जमीन की खुदाई से निकले विक्रमादित्य के स्वर्ण सिंहासन की दूसरी पुतली ने राजा भोज को विक्रम और बेताल की कथा सुनायी, जो जगत प्रसिद्ध है | इस कथा के अनुसार एक बार राजा विक्रमादित्य आखेट खेलते-खेलते एक ऊँचे पहाड़ पर आए । वहाँ उन्होंने देखा एक साधु तपस्या कर रहे है । साधु की तपस्या में विघ्न नहीं पड़े यह सोचकर वे उसे श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके लौटने लगे ।
उनके मुड़ते ही साधु ने आवाज़ दी और उन्हें रुकने को कहा । विक्रमादित्य वहीँ रुक गए और उन साधु ने उनसे प्रसन्न होकर उन्हें एक चमत्कारी फल दिया । उन्होंने विक्रम से कहा “जो भी इस फल को खाएगा उसे अत्यंत तेजस्वी और यशस्वी पुत्र प्राप्त होगा” । विक्रमादित्य जब फल प्राप्त कर अपनी राजधानी लौट रहे थे, तो मार्ग में उनकी नज़र एक तेज़ी से दौड़ती हुई महिला पर पड़ी । दौड़ते-दौड़ते वह एक कुँए के पास आई और छलांग लगाने को उद्यत हुई ।
विक्रम ने अपने रथ से उतर कर उसे थाम लिया और इस प्रकार आत्महत्या करने का कारण जानना चाहा । महिला ने बताया कि उसकी कई लड़कियाँ हैं पर पुत्र एक भी नहीं । चूँकि हर बार उसके गर्भ से कन्या ही जन्म लेती है, इसलिए उसका पति उससे अप्रसन्न है और उससे गाली-गलौज तथा मार-पीट करता है । वह अपनी इस दुर्दशा से तंग होकर आत्महत्या करने जा रही थी ।
राजा विक्रमादित्य को उस स्त्री की दशा पर दया आई | उन्होंने, कुछ देर पहले उन साधू की कृपा द्वारा प्राप्त उस चमत्कारी फल को उस स्त्री को दे दिया तथा उसे आश्वासन दिया कि अगर उसका पति फल खाएगा, तो इस बार उसे पुत्र ही होगा और वो यशस्वी होगा । कुछ दिन बीत गए । एक दिन एक ब्राह्मण विक्रम के पास आया और उसने वही फल उसे फिर भेट किया । उसी फल को दुबारा पा कर विक्रम उस स्त्री की चरित्रहीनता से बहुत दुखी हुए । ब्राह्मण को विदा करने के बाद वे वही फल लेकर अपनी राजसभा में पहुंचे । वहां उन्होंने अपने सेवकों से उस स्त्री को बुलवाया |
उस स्त्री ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया | विक्रम ने पूरे प्रकरण की जाँच करायी तो पता चला वह स्त्री नगर के सुरक्षा अधिकारी से प्रेम करती थी । उसने विक्रम द्वारा दिया गया वह फल नगर सुरक्षा अधिकारी को दे दिया ताकि उसके घर यशस्वी पुत्र जन्म ले ।
उधर नगर सुरक्षा अधिकारी एक वेश्या के प्रेम में पागल था और उसने वही फल उस वेश्या को दे दिया । वेश्या ने सोचा कि वेश्या का पुत्र लाख यशस्वी हो तो भी उसे सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त हो सकती है ।
उसने काफी सोचने विचारने के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि इस फल को खाने का असली अधिकारी राजा विक्रमादित्य ही हैं । उनका पुत्र उन्ही की तरह योग्य और सामर्थ्यवान होगा तो प्रजा की देख-रेख और पालन अच्छी तरह से करेगा और सभी खुश रहेंगे । यही सोचकर उसने, एक ब्राह्मण के हांथों विक्रमादित्य को वह फल भेंट कर दिया । फल को देखकर विक्रमादित्य आश्चर्य चकित रह गए ।
विक्रमादित्य अपनी प्रजा का पालन उचित रूप से करते थे इसलिए उनके राज्य में सभी सुखी थे | वे देवताओं और मनुष्यों को समान रुप से प्रिय थे, यहाँ तक की देवराज इन्द्र ने उनके राज्य की रक्षा के लिए एक शक्तिशाली देव नियुक्त किया हुआ था । वह देव विक्रमादित्य के राज्य की बड़ी तत्परता से रक्षा तथा पहरेदारी करता था ।
