्रभु के प्रति दिन-दिन बढ़ने वाले अनुराग के सिवा और किसी वस्तु की कभी अभिलाषा नहीं करता था । यही नहीं, आकाश कुसुमादि अविद्यमान वस्तु की भाँति कोई किसी दूसरे की वस्तु की ओर दृष्टिपात भी नहीं करता था । सम्पूर्ण प्रजा ऋषभ देव को अत्यधिक प्यार करती एवं श्री भगवान् की तरह उनका आदर और सम्मान करती थी ।
यह देखकर शचीपति (इन्द्र)-के मन में बड़ी ईष्र्या हुई । उन्होंने सोचा “मैं त्रैलोक्यपति हूँ, वर्षा के द्वारा सबका भरण-पोषण करता और सबको जीवन-दान देता हूँ, फिर भी प्रजा मेरे प्रति इतनी श्रद्धा नहीं रखती । इसके विपरीत धरती का एक नरेश इतना लोकप्रिय क्यों है? उसे प्रजा परमेश्वर की भाँति क्यों पूजती हैं? मैं इस नरपति का प्रभाव देखता हूँ” ।
तब देवराज इन्द्र ने ईर्ष्यावश एक वर्ष तक समूचे देश में वर्षा बन्द कर दी । भगवान् ऋषभ देव ने शची-पति की ईष्र्या-द्वेष की वृत्ति और अहंकार को समझकर योगबल से सजल-घने बादलों की सृष्टि की । पूरा आकाश काले मेघों से आच्छादित हो गया और पृथ्वी पर जल-ही-जल हो गया । समस्त देश की भूमि शस्यश्यामला बन गयी । सुरेश्वर का घमंड उतर गया ।
उन्होंने भगवान् ऋषभ देव के प्रभाव को समझ लिय । फिर तो उन्होंने धरती पर आ कर ऋषभ देव की स्तुति की और अपनी पुत्री जयन्ती का विवाह उनके साथ कर दिया (उस समय तक देवताओं की संताने हुआ करती थी) । ऋषभ देव ने लोक-मर्यादा की रक्षा के लिये गृहस्थ आश्रम-धर्म का पालन किया और उनसे सौ पुत्र उत्पन्न हुए । उनमें सबसे बड़े, सर्वाधिक गुणवान एवं महायोगी भरतजी थे ।
वे इतने प्रतापी नरेश हुए कि उन्हीं के नाम पर इस देश, जिसका नाम उस समय अजनाभ खण्ड था, का नाम ‘भारतवर्ष’ प्रख्यात हुआ । राजकुमार भरत से छोटे कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इन्द्रस्पृक, विदर्भ और कीकट-ये नौ राजकुमार भारत वर्ष में ही पृथक-पृथक देशों के प्रजापालक नरेश हुए । ये सभी नरेश तपस्वी, धर्माचरण सम्पन्न एवं भगवद भक्त थे ।
इनके देश इन्हीं राजाओं के नाम से विख्यात हुए । इन दस राजकुमारों से छोटे, जो अन्य ऋषभ देव जी के पुत्र थे उनमे कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, अविर्होत्र, दु्रमिल, चमस और करभाजन-ये नौ राजकुमार बाल ब्रह्मचारी, भागवत धर्म का प्रचार करने वाले एवं बड़े भक्तवद भक्त थे । ये योगी एवं सन्यासी हो गये ।
इनसे छोटे महाराज ऋषभ देव के इक्यासी पुत्र वेदज्ञ, कर्मकाण्डी, सदाचारी, मातृ-पितृभक्त, विनीत, शान्त तथा महान थे । वे निरन्तर यज्ञ, देवार्चन एवं पुण्य कर्मों के करने से ब्राह्मण हो गये और उनसे ब्राह्मणों के वंश चले । एक बार की बात है । महाराज ऋषभ देव जी भ्रमण करते हुए गंगा-यमुना के बीच की पुण्यभूमि ब्रह्मावर्त में थे । वहाँ उन्होंने प्रख्यात महर्षियों के समुदाय के साथ अपने अत्यन्त विनयी एवं शीलवान पुत्रों को भी बैठे देखा ।
