विक्रम बेताल की कहानियाँ

विक्रम बेताल की कहानियाँ विक्रम बेताल की कथा बहुत पुरानी है । एक समय धारा नगरी में गंधर्वसेन नाम के एक राजा राज करते थे । उनकी चार रानियाँ थीं । उन चार रानियों से उनके छ: लड़के थे जो सब-के-सब बड़े ही चतुर और बलवान थे । दैव योग से एक दिन राजा गंधर्वसेन की मृत्यु हो गई और उनकी जगह उनका सबसे बड़ा बेटा शंख राजगद्दी पर बैठा ।

उसने कुछ दिन राज किया, किन्तु उसे अपने छोटे भाई विक्रम से सदैव खतरे की आशंका बनी रहती थी | इसके अतिरिक्त वह अपने भाइयो को लेकर भी सतर्क रहता था | जबकि विक्रम व अन्य भाई इस मानसिकता के नहीं थे | वे अपनी-अपनी रियासतों के प्रबन्धन में ही प्रसन्न थे | किन्तु षड्यंत्रकारी दरबारियों ने लगातार शन्ख के कान भरे |

और अंततः एक दिन उसने (शन्ख) अपने राज्य को निष्कंटक बनाने की ठान ली | भर्तृहरि और विक्रम को छोड़कर उसने बाकी भाइयों की धोखे से हत्या करवा दी | इसके बाद वह विक्रम की हत्या के लिए प्रयासरत हुआ | उसे सबसे ज्यादा खतरा विक्रम से ही अनुभव होता था, क्योंकि विक्रम तेजस्वी, अत्यंत शक्तिशाली व बुद्धिमान था |

लेकिन छोटे भाई विक्रम ने अपनी तेज-तर्रार गुप्तचर व्यवस्था से इस खतरे को पहले ही भांप लिया था | विक्रम ने शन्ख की कुटिलता का उसी पर प्रयोग कर दिया और उसे मार डाला तथा स्वयं शासन की बागडोर अपने हांथों में ले ली । पूरे राज्य का स्वामी बनते ही विक्रम ने सबसे पहले षड्यंत्रकारी दरबारियों को कारागार में डलवाया फिर राज्य की आतंरिक व बाह्य सुरक्षा व्यवस्था चाक-चौबंद की |

उन्होंने पूरे राज्य में सूक्ष्मतम स्तर पर एकीकृत गुप्तचर व्यवस्था की शुरुआत की | फिर उन्होंने अपने सैन्य व असैन्य अभियानों से अपने राज्य का विस्तार किया, तथा अपनी मातृभूमि, भारतवर्ष से शक, कुषाण तथा हूणों को मार भगाया | इस पूरे अभियान में उनके भाई भर्तृहरि ने, जो की स्वभाव से साधू थे, पूरी शक्ति से उनका साथ दिया |

उनका राज्य दिनों दिन बढ़ता गया और एक दिन उन्होंने सारे जम्बूद्वीप पर छाये हुए विदेशी आक्रान्ताओं, शक, कुषाण व हूणों को खदेड़ कर भारत भूमि से बाहर कर दिया और मित्र राज्यों के साथ वे पूरे भारत वर्ष के सम्राट बन बैठे, और विक्रमादित्य की उपाधि धारण की |

विद्वानों के निर्देश पर उन्होंने विजय दिवस के दिन विक्रमी सम्वत का आरम्भ किया जिसे समुद्र-पर्यंत पूरे भारतवर्ष ने स्वीकार किया । इतना सब कुछ प्राप्त करने के बाद एक दिन उनका चित्त राजभोग के सुखों से उचट गया | उनके मन में वैराग्य भाव जागा | उन्होंने तपस्या करने का निश्चय किया | इसके बाद वे पूरे देश के शासन की बागडोर अपने छोटे भाई भर्तृहरि को सौंपकर, योगी बन कर, राजधानी उज्जयिनी से निकल पड़े ।

विक्रमादित्य की राजधानी उज्जयिनी में एक ब्राह्मण तपस्या करता था । एक दिन देवता ने प्रसन्न होकर उसे एक फल दिया और कहा कि इसे जो भी खायेगा, वह अमित आयु अर्थात सैकड़ों वर्ष की आयु वाला हो जायेगा । ब्रह्मण ने वह फल लाकर अपनी पत्नी को दिया और देवता द्वारा दिए गए वरदान की बात भी बता दी ।

