भगवान राम के अवतार लेने का रहस्य

bhagwaan ramभगवान् राम के अवतार के सम्बन्ध में केवल आम जनमानस को ही कौतूहल नहीं होता, अपितु लीलाधारी भगवान् शंकर भी अपनी अर्धांगिनी, माँ पार्वती के प्रश्नों का व्यापक उत्तर देते हैं | श्री रामचरितमानस में भगवती पार्वती ने भगवान श्री राम के अवतार के कारण के संबंध में भगवान शंकर से पूछते हुए कहा-जो चिन्मय ब्रह्म सर्वव्यापक, अविनाशी और घट-घटवासी है, भला उसे नर शरीर धारण करने की क्या आवश्यकता हुई?

इसके उत्तर में भगवान शंकर ने कहा कि भगवान राम के अवतार ग्रहण का एकमात्र यही कारण है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है, फिर भी संतों और वेद-पुराणों ने भगवान के अवतार के विषय में जैसा अनुमान किया है, वैसा ही मैं तुम्हारे समक्ष कहूंगा। जब-जब धर्म की मर्यादा ध्वस्त होती है, अधर्म और अभिमान की वृद्धि होती है; गाय, ब्राह्मण, देवता और पृथ्वी पर अत्याचार बढ़ता है, तब-तब विविध शरीर धारण कर के परमात्मा असुरों का संहार करते हैं तथा धर्म को इस जगत में पुनः स्थापित करते हैं |

रहस्यों का उद्घाटन करते हुए भगवती पार्वती से भगवान शंकर पुनः कहते हैं, “इन सामान्य कारणों के अतिरिक्त भगवान श्री राम के अवतार के परम विचित्र अनेक कारण हैं, जिनमें से कुछ का उल्लेख मैं तुम्हारे सम्मुख करूँगा |

प्रथम कारण, वैकुण्ठ में भगवान विष्णु के जय और विजय नाम के जो दो द्वारपाल रहते हैं, उनसे सम्बंधित है । एक बार उनके मन में ऐसा विचार आया कि सभी, हमारे आराध्य भगवान् विष्णु की ही पूजा-आरती करते हैं, हमारी कोई करता ही नहीं। आज जो पहले हमारी पूजा-आरती करेगा, उसे ही भीतर जाने देंगे।

उस दिन संयोग से सनकादिक मुनि आ गये। जय-विजय ने अपने अभिमान में उन्हें भीतर जाने से रोक दिया तो उन्होंने शाप दे दिया कि तुम दोनों की अधोगति हो, जाओ निशिचर हो जाओ। फलतः दोनों हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक महा शक्तिशाली दैत्य हुए। उनको मुक्त करने के लिये भगवान को अवतार लेना पड़ा |तीन जन्म तक जय और विजय निशाचर बने तथा अवतार लेकर भगवान ने उन्हें मुक्त किया।

दूसरे कारण में जलन्धर के लिये भगवान को राम के रूप में अवतार ग्रहण करना पड़ा । ये दूसरे कल्प की बात है | असुर वृत्ति वाले जलन्धर की पत्नी वृन्दा परम सती थी। उसके सतीत्व के प्रताप से, तेज़ से, शक्ति से जलन्धर को कोई मार नहीं पाता था। भगवान शंकर भी उसे नहीं मार पाये। तब भगवान विष्णु ने जलन्धर का शरीर धारण कर वृन्दा का सतीत्व हरण किया और जलन्धर को मारा। वही जलन्धर अगले जन्म में रावण बना, जिसको मारने के लिये भगवान् राम को अवतार लेना पड़ा |

तीसरा कारण के मूल में जो घटना है उसके अनुसार एक बार नारद मुनि के शाप के कारण भगवान को नर शरीर ग्रहण करना पड़ा। जब भगवान शंकर ने नारद द्वारा भगवान को शाप देने की बात कही तो गिरिजा चकित हो गयीं। उन्होंने कहा कि नारद जी भगवान के परम भक्त और ज्ञानी हैं। अतः उनके द्वारा शाप दिया जाना असम्भव प्रतीत होता है |

