ईसा के पूर्व सातवीं शताब्दी में, दक्षिण के केरल प्रान्त में पूर्णा नदी के तट पर कलादि नामक गांव में एक विद्वान एवं धर्मनिष्ठ ब्राह्मण श्री शिवगुरू एवं उनकी पतिव्रता पत्नी सुभद्रा देवी रहतीं थीं। यह दम्पति वृद्धावस्था के निकट आने के कारण चिन्तित रहते थे , क्योंकि वे निःसंतान था।
शंकराचार्य जी का जन्म
ऐसे में श्री शिवुगुरू ने पुत्र प्राप्ति हेतु बड़ी श्रद्धा एवं भक्ति से भगवान शंकर की आराधना प्रारम्भ की अतः उनकी श्रद्धापूर्ण आराधना से संतुष्ट होकर देवाधि देव भगवान आशुतोष प्रकट हुए एवं अपने अंश से पुत्र प्राप्त होने का वर दिया, जिसकी आयु मात्र सोलह वर्ष ही होनी थी।
इस वर के परिणामस्वरूप माता सुभद्रा के गर्भ से वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन भगवान शंकर बालरूप में प्रकट हुए। उस बालक का नाम भी शंकर ही रखा गया। बालक शंकर के तीन वर्ष पूर्ण होने पर उनके पिता ने उनका चूडाकर्म – संस्कार किया, किंतु तभी श्री शिवगुरू काल – कवलित हो गये।
श्री शंकर जब पांच वर्ष के हुए तब यज्ञोपवीत करा कर इन्हें विद्याध्ययन हेतु गुरू के घर भेजा गया। वहां दो वर्ष के अंदर ही षडंग सहित वेदों का अध्ययन पूर्ण कर घर वापस आ गये। इनकी अलौकिक प्रतिभा देखकर सभी अचम्भित रह गये।
शंकराचार्य जी ने जब सन्यास लिया
विद्याध्ययन के बाद ही श्री शंकर ने माता के समक्ष सन्यास लेने की इच्छा प्रकट की, किंतु माता ने आज्ञा नहीं दी। श्री शंकर मातृ भक्त थे, वे उनकी इच्छा के बिना सन्यास नहीं लेना चाहते थे।
एक दिन श्री शंकर माता के साथ नदी तट पर गये, वहां स्नान करते समय एक ग्राह ने उनका पैर पकड़ लिया तब पुत्र के प्राण संकट में देख कर माता सहायता के लिये चिल्लाने लगीं।
तभी शंकर ने माता से कहा “यदि आप सन्यास लेने की आज्ञा दें तो यह ग्राह मुझे छोड़ देगा।” माता ने तुरंत ‘ हां ’ कर दी। हां कहते ही ग्राह ने शंकर का पैर छोड़ दिया।
इस प्रकार लगभग आठ वर्ष की अवस्था में उन्होंने गृह त्याग दिया। जाते समय माता ने उनसे यह वचन लिया कि उनके अंतिम समय में वे अवश्य उपस्थित होंगे। ऐसा कहा जाता है कि ग्राह के रूप में स्वयं भगवान शंकर ही आये थे।
घर छोड़ने के बाद श्री शंकर नर्मदा तट पर स्थित स्वामी गोविन्द भगवत्पाद के आश्रम में आये एवं उनसे दीक्षा ग्रहण की। यहां गुरू ने इनका नाम भगवत्पूज्यपादाचार्य रखा। अल्प काल में ही शंकर ने गुरू के निर्देशन में योग सिद्ध कर लिया। इनकी योग्यता से प्रसन्न होकर गुरू ने इन्हें काशी जाने एवं वेदान्त – सूत्र पर भाष्य लिखने की आज्ञा दी।