कुछ दिनों के बाद उस देव ने विक्रमादित्य को बताया कि उनका एक प्रबल शत्रु उनके वध के लिए, उन्ही के राज्य में, एक महाशक्ति की सिद्धि के लिए साधना कर रहा है | उस देव शक्ति ने सम्राट विक्रमादित्य को बताया कि अगर उस शत्रु ने उस महाशक्ति को सिद्ध कर लिया तो, विक्रम का उससे बच पाना लगभग असंभव होगा लेकिन यदि विक्रम ने उसका वध कर दिया तो लम्बे समय तक वे निर्विघ्न राज्य करेंगे | विक्रम ने उस देवशक्ति को धन्यवाद् दिया और सावधान हो गया |
इस घटना को कुछ महीने बीत गए | एक दिन उनके दरबार में एक योगी आ पहुँचा । उसने कहा “विक्रम तुम्हारा कल्याण हो” | फिर उसने राजा को एक ऐसा फल दिया जिसे काटने पर उसके अन्दर से एक बेहद दुर्लभ और मूल्यवान माणिक्य निकला ।
विक्रम ने उस योगी के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की और उनको, उनकी मुहमांगी इच्छा पूरी करने का आश्वासन दिया | ऐसा आश्वासन पाने के बाद उस योगी ने विक्रमादित्य से अपनी सहायता का वचन लिया । विक्रम सहर्ष तैयार हो गए और उसके साथ चल पड़े ।
विक्रमादित्य के रथ से वे दोनों श्मशान पहुँचे तो योगी ने बताया कि एक पेड़ पर बेताल लटक रहा है और एक सिद्धि के लिए उसे बेताल की आवश्यकता है । उसने विक्रम से अनुरोध किया कि वे बेताल को उतार कर उसके पास ले आएँ । सिद्धि और बेताल की बात सुन कर विक्रम चौकन्ने हो गए | उन्हें उस देवशक्ति की बात याद आ गयी |
लेकिन फिर भी, चूंकि उन्होंने उस योगी की सहायता का उसे वचन दे दिया था इसलिए विक्रम वहाँ से तीन कोस दूर उस पेड़ से बेताल को उतार कर कंधे पर लादकर लाने के लिए चल दिए । वह बेताल हर रात उन्हें एक कथा सुनाता और कथा सुनाने से पहले शर्त रख देता कि अगर विक्रम ने कुछ बोलने के लिए अपना मुह खोला तो वह बेताल वापस, उसी पेड़ पर जा कर बैठ जाएगा |
लेकिन कथा के अंत में वह विक्रम से एक प्रश्न पूछता जो उसी कथा से सम्बंधित होता और साथ ही वह विक्रम से यह भी कहता कि अगर विक्रम ने उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दिया तो विक्रम के सर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे |
विक्रम हर बार उसके प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर देते लेकिन विक्रम के बुद्धिमत्ता पूर्ण उत्तर से प्रसन्न होने के बाद भी, अपनी शर्त के अनुसार हर बार बेताल उड़कर वापस उसी पेड़ पर बैठ जाता | इसी प्रकार से चौबीस रात्रियाँ बीत गयी और इन चौबीस रात्रियों में बेताल ने उन्हें चौबीस कहानियां सुनायी | हर बार विक्रम धैर्य पूर्वक अपने वचन को निभाने के लिए उसे लाने का प्रयास करते रहे |
पच्चीसवीं बार बेताल ने विक्रम को बताया कि जिस योगी ने उसे लाने भेजा है वह दुष्ट और धोखेबाज़ है । उसकी तांत्रिक सिद्धी की आज समाप्ति है तथा आज वह विक्रम की बलि दे देगा जब विक्रम देवी के सामने सर झुकाएगा । राजा की बलि से ही उसकी सिद्धि पूरी हो सकती है । फिर उस बेताल ने विक्रम से कहा कि वह विक्रम से प्रसन्न है अतः वह उसकी सहायता करेगा |
उन्होंने बेताल को धन्यवाद दिया और उसे लादकर सन्यासी के पास आए । सन्यासी उसे देखकर अत्यन्त हर्षित हुआ और विक्रम से उसने देवी के चरणों में सर झुकाने को कहा । विक्रम ने (बेताल के कहे अनुसार) सन्यासी को सर झुकाकर, सर झुकाने की विधि बतलाने को कहा । ज्योंहि सन्यासी ने अपना सर देवी के चरणों में झुकाया तुरंत ही विक्रम ने तलवार से उसकी गर्दन काट दी ।
देवी बलि पाकर प्रसन्न हुईं और उन्होंने विक्रम को दो बेताल सेवक दिए । उन्होंने कहा कि स्मरण करते ही ये दोनों बेताल विक्रम की सेवा में उपस्थित हो जाएँगे । विक्रम देवी का आशिष पाकर आनन्दपूर्वक वापस महल में लौट आये ।