अपनी धुन के पक्के राजा विक्रमादित्य ने, बिलकुल भी विचलित न होते हुए, वापस उसी पेड़ पर लौटने वाले बेताल को फिर से अपनी पीठ पर लादा और चल दिए उसी तान्त्रिक के पास, जिसने उन्हें लाने का काम सौंपा था | थोड़ी देर बाद बेताल ने अपना मौन तोड़ा और कहा “तुम भी बड़े ज़िद्दी हो राजन, खैर चलो, मार्ग आसानी से काट जाए, इसके लिए मै तुम्हे एक कहानी सुनाता हूँ |
किसी समय अयोध्या नगरी में वीरकेतु नाम का राजा राज करता था। उसके राज्य में रत्नदत्त नाम का एक साहूकार था, जिसके रत्नवती नाम की एक लड़की थी। वह सुन्दर थी। किन्तु वह पुरुष के वेश में रहा करती थी और किसी से भी ब्याह नहीं करना चाहती थी। उसके पिता साहूकार रत्नदत्त उसके इस स्वभाव से बड़े दुखी रहा करते थे ।
इसी बीच नगर में खूब चोरियाँ होने लगी। प्रजा इन सबसे त्रस्त हो गयी। कोशिश करने पर भी जब चोर पकड़ में न आया तो राजा स्वयं उसे पकड़ने के लिए निकला। एक दिन रात को जब राजा भेष बदलकर घूम रहा था तो उसे महल की छावनी के पास एक आदमी दिखाई दिया। राजा चुपचाप उसके पीछे चल दिया। चोर ने भांप लिया उसने कहा, “तब तो तुम मेरे साथी हो। आओ, मेरे घर चलो।”
दोनो चोर के घर पहुँचे। उसे बिठाकर चोर किसी काम के लिए घर से बाहर निकल गया । इसी बीच चोर की दासी आयी और राजा से बोली, “तुम यहाँ क्यों आये हो? चोर तुम्हें मार डालेगा। यहां से बाहर भाग जाओ।”
राजा ने परिस्थितियों को समझा और ऐसा ही किया। बाहर निकल कर उसने एक विशेष संकेत से अपने सैनिकों को बुलाया जो वहाँ से थोड़ी ही दूरी पर छुपे हुए थे | उसने सैनिकों को लेकर चोर का घर घेर लिया। जब चोर ने ये देखा तो वह अपने लड़ाके साथियों के साथ लड़ने के लिए तैयार हो गया। दोनों में खूब लड़ाई हुई। अन्त में चोर और उसके साथी हार गए । राजा उसे पकड़कर राजधानी में लाया और उसे सूली पर लटकाने का हुक्म दे दिया।
संयोग से साहूकार रत्नदत्त रत्नवती की पुत्री ने जब उसे देखा तो वह उसके रूप सौंदर्य पर मोहित हो गयी। काम से पीड़ित वह अपने पिता से बोली, “मैं इस पुरुष के साथ ब्याह करूँगी, नहीं तो मैं मर जाऊँगी। अपनी पुत्री की ऐसी हालत देख कर साहूकार रत्नदत्त ने उस चोर को क्षमा कर देने के लिए राजा से प्रार्थना की पर राजा ने उसकी बात न मानी और चोर को सूली पर लटका दिया।
सूली पर लटकने से पहले चोर पहले तो बहुत रोया, फिर खूब हँसा । रत्नवती वहाँ पहुँच गयी और चोर के सिर को लेकर सती होने को चिता में बैठ गयी। उसी समय देवी ने आकाशवाणी की, “मैं तेरी पतिभक्ति से प्रसन्न हूँ। जो चाहे सो माँग।”
रत्नवती ने कहा, “मेरे पिता के कोई पुत्र नहीं है। सो वर दीजिए, कि उनसे सौ पुत्र हों।” देवी प्रकट होकर बोलीं, “यही होगा। और कुछ माँगो।” वह बोली, “मेरे पति जीवित हो जायें।” देवी ने उसे जीवित कर दिया। दोनों का विवाह हो गया। राजा को जब यह मालूम हुआ तो उन्होंने चोर को अपना सेनापति बना लिया।
इतनी कहानी सुनाकर बेताल ने राजा विक्रमादित्य से पूछा, ‘हे राजन्, यह बताओ कि सूली पर लटकने से पहले चोर क्यों ज़ोर-ज़ोर से रोया और फिर क्यों हँसते-हँसते मर गया?” राजा ने कहा, “रोया तो इसलिए कि वह साहूकार रत्नदत्त का कुछ भी भला न कर सकेगा। हँसा इसलिए कि रत्नवती बड़े-बड़े राजाओं और धनिकों को छोड़कर उस पर मुग्ध होकर मरने को तैयार हो गयी। स्त्री के मन की गति को कोई नहीं समझ सकता।”
राजा विक्रमादित्य के मुख से ऐसा सुनकर बेताल गायब हो गया और पेड़ पर जा लटका। राजा फिर वहाँ गया और उसे लेकर चला तो रास्ते में उसने यह कथा कही।