महाभारत युद्ध के सत्रहवें दिन जब कर्ण और शल्य के बीच तीखी नोक-झोंक हो रही थी तब कर्ण के क्रोधपूर्वक कहे गए अभद्र वचन सुनकर राजा शल्य ने उसे एक दृष्टान्त सुनाते हुए कहा “कुलकलंक कर्ण ! मैं तुम्हें एक दृष्टान्त सुनाता हूँ । कहते हैं, समुद्र के तट पर किसी धर्मप्रधान राजा के राज्य में एक धन-धान्य सम्पन्न वैश्य रहता था । वह यज्ञ-यागादि करने वाला, दानी, क्षमाशील, अपने कर्मों में स्थित, पवित्रात्मा और समस्त जीवों पर दया करने वाला था ।
उसके कई अल्पवयस्क पुत्र थे । वे एक कौए को अपना जूठा भात, दही, दूध और खीर आदि दे दिया करते थे । उस उच्छिष्ट को खा-खाकर वह खूब हृष्ट-पुष्ट हो गया और घमंड में भरकर अपने सजातीय और अपने से श्रेष्ठ पक्षियों का अपमान करने लगा । एक बार उस समुद्र तट पर गरुड़ के समान लंबी-लंबी उड़ानें भरने वाले मानसरोवर वासी हंस आये ।
तब उस घमंडी कौए ने जो सबसे श्रेष्ठ जान पड़ता था उस हंस से कहा, “आओ, आज हमारी-तुम्हारी उड़ान हो जाय” । यह सुनकर वहाँ आये हुए सभी हंस हँस पड़े और उस बातूनी कौए से कहने लगे, “हम मानसरोवर में रहने वाले हंस हैं और इस सारी पृथ्वी पर उड़ते फिरा करते हैं । हमारी लंबी उड़ान के कारण सभी पक्षी हमारा सम्मान करते हैं ।
भैया ! तुम तो एक कौआ ही हो न? फिर किसी बलिष्ठ हंस को उड़ान के लिये क्यों चुनौती देते हो ? बताओ तो सही, तुम हमारे साथ कैसे उड़ सकोगे” ? हंस की यह बात सुनकर कौए ने उसे बार-बार दुत्कारा और स्वयं क्षुद्र जाति का होने के कारण अपनी बड़ाई करते हुए कहने लगा, “मैं एक सौ एक प्रकार की उड़ानें उड़ सकता हूँ । उनमें से प्रत्येक उड़ान सौ-सौ योजन की होती है और वे सभी बड़ी अद्भुत और भाँति-भाँति की होती हैं ।
उनमें से कुछ उड़ानों के नाम इस प्रकार हैं-उड्डीन (ऊँचा उड़ना); अवडीन (नीचा उड़ना), प्रडीन (चारों ओर उड़ना), डीन (साधारण उड़ना), निडीन (धीरे-धीरे उड़ना), संडीन (ललित गतिसे उड़ना), तिर्यग्डीन (तिरछा उड़ना), विडीन (दूसरों की चाल की नकल करते हुए उड़ना), परिडीन (सब ओर उड़ना), पराडीन (पीछेकी ओर उड़ना), सुडीन (स्वर्ग की ओर उड़ना), अभिडीन (सामने की ओर उड़ना), महाडीन (बहुत वेग से उड़ना), निर्डीन (परों को हिलाये बिना ही उड़ना), अतिडीन (प्रचण्डता से उड़ना), संडीन डीन-डीन (सुन्दर गति से आरम्भ करके फिर चक्कर काटकर नीचे की ओर उड़ना), संडीनोड्डीन डीन (सुन्दर गति से आरम्भ करके फिर चक्कर काटकर ऊँचा उड़ना), डीनविडीन (एक प्रकार की उड़ान में दूसरी उड़ान दिखाना), सम्पात (क्षण भर सुन्दरता से उड़कर फिर पंख फड़फड़ाना), समुदीष (कभी ऊपर की ओर और कभी नीचे की ओर उड़ना), व्यतिरिक्तक (किसी लक्ष्य का संकल्प करके उड़ना), गतागत (किसी लक्ष्य तक उड़कर फिर लौट आना) और प्रतिगत (पलटा खाना) इत्यादि ।
