समूची पृथ्वी के एक तत्व में विलीन हो जाने पर, अपनी विद्या शक्ति से सम्पन्न भगवान् विष्णु योग निद्रा का आश्रय लेकर शेषनाग पर शयन कर रहे थे । शयन समाप्त होने पर प्रभु की नाभि से सहस्र दलों वाला कमल प्रकट हुआ । उस सहस्रदल कमल पर सम्पूर्ण लोकों के पितामह, लोकस्रष्टा, ब्रह्माण्ड के रचयिता, भगवान् हिरण्यगर्भ व्यक्त हुए । परम तेजस्वी ब्रह्मा ने दृष्टिपात किया तो चारो तरफ जल-ही-जल था ।
जिस कमल पत्र पर लोकपितामह बैठे थे, उस पर महाविष्णु श्री नारायण की प्रेरणा से पहले से ही रजोगुण और तमोगुण की प्रतीक जल की दो बूँदें पड़ी थी । उनमें से एक बूँद पर आद्यन्तहीन श्री भगवान् की दृष्टि पड़ी तो वह तमोमय मधु नामक दैत्य के रूप में बदल गयी । वह दैत्य मधु के रंग का अत्यन्त सुन्दर था ।
जल की दूसरी बूँद, भगवान् के इच्छानुसार दूसरे अत्यन्त शक्तिशाली एवं पराक्रमी दैत्य के रूप में व्यक्त हुई । उसका नाम ‘कैटभ’ पड़ा । दोनों ही दैत्य अत्यन्त वीर एवं बलवान थे । कमल-नाल के सहारे वे दोनों दैत्य वहाँ पहुँच गये, जहाँ अत्यन्त तेजस्वी ब्रह्मा जी बैठे हुए थे । उस समय लोक-पितामह सृष्टि-रचना में तल्लीन थे और उनके समीप ही अत्यन्त सुन्दर स्वरूप धारण किये हुए चारों वेद थे ।
उन महाबली, महाकाय, श्रेष्ठ दैत्यों की दृष्टि वेदों पर पड़ते ही उन्होंने वेदों का अपहरण कर लिया । श्रुतियों को लेकर वे पूर्वोत्तर महासागर में प्रविष्ट होकर, ब्रह्माण्ड में नीचे की तरफ, रसातल में पहुँच गये । “वेद ही मेरे नेत्र, वेद ही मेरी अदभुत शक्ति, वेद ही मेरे परम आश्रय एवं वेद ही मेरे उपास्य देव हैं” । श्रुतियों को अपने समीप न देखकर ब्रह्मा जी अत्यन्त दुःखी होकर मन-ही-मन विलाप करने लगे ।
“वेदों के नष्ट हो जाने से आज मुझ पर भयानक विपत्ति आ पड़ी है । इस समय कौन मेरा दुःख दूर करेगा? वेदों का उद्धार कौन करेगा?’ फिर उन्होंने सर्वान्तर्यामी और सर्वसमर्थ श्री नारायण से प्रार्थना की । ब्रह्मा जी ने कहा “कमल नयन ! आपका पुत्र मैं शुद्ध सत्त्व्मय शरीर से उत्पन्न हुआ हूँ । अप ईश्वर, स्वभाव, स्वयम्भू एवं पुरूषोत्तम हैं ।
आपने मुझे वेदरूपी नेत्रों से युक्त बनाया हैं आपकी ही कृपा से मैं कालातीत हूँ, अर्थात मुझ पर काल का वश नहीं चलता । मेरे नेत्ररूप वे वेद दानवों द्वारा हर लिये गये हैं, अतः मैं अन्धा-सा हो गया हूँ । प्रभो ! निद्रा त्याग कर जागिये । मुझे मेर नेत्र वापस दीजिये, क्योकि मैं आपका प्रिय भक्त हूँ और आप मेरे प्रियतम स्वामी हैं” ।
