भारतवर्ष रहस्यों का देश है, कहानियों का देश है | सहस्त्राब्दियों से यहाँ कहानियां देश को नयी दिशा देती आयी है | यहाँ प्रचलित कहानियाँ सिर्फ मनोरंजन के लिए नहीं होती थी बल्कि वो शिक्षा और संस्कार के नए प्रतिमान स्थापित करती थी | ये कहानियां सिर्फ कहानियां नहीं बल्कि इतिहास का जीवंत रूप है | इतिहास उन महापुरुषों का जिन्होंने इस देश के भाग्य को बदला |
इन्ही कहानियों में से एक कहानी श्रंखला है सिंघासन बत्तीसी की | सिंघासन बत्तीसी भी विश्व की आदि भाषा संस्कृत की रचना है जो उत्तरी संस्करण में सिंहासनद्वात्रिंशति तथा “विक्रमचरित” के नाम से दक्षिणी संस्करण में भी उपलब्ध है । पहले के संस्करण कर्ता एक मुनि कहे जाते हैं जिनका नाम क्षेमेन्द्र था । देश के पूर्वी भाग बंगाल में वररुचि के द्वारा प्रस्तुत हुए संस्करण को भी इसी के समरुप माना जाता है ।
लेकिन इस कथा श्रंखला का दक्षिणी रुप ज्यादा लोकप्रिय हुआ तथा समय-समय पर इसका स्थानीय भाषाओं में अनुवाद होता रहा और ये कहानियां पौराणिक कथाओं की तरह भारतीय समाज में मौखिक परम्परा के रुप में रच-बस गयी । ऐसा अनुमान है कि इन कथाओं की रचना “वेतालपञ्चविंशति” या “बेताल पच्चीसी” के बाद हुई पर निश्चित रुप से इनके रचनाकाल के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है ।
लेकिन जयादातर विद्वान इस बारे में एकमत है कि इनकी रचना धारा के राजा भोज के समय में नहीं हुई । चूंकि प्रत्येक कथा राजा भोज का उल्लेख करती है, अत: इसका रचना काल रजा भोज के शासन काल के बाद का ही होगा । इसे द्वात्रींशत्पुत्तलिका के नाम से भी जाना जाता है ।
इन कहानियों के प्रारंभ में कथा आती है वो राजा भोज की कहानी कहती है । इस श्रंखला में कुल ३२ कथाएँ ३२ पुतलियों के मुख से कही गई हैं जो एक अद्भुत एक सिंहासन में लगी हुई थीं । वो सिंघासन महान सम्राट विक्रमादित्य का था | और यह दैवीय सिंहासन राजा भोज को विचित्र परिस्थितयों में प्राप्त होता है ।
सिंघासन बत्तीसी की प्रारम्भिक कथा के अनुसार एक दिन धार के राजा भोज को मालूम पड़ता है कि उनके राज्य का एक साधारण-सा चरवाहा अपनी न्यायप्रियता के लिए विख्यात है, जबकि वास्तव में वह बिल्कुल अनपढ़ है तथा पुश्तैनी रुप से उनके ही राज्य के कुम्हारों की गायें, भैंसे तथा बकरियाँ चराता है । जब आश्चर्यचकित हुए राजा भोज ने इसकी जांच कराई तो पता चला कि वह चरवाहा सारे न्याय एक उभरी हुई धरती के टीले पर चढ़कर करता है ।
राजा भोज स्वभावतः शान्त, गंभीर जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे | उनकी जिज्ञासा अब तक बढ़ चुकी थी और उन्होंने खुद भेष बदलकर उस चरवाहे को एक जटिल मामले में फैसला करते देखा । उसके बुद्धिमत्ता पूर्ण न्याय और आत्मविश्वास से राजा भोज इतना अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने खुद उससे उसकी इस अद्वितीय क्षमता के बारे में जानना चाहा ।
एक साधारण से व्यापारी के वेश में उन्होंने उससे पूछा “अरे बालक, न्याय तो तुम विचित्र करते हो, ऐसा उत्तम न्याय तो स्वयं राजा भोज भी न कर सकें, कौन हो तुम महाभाग”? प्रश्न सुन कर चंद्रभान नाम का वो चरवाहा चौंक गया | सामने साधारण वेश में एक ओजस्वी पुरुष को देखकर उसने कहा “अरे यह मेरी अपनी क्षमता नहीं है |
बल्कि जब मै उस टीले पर बैठता हूँ तो अपने अन्दर एक नयी और असाधारण ऊर्जा का सन्चार अनुभव करता हूँ और तभी ऐसे न्याय कर पाता हूँ | टीले से उतरने के बाद मै एक साधारण चरवाहा हूँ” | चरवाहे से ऐसी बातें सुनकर राजा भोज स्तब्ध रह गए | राजा भोज ने उस टीले की और आस-पास की सारी ज़मीन खुदवाने का निश्चय किया |
जब उस भूमि की खुदाई सम्पन्न हुई तो वहाँ उस धरती के नीचे एक राज सिंहासन मिट्टी में दबा दिखा । वह सिंहासन अद्भुत, अद्वितीय था, मानो उसे दैव शिल्पी विश्वकर्मा ने स्वयं बनाया हो । उसमे बत्तीस पुतलियाँ लगी थीं तथा कीमती रत्न जड़े हुए थे, जो दूसरी दुनिया के लग रहे थे ।
जब उस पर लगी धूल-मिट्टी की सफ़ाई हुई तो पूरे सिंहासन की सुन्दरता देखते बनती थी । पूरा सिंहासन इतना विशालकाय था कि उसे उठाकर महल लाने में कई प्रकार के यंत्रों का सहारा लिया गया तथा शुभ मुहूर्त में राजा का बैठना निश्चित किया गया ।
लेकिन जिस समय सिंहासन पर आसीन होने के लिए राजा भोज ने उसकी सीढ़ियों की तरफ़ कदम बढ़ाया ठीक उसी समय सिंहासन में जड़ी हुई सारी यांत्रिक पुतलियाँ जीवंत हो कर राजा का उपहास करने लगीं ।
राजा भोज इस प्रकार पुतलियों को हँसते देख कर आश्चर्य चकित हो गये | उन्होंने उन पुतलियों से इस प्रकार खिलखिला कर हंसने का कारण पूछा तो सारी पुतलियाँ एक-एक कर राजा भोज से सम्राट विक्रमादित्य की कहानी सुनाने लगीं तथा बोली कि “यह सिंहासन सम्राट विक्रमादित्य का है तथा इस सिंहासन पर बैठने वाले को उनकी ही तरह योग्य, पराक्रमी, दानवीर तथा विवेकशील होना चाहिए” ।
राजा भोज ने उन पुतलियों से पूछा “सम्राट विक्रमादित्य किस प्रकार से महान राजा थे” | राजा भोज के अनुरोध पर उन बत्तीस पुतलियों ने एक-एक करके सम्राट विक्रमादित्य की बत्तीस कहानियाँ, राजा भोज को सुनायी जिनसे सम्राट का महान चरित्र झलकता था | बाद में चल कर यही कथाएं सिंघासन बत्तीसी के नाम से प्रसिद्ध हुईं |
पूरे भारतीय उप महाद्वीप में ये कथाएँ इतनी लोकप्रिय हैं कि कई संकलनकर्त्ताओं ने इन्हें अपनी-अपनी तरह से प्रस्तुत किया है । लगभग सभी संकलनों में उन बत्तीस पुतलियों के नाम दिए गए हैं पर प्रायः हर संकलन की कथाओं में कथाओं के क्रम में तथा नामों में और उनके क्रम में भिन्नता पाई जाती है ।