मैं तुम्हारे सामने ये सब गतियाँ दिखाऊँगा; तब तुम्हें मेरी शक्ति का पता लगेगा । इनमें से किसी भी गति से मैं आकाश में उड़ सकता हूँ । तुम जैसा उचित समझो कहो और बताओ कि मैं किस गतिसे उडूं”? कौए के इस प्रकार कहने पर एक हंस ने हँसकर कहा, “काक ! तुम अवश्य एक सौ एक प्रकार की उड़ानें जानते होगे; और सब पक्षी तो एक प्रकार की उड़ान ही जानते हैं ।
मैं भी एक प्रकार की गति से ही उडुंगा । अन्य किसी गति का मुझे ज्ञान नहीं है । तुम्हें जो उड़ान पसंद हो उसी से उड़ो” । यह सुन कर वहाँ जो दूसरे कौए थे वे हँस पड़े और कहने लगे, “भला यह हंस एक ही उड़ान से सौ प्रकार की उड़ानों को कैसे जीत सकेगा” ? अब वह कौआ और हंस प्रतियोगिता कर के उड़े । कौआ सौ प्रकार की उड़ानों से दर्शकों को चकित करने लगा तथा हंस अपनी एक ही प्रकार की मृदुल गति से उड़ रहा था ।
कौए की अपेक्षा उसकी गति बहुत मंद थी । यह देखकर कौए हंसों का तिरस्कार करते हुए इस प्रकार कहने लगे, “यह हंस उड़ा तो सही, किंतु कौए के सामने इसकी गति तो इतनी मंद है” । यह सुनकर हंस ने उत्तरोत्तर वेग बढ़ाते हुए पश्चिम की ओर समुद्र के ऊपर उड़ान लगायी । इस यात्रा में कौआ उड़ते-उड़ते थक गया ।
उसे विश्राम लेने के लिये कहीं कोई टापू या वृक्ष दिखायी नहीं देता था । इससे उसे बड़ा भय हुआ और वह सोचने लगा कि “कहीं मैं थककर इस समुद्र में ही तो न गिर पड़ूंगा” ? अन्त में वह अत्यन्त श्रमित होकर हंस के पास आया ।
उसकी ऐसी गिरी अवस्था देख कर हंस ने सत्पुरुषों के व्रत का स्मरण करते हुए उसे बचा लेने के विचार से कहा, “क्यों जी ! तुमने अपनी अनेक प्रकार की उड़ानों का बखान किया, परंतु उनका वर्णन करते समय अपनी इस गुह्य गति का उल्लेख नहीं किया । भला, इस समय तुम किस उड़ान से उड़ रहे हो, जो बार-बार तुम्हारी चोंच और डैने जल से लग जाते हैं” ।
कर्ण ! तब उस कौए ने हंस से कहा, “भाई हंस ! हम तो कौए हैं, व्यर्थ काँव-काँव किया करते हैं । मैं अपने प्राण तुम्हें सौंपता हूँ, तुम मुझे किसी प्रकार इस जल के तीर तक ले चलो” । ऐसा कहकर वह अपनी चोंच और डैनों से जल को स्पर्श करते हुए समुद्र में गिर गया । यह देखकर हंस ने कहा, “काक ! तुम तो बड़ी शेखी बघारते हुए कह रहे थे कि मैं एक सौ एक प्रकार की उड़ानें जानता हूँ ।
फिर इस समय इस प्रकार थककर क्यों गिर रहे हो” ? इस पर कौए ने दुःख से पीड़ित होकर कहा, “हंस ! मैं जूठन खा-खाकर ऐसा घमंडी हो गया था कि अपने को साक्षात् गरुड़ के समान समझने लगा था । इसी से मैंने अनेकों कौओं और दूसरे पक्षियों का भी बहुत अपमान किया था । किंतु अब मैं तुम्हारी शरण हूँ, तुम मुझे किसी टापू के तट पर पहुँचा दो भैया !