हिरण्य गर्भ की यह श्रद्धा-भक्तिपूर्ण करूण स्तुति सुनकर देव देवेश श्री नारायण तत्क्षण अपनी निद्रा त्यागकर जग गये । श्रुतियों का उद्धार करने के लिये वे सर्वात्मा परम प्रभु अत्यन्त सुन्दर एवं कान्तिमान हयग्रीव के रूप में प्रकट हुए । विष्णु जी ने विचित्र रूप बनाया | उनकी गर्दन और मुख आकृति घोड़े की-सी थी । उनका वह परम पवित्र मुखारविन्द वेदों का आश्रय था ।
तारकखचित स्वर्ग उनका मस्तक था और अंशुमाली की रश्मियों के सामान उनके बाल चमक रहे थे । आकाश-पाताल उनके कान, पृथ्वी ललाट, गंगा और सरस्वती उनके नितम्ब तथा दो सागर उनके भ्रू थे। सूर्य और चन्द्र उनके नेत्र, संध्या नासिका, ओंकार संस्कार (आभूषण) और विद्युत जिव्हा थी । ब्रह्मलोक उनके ओष्ठ तथा काल रात्रि उनकी गर्दन थी ।
वहाँ भगवान् श्री हयग्रीव ने सामगान का सस्वर गान शुरू किया । भगवान् की लोकोपकारिणी मधुर ध्वनि रसातल में सर्वत्र फैल गयी । मधु और कैटभ दोनों दैत्यों ने भी सामगान का वह चित्त आकर्षक स्वर सुना तो उन्होंने वेदों को कालपाश में बाँधकर रसातल में फेंक दिया और उक्त मंगलकारिणी मधुर ध्वनि की ओर दौड़ पड़े ।
भगवान् हयग्रीव ने अच्छा अवसर देखा । उन्होंने तुरंत वेदों को रसातल से निकालकर ब्रह्मा को दे दिया और पुनः महासागर के पूर्वोत्तर भाग में वेदों के आश्रय अपने हयग्रीव की स्थापना कर पुनः पूर्वरूप धारण कर लिया । भगवान् हयग्रीव के रूप में वहीं रहने लगे । मधु और कैटभ ने देखा, जहाँ से मधुर ध्वनि आ रही थी, वहाँ तो कुछ भी नहीं है । अतएव वे पुनः बड़े वेग से रसातल में पहुँचे ।
वहाँ वेदों को न पाकर वे अत्यन्त आश्चर्यचकित एवं क्रुद्ध हुए । शत्रु को ढूँढने के लिये वे दोनों दैत्य तत्काल अत्यन्त शीघ्रता से रसातल के ऊपर पहुँचे तो वहाँ उन्होंने देखा कि महासागर की विशाल लहरों पर चन्द्रमा के तुल्य गौर वर्ण के सुन्दरतम भगवान् श्री नारायण शेषनाग की शय्या पर अनिरूद्ध-विग्रह में शयन कर रहे हैं । “निश्चय ही इसी ने रसातल से वेदों को चुराया है” ।
दैत्यों ने अटटहास करते हुए कहा । “पर यह है कौन? किसका पुत्र है? यहाँ कैसे आया? और यहाँ सर्प शय्या पर क्यों शयन कर रहा है?” मधु-कैटभ ने अत्यन्त कुपित होकर भगवान् श्री नारायण को जगाया । त्रैलोक्य सुन्दर विष्णु ने नेत्र खोलकर चारों ओर देखा तो उन्होंने समझ लिया कि ये दैत्य युद्ध करने के लिये कटिबद्ध हैं । भगवान् उठे और उनका मधु और कैटभ दोनो महान दैत्यों से भयानक संग्राम छिड़ गया ।
श्री विष्णु का उन अत्यनत पराक्रमी दैत्यों से पाँच सहस्र वर्षों तक केवल बाहुयुद्ध चलता रहा । वे अपनी महान शक्ति के मद से उन्मत्त तथा श्री भगवान् की महामाया से मोह में पड़ हुए थे । उनकी बुद्धि भ्रमित हो गयी । तब हँसते हुए श्री हरि ने कहा “अब तक मैं कितने ही दैत्यों से युद्ध कर चुका हूँ, किंतु तुम्हारी तरह शूर-वीर मुझे कोई नहीं मिले ।