काशी आने पर श्री शंकर की ख्याति सर्वत्र फैलने लगी अतः लोक इनका शिष्यत्व ग्रहण करने लगे। इनके सर्वप्रथम शिष्य सनन्दन हुए, जो पद्मपादाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। काशी में श्री शंकर शिष्यों को पढ़ाने के साथ साथ भाष्य भी लिख रहे थे।
शंकराचार्य जी का वेदव्यास जी से शास्त्रार्थ
एक दिन भगवान विश्वनाथ ने इन्हे चाण्डाल के रूप में दर्शन देकर इन्हें ब्रह्म सूत्र पर भाष्य लिखने एवं सनातन धर्म के प्रचार का आदेश दिया। एक दिन गंगा तट पर एक ब्राह्मण के साथ वेदान्त – सूत्र पर शास्त्रार्थ हो गया और यह शास्त्रार्थ आठ दिन तक चला। तभी उन्हें ज्ञात हुआ कि ये ब्राह्मण स्वयं वेदव्यास हैं तो श्री शंकर ने उनसे क्षमा मांगी।
श्री वेदव्यास जी ने प्रसन्न होकर इनकी आयु बत्तीस वर्ष की कर दी। इसके बाद उन्होंने भारत के विभिन्न क्षेत्रों की यात्रा की एवं वर्णाश्रम के विरोधी मतवादियों को शास्त्रार्थ में परास्त किया तथा ब्रह्म सूत्र भाष्य एवं अन्य कई ग्रन्थों का लेखन किया।
तदनन्तर उन्होंने प्रयाग आकर कुमारिलभटट से भेंट की तथा शास्त्रार्थ करने का प्रस्ताव रखा। उस समय कुमारिलभटट अपने बौद्ध गुरू से द्रोह करने के कारण आत्मदाह कर रहे थे। उन्होंने श्री शंकर को माहिष्मतीपुरी जाकर मण्डन मिश्र के साथ शास्त्रार्थ करने का आदेश दिया।
शंकराचार्य जी का मण्डन मिश्र एवं उनकी पत्नी भर्ती मिश्र से शास्त्रार्थ
मण्डन मिश्र एवं श्री शंकर के शास्त्रार्थ की मध्यस्थ मण्डन मिश्र की पत्नी भारती थीं। श्री शंकर ने उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित किया तभी श्रीमती भारती मिश्र ने उनसे कामशास्त्र से संबंधित प्रश्न किया, उसके उत्तर के लिये श्री शंकर ने कुछ समय का अवकाश लेकर योगबल से एक मृत व्यक्ति के शरीर में प्रवेश किया एवं कामशास्त्र का अध्ययन किया।
तदनन्तर भारती मिश्र को उनके प्रश्न का उत्तर दिया। अंत में मण्डन मिश्र ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। उनका नाम सुरेश्वरचार्य रखा गया। श्री शंकर ने कई मठों एवं मंदिरों की स्थापना की, जिनके माध्यम से उनके शिष्य औपनिषद सिद्धांत की शिक्षा देने लगे।
भगवत्पाद आद्य शंकराचार्य जहां निर्गुण, निराकार ब्रह्म और ज्ञानस्वरूप के निरूपण में स्वयं अद्वितीय ज्ञान के रूप् में प्रतिभासित होते दीखते हैं, वहीं सगुण – साकार देवतत्त्व की प्रतिष्ठा में उनकी भक्ति विषयक आस्था ही सर्वोपरि दीखती है।
शंकराचार्य जी की ग्रन्थ कृतियां
आपका सर्ववेदान्त सिद्धांत संग्रह सभी ग्रंथों से बड़ा है, वह समस्त सूक्ष्म तत्वों के विवेचना सहित देवता, आत्मा और परमात्मा आदि के निरूपण में पर्यवसित है। इसी प्रकार विवेक चूड़ामणि, प्रमाण पंचक, शतश्लोकी, उपदेश साहस्री, आत्मबोध, तत्व बोध, ब्रह्माूसत्र भाष्य ( शारीरिक भाष्य ), उपनिषदों के भाष्य आदि ग्रंथ अद्वैत की प्रतिष्ठा के प्रमापक ग्रंथ हैं।