यदि मैं जीता-जागता फिर अपने देश में पहुँच गया तो किसी का निरादर नहीं करूँगा | अब किसी प्रकार तुम मुझे इस विपत्ति से उबार लो” । इस प्रकार दीन वचन कहकर वह अचेत-सा होकर विलाप करने लगा । उसे काँव-काँव करते और समुद्र में डूबते देखकर हंस को दया आ गयी और उसने उसे पंजों से पकड़ कर धीरे से अपनी पीठ पर चढ़ा लिया ।
फिर वह उसी स्थान पर आ गया, जहाँ से कि शर्त लगाकर वे पहले उड़े थे । वहाँ पहुँचकर उसने कौए को नीचे उतारकर बहुत ढाढस बँधाया और फिर इच्छानुसार किसी दूर देश को चला गया ! कर्ण ! इस प्रकार जूठन से पुष्ट हुआ वह कौआ अपने बल और वीर्य का घमंड भूलकर शान्त हुआ ।
जैसे पूर्वकाल में वह कौआ वैश्यों का जूठन खाता था, उसी प्रकार तुम्हें भी धृतराष्ट्र के पुत्रों ने अपनी जूठन खिला-खिलाकर पाला है, इसी से तुम अपने समकक्ष और अपनी अपेक्षा श्रेष्ठ पुरुषों का भी अपमान करते हो ।
विराट नगर में तो द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, भीष्म तथा और सब कौरव भी तुम्हारी रक्षा कर रहे थे; उस समय तुमने अकेले अर्जुन का काम तमाम क्यों नहीं कर डाला ? उस समय तुम्हारा पराक्रम कहाँ चला गया था ? जब संग्राम भूमि में अर्जुन ने तुम्हारे भाई का वध किया था, उस समय समस्त कौरव योद्धाओं के सामने सबसे पहले तो तुम्हीं भागे थे ।
इसी प्रकार द्वैतवन में गन्धर्वो के आक्रमण करने पर भी सारे कौरवों को छोड़कर पहले तुम्हीं ने पीठ दिखायी थी । उस समय भी अर्जुन ने ही चित्रसेनादि गन्धर्वो को युद्ध में परास्त करके दुर्योधन और उसकी रानियों को छुड़ाया था । परशुराम जी ने राजाओं की सभा में श्रीकृष्ण और अर्जुन का जो पुरातन प्रभाव कहा था वह तो तुमने सुना ही था । इसके सिवा भीष्म और द्रोण भी राजाओं के आगे इन दोनों की अवध्यता का वर्णन करते रहते थे ।
उनकी बातें भी तुम बार-बार सुनते ही रहे हो । मैं तुम्हें ऐसी कौन-कौन-सी बातें बताऊँ जिन्हें देखते हुए अर्जुन तुम्हारी अपेक्षा कहीं बढ़-चढ़कर है । अब तुम शीघ्र ही वसुदेव नन्दन श्रीकृष्ण और कुन्ती-कुमार अर्जुन को अपने श्रेष्ठ रथ पर बैठे हुए देखोगे । अतः जिस प्रकार कौए ने बुद्धिमानी से हंस की शरण ले ली थी उसी प्रकार तुम भी श्रीकृष्ण और अर्जुन का आश्रय ले लो ।
जिस समय तुम एक ही रथ पर चढ़े हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन को युद्ध में पराक्रम दिखाते देखोगे, उस समय ऐसी बातें नहीं कह सकोगे, जैसे जुगनू सूर्य और चन्द्रमा का तिरस्कार करे उसी प्रकार तुम मूर्खता से उनका अपमान मत करो, महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन पुरुषों में श्रेष्ठ हैं, तुम उनका तिरस्कार न करो और इस प्रकार बढ़-बढ़कर बातें बनाना छोड़ दो ।