उस सुअवसर से लाभ उठाकर भगवान् ऋषभ देव जी ने अपने पुत्रों के फिर से जगत के लिये अत्यन्त कल्याण कारी उपदेश दिया । ऋषभ देव जी ने कहा “पुत्रों ! इस मृत्युलोक में यह मनुष्य-शरीर दुःखमय विषय भोग प्राप्त करने के लिये ही नहीं है । ये भोग तो विष्ठा भोजी सूकर-कूकरादि को भी मिलते ही हैं । इस शरीर से दिव्य तप के कर्म करने चाहिये, जिससे अन्तःकरण शुद्ध हो, क्योंकि इसी से अनन्त ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है” ।
“मनुष्य अपने प्रमादवश कुकर्म में प्रवृत्त होता है । जब तक मनुष्य श्री हरि के चरणों का आश्रय नहीं लेता, उन्हीं का नहीं बन जाता, तब तक उसे जन्म-जरा-मरण से त्राण नहीं मिल पाता । अतः प्रत्येक माता-पिता एवं गुरू का परम पुनीत कर्तव्य है कि वह अपनी संतति एवं शिष्य को विषयासक्ति एवं काम्य कर्मा से सर्वथा पृथक रहने की ही सीख दे” ।
फिर संसार की नश्वरता एवं भगवद भक्ति का माहात्म्य बताते हुए श्री ऋषभ देव जी ने कहा-“जो अपने प्रिय सम्बन्धी को भगवद भक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फाँसी से नहीं छुड़ाता, वह गुरू गुरू नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं है, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है ।
पुत्रों ! तुम सम्पूर्ण चराचर भूतों को श्री हरि का ही शरीर समझकर शुद्ध बुद्धि से पग-पग पर उनकी सेवा करो, यही उनकी सच्ची पूजा है” । अपने सुशिक्षित एवं भक्त पुत्रों के फिर से जगत के उपदेश देकर ऋषभ देव जी ने अपने बड़े पुत्र को समूचे देश के राज-पद पर अभिषिक्त कर दिया और स्वयं विरक्त-जीवन का आदर्श प्रस्तुत करने के लिये राजधानी से बाहर वन में चले गये ।
भगवान् ऋषभ देव जी सर्वथा ज्ञानस्वरूप थे, किंतु लोक दृष्टि से प्राणियों को शिक्षा देने एवं परमहंस्य धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिये उन्होंने उन्मत्तों का वेष धारण कर लिया । ब्रह्मावर्त से बाहर जाने पर उनका मुँह जिधर उठा, उसी ओर चल देते । बुद्धि के आगार होने पर भी मूर्खों-जैसा उनका आचरण होने लगा । वे किसी के प्रश्न का उत्तर न देकर जी में आता दौड़ने लगते ।
लड़के पीछे-पीछे तालियाँ बजाते, इन्हें चिन्ता नहीं होती । जहाँ कोई कुछ दे देता, पेट में डाल लेते, पर किसी से माँगते न थे । ऋषभ देव जी सर्वथा दिगम्बर होकर विचरण करने लगे । उनकी उच्चतम स्थिति को न समझ कर कितने ही दुष्ट उन पर दण्ड-प्रहार कर बैठते । कितने गालियाँ देते और कितने उन परम पुरूष पर थूक देते । कुछ कंकड़-पत्थर मारते तो कुछ उनके ऊपर लघुशंका अथवा मल त्याग तक कर देते ।
पर शरीर के प्रति अनासक्ति और मैं-पनका भाव न होने के कारण ऋषभ देव जी कुछ नहीं बोलते । सर्वथा शान्त और मौन रहकर अपनी राह आगे बढ़ जाते । ऋषभ देव जी की धूलि से लिपटी काया एवं रूखे बालों की उलझी लटें तथा पागल-जैसा वेष भी अत्यन्त मनोहर एवं चित्त आकर्षक प्रतीत होता था । अब वे अवधूत-वृत्ति के बाद अजगर-वृत्ति से रहने लगे । उन्हें मनुष्यता का अभिमान विस्मृत हो गया ।