ब्राह्मणी बोली, “हम अमित आयु वाले होकर क्या करेंगे? हमेशा भिक्षा ही माँगते रहेंगें, क्योंकि हमारे भाग्य में यही लिखा है कि हम सदैव निर्धन रहेंगे । इससे तो निर्धारित आयु में ही मरना अच्छा है । तुम इस फल को ले जाकर राजा को दे आओ और बदले में कुछ धन ले आओ ।”

पत्नी की बात ब्राह्मण को उचित लगी | वह ब्राह्मण फल लेकर राजा भर्तृहरि के पास गया और सारा वृत्तान्त कह सुनाया । राजा भर्तृहरि ने उसकी इच्छानुसार फल ले लिया और ब्राह्मण को एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ देकर विदा कर दिया । भर्तृहरि अपनी रानी को बहुत मानते थे । उन्होंने रात्रि समय महल में जाकर वह फल अपनी रानी को दे दिया ।

रानी की मित्रता राज्य के एक बड़े मंत्री से भी थी । रानी ने वह फल प्रेमवश, अपने मित्र मन्त्री को दे दिया । मंत्री एक नगरवधू के पास भी जाया करते थे । वह उस फल को उस नगरवधू को दे आये । नगरवधू ने सोचा कि यह फल तो हमारे राज्य के राजा को ही खाना चाहिए । वह उसे लेकर राजा भर्तृहरि के पास गई और उन्हें उपहार स्वरुप दे दिया ।

राजा भर्तृहरि ने भी उसे उपहार स्वरुप बहुत-सा धन दिया, लेकिन जब उन्होंने फल को अच्छी तरह से देखा तो उसे पहचान लिया । उनके ह्रदय को बड़ी चोट लगी, वे अत्यंत आहत हुए पर उन्होंने किसी से कुछ कहा नहीं । उन्होंने महल में जाकर रानी से पूछा कि तुमने उस फल का क्या किया । रानी ने कहा, “मैंने उसे खा लिया” |

राजा भर्तृहरि ने उसी समय वह फल निकालकर दिखा दिया । रानी घबरा गयी और उसने सारी बात सच-सच कह दी और बार-बार क्षमा याचना करने लगी । भर्तृहरि ने पता लगाया तो उन्हें पूरी बात ठीक-ठीक मालूम हो गयी । वह बहुत दु:खी हुए ।

उन्होंने सोचा, यह दुनिया केवल एक माया-जाल है । इसमें अपना कोई नहीं । वह फल लेकर बाहर आये और उसे धुलवाकर स्वयं खा लिया । फिर राजपाट विद्वान मन्त्रियों के भरोसे छोड़कर, एक योगी का रूप ले कर, जंगल में तपस्या करने चले गए ।

भर्तृहरि के जंगल में चले जाने से राज्य की शासन व्यवस्था ढीली पड़ गयी । षड्यंत्रकारी देश के भीतर और बाहर, षड्यंत्र रचने लगे | जब देवताओं के राजा इन्द्र को यह समाचार मिला तो उन्होंने एक देव को राजधानी समेत देश की रखवाली के लिए भेज दिया । वह शक्तिशाली देव, सबकी रक्षा के लिए रात-दिन वहीं, अदृश्य रूप में रहने लगा ।

शासन की बागडोर अपने हाँथ में लेने वाले मंत्रियों ने अपने गुप्तचरों से विक्रमादित्य का पता लगाया और उन्हें, ‘भर्तृहरि के राजपाट छोड़कर वन में चले जाने की बात’ सन्देश के रूप में भिजवाया तथा उनसे वापस लौटने का आग्रह करते हुए यह भी कहवाया कि ‘प्रजा आपकी राह देख रही है’ |

विक्रमादित्य को जब यह बात मालूम हुई तो वह लौटकर अपने देश में आये । उस समय आधी रात का समय था | जब वह अपनी राजधानी में प्रवेश करने लगे तो प्रवेश द्वार पर देव ने उन्हें रोका । राजा ने कहा, “मैं विक्रमादित्य हूँ । यह मेरी राजधानी है । तुम रोकने वाले कौन होते होते?”