मैं तुम लोगों के युद्ध-कौशल से अत्यन्त प्रसन्न हूँ । तुम लोग कोई इच्छित वर माँग लो” । श्री भगवान् की वाणी सुनकर अंहकार के साथ दैत्यों ने कहा “विष्णो ! तमुसे याचना क्या करें? तुम हमें क्या दोगे?” वे भगवान् विष्णु से कहने लगे “हम तुम्हारी वीरता से अत्यन्त संतुष्ट हैं । तुम हम लोगों से कोई वर माँग लो” । श्री भगवान ने कहा “यदि तुम दोनों मुझ पर प्रसन्न हो तो अब मेरे हाथ से मारे जाओ । बस, इतना-सा ही मैंने वर माँगा है ।
इस समय दूसरे किसी वर से मुझे क्या लेना है?” “हम तो ठगे गये” । भगवान् विष्णु की वाणी सुन अचंभित होकर दैत्यों ने देखा, सर्वत्र जल-ही-जल है । तब उन्होंने श्री भगवान् से कहा “जनार्दन ! तुम देवताओं के स्वामी हो । तुम मिथ्या भाषण नहीं करते । पहले तुमने ही हमें वर देने के लिये कहा था । इसलिये तुम भी हमारा अभिलषित वर दे दो” ।
अत्यन्त उदास होकर दैत्यों ने श्री भगवान् से निवेदन किया “जहाँ पृथ्वी जल में डूबी हुई न हो, यानि जहाँ सूखा स्थान हो, वहीं हमारा वध करो” । “भाई ! जलशून्य स्थान पर ही मैं तुम्हें मार रहा हूँ” । श्री भगवान् विष्णु ने सुदर्शन चक्र को स्मरण किया और अपनी विशाल जाँघों को जल पर फैलाकर मधु-कैटभ को जल पर ही स्थल दिखला दिया और हँसते हुए उन्होंने दैत्यों से कहा “इस स्थान पर जल नहीं हैं, तुम लोग अपना मस्तक रख दो ।
आज से मैं भी सत्यवादी रहूँगा और तुम भी” । कुछ देर तक मधु और कैटभ दोनों महा दैत्य भगवान् की वाणी की सत्यता पर विचार करते रहे । फिर उन्होंने भगवान् की दोनों सटी हुई विशाल एवं विचित्र जाँघों पर चकित होकर अपना मस्तक रख दिया और श्री भगवान् ने तत्काल अपने तीक्ष्ण चक्र से उन्हें काट डाला । दैत्यों का प्राणान्त हो गया और उनके चार हजार कोस वाले विशाल शरीर के रक्त से सागर का सारा जल लाल हो गया ।
इस प्रकार वेदों से सम्मानित और श्री भगवान् नारायण से सुरक्षित होकर लोकस्रष्टा ब्रह्मा सृष्टि-कार्य में जुट गये । दूसरे कल्प में प्रख्यात दितिपुत्र हयग्रीव सुन्दर, बलवान एवं परम-पराक्रमी था । उसकी भुजाएँ विशाल थीं । वह पुण्यतोया सरस्वती नदी के पावन तट पर उपवास करता हुआ करूणामयी जगदीश्वरी के मायावी एकाक्षर मंत्र का जप करने लगा ।
उसने इन्द्रियों को वश में करके सम्पूर्ण भोगों को त्याग दिया था । वह महान दैत्य एक हजार वर्ष तक श्री जगदम्बा की तामसी शक्ति की आराधना करता हुआ उग्र तप करता रहा । “सुब्रत ! वर माँगो” । करूणामयी सिंह वाहिनी ने प्रत्यक्ष दर्शन देकर हयग्रीव से कहा । “तुम्हारी जो इच्छा हो, माँग लो । मैं उसे देने के लिये तैयार हूँ” ।