अब उनको कोई खाने को दे देता तो खा लेते, अन्यथा उनके द्वारा भोजन की कोई चेष्टा नहीं होती थी । वे पशुओं की तरह पानी पी लेते । पशुओं की ही भाँति जहाँ होता, लेटे-ही-लेटे मल-मूत्र का त्याग कर देते । मल को अपने सारे शरीर में पोत लेते, किंतु उनके मल से अत्यन्त अलौकिक सुगन्ध निकलती थी, जो दस-दस योजन तक फैल जाती थी ।
इस प्रकार मोक्षपति भगवान् ऋषभ देव अनेक प्रकार की योगचर्याओं का आचरण करते हुए निरन्तर आनन्दमग्न रहते थे । प्रभु का यह जीवन आचरण के योग्य नहीं था, यह तो अवस्था थी । यह स्थिति शास्त्र से परे है ।
जब भगवान् ऋषभ देव संसार की असारता का पूर्णतया अनुभव कर जीवन उन्मुक्त अवस्था का आनन्द-लाभ कर रहे थे, उसी समय समस्त सिद्धियों ने उनकी सेवा में उपस्थित होकर उन्हें कैंकर्यावसर प्रदान करने की प्रार्थना की, पर उन्हें स्वीकार करना तो दूर, ऋषभ देव जी ने मुस्कराते हुए उन्हें तत्काल वहाँ से चले जाने की आज्ञा दे दी । सर्वसमर्थ भगवान् ऋषभ देव जी को सिद्धियों की आवश्यकता भी क्या थी? वे तो सिद्धों के सिद्ध, महासिद्ध थे ।
सिद्धियाँ तो उनकी चरण-धूलि का स्पर्श प्राप्त करने के लिये लालायित रहतीं, व्याकुल रहती, पर वह पुण्यमयी धूलि-सुर-मुनिवन्दित रज उन्हें मिल नहीं पाती थी । साथ ही साधकों, भक्तों एवं योगाभ्यासियों के सम्मुख उन्हें आदर्श भी उपस्थित करना था । मन बड़ा चंचल होता है । इसे तनिक भी सुविधा देने, इसकी ओर से तनिक भी असावधान होने से यह काण्ड कर बैठता है, पतन के महागर्त में ढकेल देता है ।
‘काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और भय आदि शत्रुओं का तथा कर्म-बंधन का मूल तो यह मन ही है, इस पर कोई भी बुद्धिमान कैसे विश्वास कर सकता है?’ इसी कारण भगवान् ऋषभ देव ने साक्षात पुराणपुरूष आदिनारायण के अवतार होने पर भी अपने ईश्वरीय प्रभाव को छिपाकर अवधूत का-सा, मोक्ष की प्राप्ति कराने वाले पारमहंस्य-धर्म का आचरण किया ।
ज्ञानी तो अपनी योग-दृष्टि से उन्हें ईश्वर का अवतार समझते थे, किंतु सर्वसाधारण को उनके वास्तविक स्वरूप का तनिक भी परिचय होना कठिन था । संकल्प-शून्य होकर उनका शरीर प्रारब्धवश पृथ्वी पर डोल रहा था । इस प्रकार वे दिगम्बर-वेष में कोड़कत्र वेड़क, कुटक और कर्णाटक आदि दक्षिण-देश में मुँह में पत्थर दबाये घूमते रहे ।
उन्मत्तता की स्थिति में वे कुटकाचल के निर्जन वन में विचरण कर रहे थे । अब ऋषभ देव जी को पांचभौतिक शरीर त्याग देने की इच्छा हुई । एक दिन सहसा प्रबल झंझावत से घर्षण के कारण वन के बाँसों में आग लग गयी औैर वह आग अपनी लाल-लाल लपटों से सम्पूर्ण वन को भस्मसात् करने लगी । ऋषभ देव जी भी वहीं विद्यमान थे ।
उनकी शरीर में तनिक भी आसक्ति और मोह होता तो उसकी रक्षा के लिये उद्योग करते, किंतु उनकी तो सर्वत्र समबुद्धि थी । अतएव वे चुपचाप बैठे रहे और उनका नश्वर शरीर अग्नि की भयानक ज्वाला में जल कर भस्म हो गया । भगवान् का यह अवतार रजोगुण से भरे हुए लोगों को मोक्षमार्ग की शिक्षा देने के लिये ही हुआ था ।