आचार्य चरण ब्रह्मसूत्र के देवताधिकरण में भगवान वेदव्यास के सूत्रों की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रुति – स्मृति आदि शब्द प्रमाणों से सिद्ध होता है कि परब्रह्म की सगुण – साकार सत्ता भी है।
देवावतारों में एक ही साथ अनेक रूप प्रतिपत्ति की सामर्थ्य होती है ‘विरोधः कर्मणीति चेन्नानेकप्रतिपत्तेर्दर्शनात् ’ ( ब्रह्मसूत्र , देवता0 सू0 27 )। आचार्य बताते हैं कि देवताओं में एक ही समय में अनके रूप धारण कर सर्वत्र व्याप्त रहने और प्रकट होकर भक्त का इष्ट साधन करने की सामर्थ्य रहती है।
यह सिद्धि तो प्रायः योगियों में भी देखी जाती है फिर जन्मजात देवताओं की क्या बात है? ‘किमु वक्तव्यमाजानसिद्धानां देवानाम्।’ देवताओं के अस्तित्व और अवतरण सिद्धांत को सिद्ध करने के लिये आचार्य ने श्रीमद भगवदगीता के ‘नाभावो विद्यते सतः’ (2।16) इस श्लोक के भाष्य से इस दृश्य संसार की अपेक्षा अदृष्ट परमात्म तत्व और देव तत्व को अधिक बलवान और नित्य सिद्ध किया है।
आचार्य ने एक महत्वपूर्ण बात बताते हुए कहा है कि इतिहास – पुराण सर्वथा प्रामाणिक और सत्य हैं तथा उनमें बतायी गयी भगवदवतार – संबंधी सभी बातें समूल और यथार्थ हैं।
यह बात उन्होंने इस संदर्भ में कही है ‘तस्मात्समूलमितिहासपुराणम् ’ ( ब्रह्मसूत्र देवता0 सू0 33 का शांकरभाष्य )। आचार्य चरण का यह मानना है कि ऐसा कहना भी ठीक नहीं कि आज के हम लोगों को भगवद दर्शन नहीं होते तो प्राचीन काल में भी लोगों को दर्शन नहीं होता होगा।
आचार्य बताते हैं कि व्यास, वाल्मीकि, वसिष्ठ आदि महर्षियों की प्रतिभा और तपःशक्ति तथा मान्धाता, नल, युधिष्ठिर, अर्जुन आदि नृप श्रेष्ठों की शक्तियों से आज के अल्पायु – अल्प शक्तिमान व्यक्तियों के सामर्थ्य की तुलना कथमपि नहीं की जा सकती।
अतः जो हम लोगों के सामने देवता, गंधर्व आदि प्रत्यक्ष नहीं हैं, चिरन्तनों की सामर्थ्य की अधिकता के कारण निश्चय ही उनके सामने वे सभी वस्तुएं प्रत्यक्ष हो सकती थीं। इस प्रकार अनेक युक्तियों, तर्कों तथा प्रमाणों के आधार पर आचार्य ने देवतत्व के अवतरण सिद्धांत को सिद्ध किया है और सगुण – साकार अवतार – विग्रहों के प्रति श्रद्धा, भक्ति, स्तुति, पूजा – उपासना से उन्हें प्रसन्न कर भक्त के सर्वविध कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर दिया हैै।
आचार्य ने स्वयं इतने विस्तार से सगुणोपासना के स्तोत्र साहित्य का निर्माण किया है, जिसे देख कर यह संदेह होने लगता है कि आचार्य ने अद्वैत की प्रतिष्ठा की है या द्वैत की ? उन्होंने अपने स्तुति साहित्य द्वारा भक्ति की जो अजस्र धारा प्रवाहित की है, उसी में उनका अद्वैत्व तत्व भी समा गया।