“सृष्टि-स्थिति-संहारकारिणी कल्याणमयी देवी” ! प्रेम से पुलकित नेत्रों में अश्रु भरे हयग्रीव ने भगवती जगदम्बा की स्तुति की “आप के चरणों में प्रणाम है । पृथ्वी पर, आकाश में और जहाँ-कहीं जो कुछ है, वह सब आपसे ही उत्पन्न हुआ है । आप दयामयी हैं । आपकी महिमा का पार पाना सम्भव नहीं” । “तुम इच्छित वर मांग लो” ! त्रैलोक्येश्वरी भगवती ने हयग्रीव से पुनः कहा ।
“तुमने अदभुत तप किया है । मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ । तुम अभिलाषित वर माँग लो” । “माता ! मुझे मृत्यु का मुख न देखना पड़े” । हयग्रीव ने कृपामयी आराध्या से निवेदन किया । “मेरी कामना है कि मैं अमर योगी बन जाऊँ” । “दैत्यपते ! जन्म के बाद मृत्यु सुनिश्चित है” । देवी ने कहा । “ऐसी सिद्ध मर्यादा जगत में कैसे व्यर्थ की जा सकती है? मृत्यु के सम्बन्ध में इस नियम को स्पष्ट समझकर इच्छित वर माँग लो” ।
“अच्छा, मैं हयग्रीव के द्वारा ही मारा जाऊँ” । हयग्रीव ने अपनी समझ से बुद्धिमानी की । वह स्वयं अपने को क्यों मारेगा? उसने दयामयी माँ से निवेदन किया “कोई दूसरा मुझे न मार सके” । “तथास्तु” देवी ने कहा । “हयग्रीव के अतिरिक्त तुम्हें और कोई नहीं मार सकेगा । अब तुम घर लौटकर सानन्द राज्य करों” । जगदम्बा वहीं अंतर्ध्यान हो गयीं और दैत्यराज हयग्रीव भी आनन्द मग्न हो अपने घर लौट गया ।
फिर तो उसने अनेक उपद्रव करने प्रारम्भ किये । ऋषियों-मुनियों को वह पीड़ित करने लगा । अनेक प्रकार से वह वेदों को सता रहा था । अपनी बुद्धि से अमरता के लिये आश्वस्त अत्यन्त शूर-वीर हयग्रीव अपनी असुरता अक्षरशः चरितार्थ कर रहा था । सत्पुरूष एवं देवता उससे त्रस्त एवं व्याकुल थे, पर उसे पराजित करना या उसे मार डालना किसी के वश की बात नहीं थी ।
हयग्रीव सर्वथा निश्चिन्त, निस्संकोच धर्मध्वंस कर रहा था । पृथ्वी व्याकुल हो गयी । अन्ततः भगवान् श्री हरि वेदों, भक्तों एवं धर्म के त्राण तथा अधर्म का नाश करने के लिये हयग्रीव के रूप में प्रकट हुए । श्री हरि का वह हयग्रीव रूप अत्यन्त तेजस्वी एवं मनोहर था । उनकी शक्ति और सामर्थ्य का कोई पार नहीं था । वे असीम बलशाली एवं परम पराक्रमी थे ।
उनके अंग-अंग से तेज छिटक रहा था । अत्यन्त अभिमानी एवं देवताओं के शत्रु दैत्य हयग्रीव का परम प्रभु श्री हयग्रीव से युद्ध छिड़ गया । बड़ा ही भयानक संग्राम था वह । दीर्घकाल तक युद्ध करता हुआ वह असुर हयग्रीव परम मंगलमय भगवान् श्री हयग्रीव के द्वारा मारा डाला गया । ब्रह्मादि देव-समुदाय प्रभु श्री हरि की जय-जयकार करने लगा ।