देव बोला, “मुझे राजा इन्द्र ने इस नगर की चौकसी के लिए भेजा है । तुम वास्तव में राजा विक्रमादित्य हो तो आओ, पहले मुझसे युद्ध करो” । इस पर दोनों में लड़ाई हुई । बलशाली राजा विक्रमादित्य ने थोड़ी ही देर में देव को पछाड़ दिया । तब देव बोला, “हे राजन् ! तुमने मुझे हरा दिया । जाओ नगर में प्रवेश करो तथा प्रसन्नता पूर्वक शासन करो”।

इसके बाद जब राजा विक्रमादित्य राजधानी में प्रवेश करने लगे तो देव ने उन्हें फिर टोका और कहा, “राजन्, एक नगर और एक नक्षत्र में तुम तीन मनुष्य पैदा हुए थे । तुमने राजा के घर में जन्म लिया, दूसरे ने एक व्यापारी के घर और और तीसरे ने एक कुम्हार के घर जन्म लिया ।

तुम यहाँ पर राज करते हो, व्यापारी के घर पैदा होने वाला दूसरे देश में राज करता था । और कुम्हार के घर पैदा होने वाला एक दुष्ट तान्त्रिक बना | उस दुष्ट तान्त्रिक ने तन्त्र विद्या द्वारा, व्यापारी के घर पैदा होने वाले को, जान से मारकर शम्शान में पिशाच बना सिरस के पेड़ से लटका दिया है । अब वह तुम्हें मारने की फिराक में है । उससे सावधान रहना” |

इतना कहकर देव चला गया और राजा विक्रमादित्य गंभीर मुखमुद्रा लिए महल में आ गए । राजा को वापस आया देख सभी को बड़ी खुशी हुई । नगर में पूरे महीने आनन्द उत्सव मनाया गया । राजा विक्रमादित्य फिर से न्याय पूर्वक शासन करने लगे ।

एक दिन की बात है कि शान्तिशील नाम का एक योगी राजा के पास दरबार में आया और उसे एक फल देकर चला गया । राजा को आशंका हुई कि देव ने जिस तान्त्रिक को मेरा दुश्मन बताया था, कहीं यह वही तो नहीं है ! यह सोच उन्होंने फल नहीं खाया, और संरक्षित रखने के लिए भण्डारी को दे दिया । वह योगी अक्सर आता और राजा को एक फल दे जाता ।

संयोग से एक दिन राजा अपना अस्तबल देखने गए थे । योगी वहीं पहुँच गया और फल राजा के हाथ में दे दिया । राजा ने उसे उछाला तो वह हाथ से छूटकर धरती पर गिर पड़ा । उसी समय एक बन्दर ने झपटकर उसे उठा लिया और तोड़ डाला । उसमें से एक माणिक्य निकला, जिसकी चमक से सबकी आँखें चौंधिया गयीं । राजा को बड़ा अचरज हुआ । उन्होंने योगी से पूछा, “आप यह माणिक्य मुझे रोज़ क्यों दे जाते हैं?”

योगी ने जवाब दिया, “महाराज ! राजा, गुरु, ज्योतिषी, वैद्य और बेटी, इनके घर कभी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए ।” राजा ने भण्डारी को बुलाकर पीछे के सब फल मँगवाये । तुड़वाने पर सबमें से एक-एक माणिक्य निकला । इतने माणिक्य देखकर राजा को बड़ा हर्ष हुआ ।

उन्होंने जौहरी को बुलवाकर उनका मूल्य पूछा । जौहरी बोला, “महाराज, ये माणिक्य इतने कीमती हैं कि इनका मोल करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं में भी नहीं आँका जा सकता । एक-एक माणिक्य एक-एक राज्य के बराबर है।”

यह सुनकर राजा योगी का हाथ पकड़कर गद्दी पर ले गए । बोले, “योगीराज, आप सुनी हुई बुरी बातें, दूसरों के सामने नहीं कही जातीं, बताइए क्या चाहते हैं आप मुझसे” | योगी के आग्रह पर फिर राजा उन्हें अकेले में ले गए ।