इस प्रकार भगवत्पाद ने अदृष्ट देवतत्व तथा अवतरण सिंद्धात की स्थापना कर उसकी प्राप्तिपूर्वक कैवल्य तक ही प्राप्त कराने में अदभुत योग प्रदान किया है। उनके इस कृपा प्रसाद के लिये मानव समाज सर्वदा उनका ऋणी रहेगा।
आचार्य का कहना है कि अंन्तःकरण शुद्ध होने पर ही वास्तविकता का बोध हो सकता है। अशुद्ध बुद्धि और मन के निश्चय एवं संकल्प भ्रमात्मक ही होते हैं। अतः सच्चा ज्ञान प्राप्त करना ही परम कल्याण है और उसके लिये अपने धर्म अनुसार कर्म, योग, भक्ति अथवा और भी किसी मार्ग से अन्तःकरण को शुद्ध बनाते हुए वहां तक पहुंचना चाहिये।
भगवान शंकर ने भक्ति को ज्ञान प्राप्ति का प्रधान साधन माना है तथापि वे स्वयं एक बड़े भक्त थे और ज्ञान सिद्धांत के अन्तराल में छिपे ‘महान भक्त’ थे । प्रबोध सुधाकर के नीचे उदधृत श्लोकों से तो यह सिद्ध होता है कि आचार्यपाद भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे और उनकी वनभोजन – लीला की झांकी और उनसे प्रार्थना करते थे।
उस झांकी तथा प्रार्थना को देखिये ‘श्री यमुना जी के तट पर स्थित वृन्दावन के किसी मनोहर बगीचे में जो कल्प वृक्ष के नीचे की भूमि पर चरण रखे बैठे हैं, जो मेघ के समान श्याम वर्ण हैं और अपने तेज से इस निखिल ब्रह्माण्ड को प्रकाशित कर रहे हैं, जो सुन्दर पीताम्बर धारण किये हुए हैं तथा समस्त शरीर में कर्पूर मिश्रित चंदन का लेप लगाये हुए हैं, जिनके कर्णपर्यन्त विशाल नेत्र हैं , जिनके कान, कुण्डल् के जोड़े से सुशोभित हैं ।
जिनका मुख कमल मंद – मद मुस्कान से युक्त है, जिनके वक्षःस्थल पर कौस्तुभमणियुक्त सुंदर हार है, जो अपनी कान्ति से करूण और अंगूठी आदि सुंदर आभूषणों की भी शोभा बढ़ा रहे हैं, जिनके गले में वनमाला लटक रही है, अपने तेज से जिन्होंने कलिकाल को परास्त कर दिया है तथा जिनका गुंजावलि विभूषित मस्तक गूंजते हुए भ्रमर समूह से सुशोभित है, किसी कुंच के भीतर बैठकर ग्वाल बालों के साथ भोजन करते हुए उन श्री हरि का स्मरण करो।’
‘जो कल्प वृक्ष के पुष्पों की गंध से युक्त मंद – मंद वायु से सेवित हैं, परमानन्द स्वरूप हैं तथा जिनके चरण कमलों में श्री गंगा जी विराजमान हैं, उन महानन्ददायक महापुरूष को नमस्कार करो।’
‘जिन्होंने समस्त दिशाओं को सुगन्धित कर रखा है, जो चारों ओर से सैकड़ों कामधेनु गौओं से घिरे हुए हैं तथा देवताओं के भय को दूर करने वाले और बड़े – बड़े राक्षसों के लिये भयंकर हैं, उन यदुनन्दन को नमस्कार करो।’
‘जो करोड़ों कामदेवों से भी सुंदर हैं, वांछित फल को देने वाले हैं, दया के समुद्र हैं, उन श्री कृष्ण चन्द्र को छोड़ कर ये नेत्र युगल और किस विषय को देखने के लिये उत्सुक होते हैं ?
