सम्राट विक्रमादित्य ने, असीम धैर्य का परिचय देते हुए, वापस पेड़ पर लौटने वाले बेताल को फिर से अपनी पीठ पर लादा और चल दिए उसी तान्त्रिक के पास, जिस तान्त्रिक ने उन्हें लाने का काम सौंपा था | कुछ दूर चलने के बाद थोड़ी देर में बेताल ने अपना मौन तोड़ा और विक्रम से कहा “तुम भी बड़े ज़िद्दी हो राजन, खैर चलो, मार्ग आसानी से काट जाए, इसके लिए मै तुम्हे एक कहानी सुनाता हूँ |
किसी समय की बात है उज्जैन नगरी में महासेन नाम का राजा राज्य करता था। उसके राज्य में वासुदेव शर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था, जिसका एक गुणाकर नाम का बेटा था। गुणाकर बहुत बड़ा जुआरी था। वह अपने पिता का कमाया हुआ सारा धन जुए में हार गया। उसके पिता ब्राह्मण ने उसे घर से निकाल दिया।
घर से निकाले जाने के बाद वह दूसरे नगर में पहुँचा। वहाँ उसे एक योगी मिला। गुणाकर को हैरान और परेशान देखकर योगी ने उससे इसका कारण पूछा तो उसने सब बता दिया। योगी ने सहानुभूति पूर्वक उससे कहा, “लो, पहले कुछ खा लो।” गुणाकर ने जवाब दिया, “मैं ब्राह्मण का बेटा हूँ। आपकी भिक्षा कैसे खा सकता हूँ?”
इतना सुनकर योगी ने सिद्धि का आह्वाहन किया। वह आयी। योगी ने उससे गुणाकर की आवभगत करने को कहा। सिद्धि ने एक सोने का महल बनवाया और गुणाकार उसमें रात को अच्छी तरह से रहा। सबेरे उठते ही उसने देखा कि महल आदि अब कुछ भी उपस्थित नहीं है। गुणाकर को बहुत दुःख हुआ | उसने योगी से कहा, “महाराज, उस स्त्री के बिना अब मैं नहीं रह सकता।”
योगी ने गुणाकर से कहा, “वह तुम्हें एक विद्या प्राप्त करने से मिलेगी और वह विद्या जल के अन्दर खड़े होकर मंत्र जपने से मिलेगी। वह विद्या बहुत ही कठिन है | उसकी सिद्धि प्रक्रिया में थोड़ी सी भी चूक तुम्हारे प्राण तो ले ही सकती है, मेरे प्राणों को भी संकट में डाल सकती है | लेकिन जब वह लड़की तुम्हें मेरी सिद्धि से मिल सकती है तो तुम वह विद्या प्राप्त करके क्या करोगे?”
गुणाकर ने कहा, “नहीं, मैं स्वयं वैसा करूँगा।” योगी बोला, “कहीं ऐसा न हो कि तुम विद्या प्राप्त न कर पाओ और मेरी सिद्धि भी नष्ट हो जाय!” पर गुणाकर न माना। उसका हठ देख कर योगी ने उसे नदी के किनारे ले जाकर मंत्र बता दिये और कहा कि जब तुम जप करते हुए सिद्धि प्राप्ति के निकट होगे तो माया से मोहित होगे, उसी समय मैं तुम पर अपनी विद्या का प्रयोग करूँगा। मेरे निर्देश पर तुम उस समय अग्नि में प्रवेश कर जाना।”
सारे निर्देश प्राप्त कर गुणाकर बड़े मनोयोग से जप करने लगा। कुछ समय बाद जब वह माया से एकदम मोहित हो गया तो देखता क्या है कि वह किसी ब्राह्मण के बेटे के रूप में पैदा हुआ है। उसका ब्याह हो गया, उसके बाल-बच्चे भी हो गये। वह अपने जन्म की बात भूल गया। तभी योगी ने अपनी विद्या का प्रयोग किया।
योगी के विद्या प्रयोग करते ही गुणाकर मायारहित होकर अग्नि में प्रवेश करने को तैयार हुआ। उसी समय उसने देखा कि उसे मरता देख उसके माँ-बाप और दूसरे लोग रो रहे हैं और उसे आग में जाने से रोक रहे हैं। गुणाकार ने मन में सोचा कि मेरे मरने पर ये सब भी मर जायेंगे और पता नहीं कि योगी की बात सच हो या न हो।
इस तरह सोचता हुआ वह अग्नि में घुसा तो अग्नि ठंडी हो गयी और माया भी शान्त हो गयी । गुणाकर चकित होकर उन योगी महात्मा के पास आया और उसे सारा हाल बता दिया। योगी ने कहा, “मालूम होता है कि तुम्हारे पुरुषार्थ करने में कोई कसर रह गयी।” योगी ने स्वयं सिद्धि की याद की, पर वह नहीं आयी। इस तरह योगी और गुणाकर दोनों की विद्या नष्ट हो गयी।
इतनी कथा कहकर बेताल ने राजा विक्रमादित्य से पूछा, “राजन्, अब यह बताओ कि आखिर दोनों की विद्या क्यों नष्ट हो गयी?”
राजा विक्रमादित्य बोले, “इसका उत्तर निर्मल जल की तरह स्वच्छ है। निर्मल और शुद्ध संकल्प करने से ही सिद्धि प्राप्त होती है। गुणाकर के दिल में शंका हुई कि पता नहीं, योगी की बात सच होगी या नहीं। योगी की विद्या इसलिए नष्ट हुई कि उसने अपात्र को विद्या दी।” राजा का उत्तर सुनकर बेताल पहले तो अत्यंत प्रसन्न हुआ फिर पेड़ पर जा लटका। राजा विक्रमादित्य फिर से वहाँ गए और जब उसे लेकर चले तो उसने यह कहानी उनको सुनायी।