वहाँ जाकर योगी ने कहा, “महाराज, बात यह है कि गोदावरी नदी के किनारे श्मशान में मैं एक मंत्र सिद्ध कर रहा हूँ । उसके सिद्ध हो जाने पर मेरा मनोरथ पूरा हो जायेगा । आप एक रात मेरे पास रहेंगे तो मंत्र सिद्ध हो जायेगा । एक दिन रात को हथियार छोड़कर आप अकेले मेरे पास आ जाइएगा”|

राजा ने कहा “अच्छी बात है” | इसके बाद योगी दिन और समय बताकर अपने मठ में चला गया । वह दिन आने पर राजा अकेला, निहत्था वहाँ पहुंचे । योगी ने उन्हें अपने पास बिठा लिया । थोड़ी देर बैठकर राजा ने पूछा, “महाराज, मेरे लिए क्या आज्ञा है?”

योगी ने कहा, “राजन्, “यहाँ से दक्षिण दिशा में दो कोस की दूरी पर श्मशान में एक सिरस के पेड़ पर एक मुर्दा लटका है । उसे आप मेरे पास ले आइये, तब तक मैं यहाँ पूजा करता हूँ” |

यह सुनकर राजा विक्रमादित्य, मन ही मन मुस्कुराते हुए, वहाँ से चल दिए । बड़ी भयंकर रात थी । चारों ओर अँधेरा फैला था । पानी बरस रहा था । भूत-प्रेत शोर मचा रहे थे । साँप आ-आकर पैरों में लिपटते थे । लेकिन राजा हिम्मत से आगे बढ़ते गए । जब वह श्मशान में पहुंचे तो देखते क्या है कि शेर दहाड़ रहे हैं, हाथी चिंघाड़ रहे हैं, भूत-प्रेत मनुष्यों को मार रहे हैं ।

राजा विक्रमादित्य, निडर हो कर चलते गए और सिरस के पेड़ के पास पहुँच गए । पेड़ जड़ से लेकर पत्तियों तक तक अग्नि से दहक रहा था । राजा ने सोचा, हो-न-हो, यह वही योगी है, जिसकी बात देव ने बतायी थी । पेड़ पर रस्सी से बँधा मुर्दा लटक रहा था । राजा विक्रमादित्य पेड़ पर चढ़ गए और तलवार से रस्सी काट दी । मुर्दा नीचे किर पड़ा और मनहूस आवाज में रोने लगा ।

राजा ने नीचे आकर पूछा, “तुम कौन है?” राजा का इतना कहना था कि वह मुर्दा खिलखिलाकर हँस पड़ा । राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ । तभी वह मुर्दा फिर से उछलकर पेड़ पर जा लटका । राजा विक्रमादित्य फिर से चढ़कर ऊपर गए और रस्सी काट, मुर्दे को अपनी काँख में दबा कर नीचे आये । फिर उससे पूछा, “बता, तू कौन है?”

मुर्दा चुप रहा । तब राजा ने उसे एक चादर में बाँधा और योगी के पास ले चला । रास्ते में वह मुर्दा बोला, “मैं बेताल हूँ । तू कौन है और मुझे कहाँ ले जा रहा है?” राजा ने कहा, “मेरा नाम विक्रम है । मैं धारा नगरी का राजा हूँ । मैं तुझे एक योगी के पास ले जा रहा हूँ ।”

बेताल बोला, “मैं एक शर्त पर चलूँगा । अगर तू रास्ते में बोलेगा तो मैं लौटकर पेड़ पर जा लटकूँगा” | राजा ने उसकी बात मान ली । फिर बेताल बोला, “पण्डित, चतुर और ज्ञानी, इनके दिन अच्छी-अच्छी बातों में बीतते हैं, जबकि मूर्खों के दिन कलह और नींद में । अच्छा होगा कि हमारी राह भली बातों की चर्चा में बीत जाये । इसके लिए मैं तुझे एक कहानी सुनाता हूँ । ले, सुन।”

इस प्रकार से बेताल ने विक्रम को एक-एक करके, पच्चीस रातों में पच्चीस कहानियाँ सुनाई | बेताल द्वारा विक्रम को सुनायी गयी इन्ही पच्चीस कहानियों को ‘बेताल पचीसी’ या ‘विक्रम बेताल की कहानियाँ’ नाम से लिपिबद्ध किया गया है |

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