राजा विक्रमादित्य भी अपनी धुन के पक्के थे | बेताल ने जैसे ही उनका कन्धा छोड़ा और वापस पेड़ पर जा कर लटका, वे वापस उसे लाने के लिए चल पड़े | विक्रमादित्य ने उसे पेड़ से उतारा, अपने कंधे पर लादा और चल पड़े श्मशान की ओर | बेताल ने मुस्कुराते हुए उन्हें अगली कहानी सुनायी | वर्धमान नगर में रूपसेन नाम का राजा राज्य करता था।
एक दिन उसके यहाँ वीरवर नाम का एक क्षत्रिय नौकरी के लिए आया । राजा ने उससे पूछा कि उसे आजीविका के लिए कितना धन चाहिए तो उसने जवाब दिया, हज़ार तोले सोना । उसके मुख से ऐसा उत्तर सुनकर सबको बड़ा आश्चर्य हुआ । राजा ने पुनः उससे पूछा, “तुम्हारे परिवार में तुम्हारे साथ कौन-कौन है?” उसने जवाब दिया, “मेरी स्त्री, मेरा पुत्र और पुत्री।” राजा को और भी अचम्भा हुआ । आख़िर चार लोग इतने धन का क्या करेंगे? फिर भी राजा ने उसकी बात मान ली ।
उस दिन से क्षत्रिय वीरवर रोज हज़ार तोले सोना खजांची से लेकर अपने घर आता । उसमें से आधा निर्धन ब्राह्मणों में बाँट देता, बाकी के दो हिस्से करके एक अतिथियों, वैरागियों और संन्यासियों को देता और दूसरे से भोजन बनवाकर पहले ग़रीबों को खिलाता, उसके बाद जो बचता, उसे अपने स्त्री-बच्चों को खिलाता, और फिर अपने खाता । उसका काम यह था कि शाम होते ही ढाल-तलवार लेकर राज के पलंग की चौकीदारी करता । राजा को जब कभी रात को ज़रूरत होती, वह हाज़िर रहता ।
एक बार की बात है, एक आधी रात के समय राजा को मरघट की ओर से किसी के रोने की आवाज़ आयी । उसने वीरवर को तुरंत पुकारा तो वह आ गया । राजा ने कहा, “जाओ, जा कर पता लगाकर आओ कि इतनी रात गये यह कौन रो रहा है ओर क्यों रो रहा है?”
वीरवर तत्काल वहाँ से चल दिया । मरघट में जाकर देखता क्या है कि सिर से पाँव तक एक स्त्री गहनों से लदी कभी नाचती है, कभी कूदती है और सिर पीट-पीटकर रोती है । लेकिन उसकी आँखों से एक बूँद आँसू की नहीं निकलती । वीरवर ने पूछा, “तुम कौन हो? और इस प्रकार से क्यों रोती हो?”
उसने कहा, “मैं इस राज्य की लक्ष्मी हूँ। रोती इसलिए हूँ कि राजा रूपसेन के घर में निम्न स्तर के खोटे काम होते हैं, इसलिए वहाँ दरिद्रता का डेरा पड़ने वाला है । मैं वहाँ से चली जाऊँगी और राजा रूपसेन दु:खी होकर एक महीने में मर जायेगा ।” सुनकर वीरवर ने उससे पूछा, “इस अवांछनीय स्थिति से बचने का कोई उपाय है!”
स्त्री बोली, “हाँ, है । यहाँ से पूरब में एक योजन पर एक देवी का मन्दिर है। अगर तुम उस देवी के मंदिर पर अपने बेटे का शीश यानी उसकी बलि चढ़ा दो तो इस राज्य और राजा पर आने वाली विपदा टल सकती है । फिर राजा रूपसेन सौ बरस तक बेखटके राज करेगा।”
वीरवर चिन्तित हो कर अपने घर आया और अपनी स्त्री को जगाकर सारी बात बतायी । उसकी स्त्री ने अपने बेटे को जगाया, बेटी भी जाग पड़ी । जब बालक ने बात सुनी तो वह खुश होकर बोला, “आप मेरा शीश काटकर ज़रूर चढ़ा दें। एक तो आपकी आज्ञा, दूसरे स्वामी का काम, तीसरे यह देह देवता पर चढ़े, इससे बढ़कर बात और क्या होगी! अतः आप शीघ्र करें।”
वीरवर ने अपनी स्त्री से कहा, “अब तुम बताओ।” स्त्री बोली, “स्त्री का धर्म पति की सेवा करने में है।” निदान, चारों जने देवी के मन्दिर में पहुँचे। वीरवर ने हाथ जोड़कर कहा, “हे देवी, मैं अपने बेटे की बलि देता हूँ। मेरे राजा की सौ बरस की उम्र हो।”
इतना कहकर उसने इतने ज़ोर से फरसा मारा कि उसके लड़के का शीश धड़ से अलग हो गया । भाई का यह हाल देख कर बहन ने भी फरसे से अपना सिर अलग कर डाला । बेटा-बेटी चले गये तो दु:खी माँ ने भी उन्हीं का रास्ता पकड़ा और अपनी गर्दन काट दी । वीरवर ने सोचा कि घर में कोई नहीं रहा तो मैं ही जीकर क्या करूँगा। उसने भी अपना सिर काट डाला।
राजा को जब यह मालूम हुआ तो वह वहाँ आया। उसे बड़ा दु:ख हुआ कि उसके लिए चार प्राणियों की जान चली गयी। वह रोते हुए सोचने लगा कि ऐसा राज करने से धिक्कार है! यह सोच उसने तलवार उठा ली और जैसे ही अपना सिर काटने को हुआ कि देवी ने प्रकट होकर उसका हाथ पकड़ लिया । बोली, “राजन्, मैं तेरे साहस से प्रसन्न हूँ। तू जो वर माँगेगा, सो दूँगी।”
राजा ने कहा, “देवी, तुम प्रसन्न हो तो इन चारों को जिला दो।” देवी ने अमृत छिड़ककर उन चारों को फिर से जिला दिया। इतना कहकर बेताल बोला, राजा विक्रमादित्य, अब बताओ, इन सब में सबसे ज्यादा पुण्य किसका हुआ?”
राजा विक्रमादित्य बोले, “राजा का।” बेताल ने पूछा, “क्यों, ऐसा कैसे?”
राजा विक्रमादित्य ने कहा, “ऐसा इसलिए कि स्वामी के लिए चाकर का प्राण देना धर्म है; लेकिन चाकर के लिए राजा का राजपाट को छोड़, अपने जीवन को तिनके के समान समझकर देने के लिए तैयार हो जाना बहुत बड़ी बात है।”
यह सुन बेताल ने उन्हें अपनी प्रतिज्ञा याद दिलायी और उसके बाद वह वहाँ से ग़ायब हो गया और वापस उसी पेड़ पर जा लटका । लेकिन राजा विक्रमादित्य भी गज़ब के जीवट मनुष्य थे, वे वापस उसी ओर मुड़े और उस बेताल को फिर से पकड़ कर लाये और फिर बेताल ने उन्हें अगली कहानी सुनाई।