‘जिनका कोई अन्य आश्रय नहीं है, जैसे कछुई के बच्चे जिस प्रकार दूध आदि आहार के बिना ही केवल माता को स्नेह दृष्टि से पलते हैं, उसी प्रकार अनन्य भक्त भी भगवान की दया दृष्टि सहारे ही जीवन – निर्वाह करते हैं।’
इतना ही नहीं, आचार्य चरण ने भगवान श्रीराम, देवी दुर्गा, सूर्य, गणेश, गंगा आदि सभी विग्रहों की इतनी सुंदर ललित स्तुतियां हमें दी हैं, जिनके श्रद्धा – भक्तिपूर्वक पाठ से चित्त में अत्यन्त प्रसन्नता होती है और भगवान का साक्षात विग्रह नेत्रों के समक्ष उपस्थित हो जाता है।
उन्होंने शक्ति की उपासना पर सौन्दर्य लहरी, ललितापंचक, देव्यपराधक्षमापनस्तोत्र, नृसिंह – उपासना पर लक्ष्मी नृसिंहस्तोत्र की रचना की। इसके प्रत्येक श्लोक में पठित ‘लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्’ पद बहुत ही भाव भक्तिपूर्ण है।
शिव की आराधना संबंधी उनके स्तोत्र शिवापराधक्षमापनस्तोत्र, वेदसारशिवस्तव, शिवाष्टक, शिवपंचाक्षरस्तोत्र आदि बहुत प्रसिद्ध हैं। भगवान श्री राम की स्तुतियों में ‘श्रीरामभुजंगप्रयात’ बड़ा ही प्रसिद्ध है।
इसके 29 श्लोकों में ही उन्होंने भगवान श्री राम के प्रति जो भक्ति दिखायी है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इस स्तोत्र के प्रायः अनेक श्लोकों के अंत में एक पक्ति इस प्रकार आती है ‘अरामाभिधेयैरलं दैवतैर्न।’
इसका तात्पर्य है कि परम दैवत भगवान श्री राम को छोड़कर मेरा किसी अन्य दूसरे देवता से कोई प्रयोजन नहीं है। आद्य शंकराचार्य जी विरचित एक दशावतारस्तोत्र भी प्राप्त होता है, जिसमें उन्होंने भगवान विष्णु के मत्स्य, कूर्म आदि दस अवतारों की वंदना की है।
सनातन धर्म की प्रतिष्ठा और रक्षा हो सके, इसी आशय से आचार्य शंकर ने भारत वर्ष के चारों कोनों में चार मठ स्थापित किये और जगह – जगह देव मंदिरों तथा अर्चा – विग्रहों की इसीलिये प्रतिष्ठा करायी कि लोक भक्त बनें, भगवान के सगुण – साकार रूप की आराधना करें और उनके मतानुसार भक्ति के बिना भगवत्साक्षात्कार असम्भव है।
विवेकचूड़ामणि में वे कहते हैं ‘मोक्ष कारण सामग्याम भक्तिरेव गरीयसी।’ अर्थात मोक्ष प्राप्ति के साधनों में भक्ति ही सबसे श्रेष्ठ है। वे प्रबोध सुधारकर में कहते हैं ‘श्री कृष्ण के चरण कमलों की भक्ति किये बिना अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता। जैसे गंदा कपड़ा क्षार के जल से स्वच्छ किया जाता है, उसी प्रकार चित्त के मल को धोने के लिये भक्ति ही एक मात्र साधन है।’
श्री शंकराचार्य की दृष्टि में विश्व मे केवल एक ही सत्य वस्तु है और वह है ब्रह्म। समस्त अवतार उन्हीं की अभिव्यक्तियां हैं। उन्होंने प्रायः सभी देवस्वरूपों का ध्यान और उनकी प्रार्थना की है। यहां तक कि गंगा, यमुना, नर्मदा आदि नदियों में देवत्व की प्रतिष्ठा कर भक्ति भाव से उनका स्तवन किया है।
यहां यह विशेष बात है कि उन्होंने जिस भी देवता का स्तवन किया है, उसे परम पुरूष परमात्मा की ही अभिव्यक्ति माना है। भगवान से अपना दैन्य निवेदन करते हुए षटपदी में वे कहते हैं ‘हे विष्णु भगवान्! मेरी उददण्डता दूर कीजिये। मेरे मन का दमन कीजिये और विषयों की मृगतृष्णा को शांत कर दीजिये, प्राणियों के प्रति मेरा दयाभाव बढ़ाइये और इस संसार – समुद्र से मुझे पार कीजिये।’