इस प्रसंग में भगवान शंकर ने एक अटल सिद्धांत का प्रतिपादन किया। वे बोले संसार में न कोई ज्ञानी है, न मूढ़। यह तो भगवान की लीला है, जब जिसे चाहें ज्ञानी बना दें या ज्ञानी को मूढ़ बना दें। पुनः विस्तारपूर्वक भगवान शंकर ‘नारदमोह’ की कथा पार्वती को सुनाते हैं। उसका वर्णन अन्यत्र किया गया है |

चौथा कारण था मनु और शतरूपा को दर्शन देने के लिये भगवान द्वारा नर शरीर ग्रहण करना । भगवान शंकर अवतार के हेतु की कथा सुनाते हुए आगे बताते हैं | मानवी सृष्टि के आदि पिता मनु ने हजारों वर्ष तक राज्य किया, किंतु उनके मन में अभी संसार से वैराग्य उत्पन्न नहीं हुआ।

एक बार अपने भोगमय जीवन पर उन्हें ग्लानि हुई। अतः एक दिन अपने बड़े पुत्र को राज्य देकर वे वन में तपस्या करने चल दिये। महारानी शतरूपा भी उनके साथ नैमिषारण्य पहुंचीं। मनु की मानसिक स्थिति का वर्णन गोस्वामी जी ने अपनी रचना में किया हैं |

मनु-शतरूपा ने कठोर तपस्या की। उनकी तपस्याओं से प्रसन्न होकर विधाता, हरि, हर अनेक बार मनु को वरदान देने आये, किंतु मनु ने आँखें नहीं खोलीं। अंत में जब भगवान श्री राम उनके समक्ष प्रकट हुए तो मनु ने वरदान मांगा कि मुझे आप जैसा ही एक पुत्र चाहिये | इस प्रकार राजा मनु के वरदान को पूर्ण करने के लिये भगवान को नर शरीर धारण करना पड़ा।

पाँचवें कारण के मूल में एक अलग कल्प की कथा है जिसके अनुसार राजा सत्यकेतु के पुत्र चक्रवर्ती राजा भानु प्रताप का उद्धार करने के लिये भगवान को नर शरीर धारण करना पड़ा। भानु प्रताप अत्यन्त प्रतापी और धार्मिक राजा थे। निष्काम भाव से उन्होंने अनेक यज्ञ किये। उनके प्रताप से पृथ्वी धन-धान्य से परिपूर्ण हो गयी। एक दिन शिकार खेलते हुए भानु प्रताप जंगल में भटक गये।

रात्रि में उन्हें जंगल से बाहर आने का मार्ग नहीं मिला। इसी बीच उन्हें एक कपटी मुनि मिला, जिसके चक्र में पड़ कर भानु प्रताप का बहुत अहित हो गया। ब्राह्मणों के शाप से उन्हें रावण बनना पड़ा है, जिनको मुक्त करने के लिये भगवान को राम का शरीर धारण करना पड़ा है।

रावण शरीर धारण कर भानु प्रताप ने नाना प्रकार के अत्याचारों से गाय, ब्राह्मण, देवता और पृथ्वी को त्रस्त कर दिया। रावण के अत्याचार का वर्णन विस्तार सहित श्री रामचरितमानस में किया गया है। रावण के अत्याचार से संत्रस्त देवताओं ने पृथ्वी समेत ब्रह्मा जी से अपनी मुक्ति के लिये प्रार्थना की। शिव जी के आदेश अनुसार ब्रह्मा आदि सभी देवों ने भगवान की स्तुति की।

स्तुति के प्रभाव से भगवान ने अपने अवतार की आकाशवाणी की | इस प्रकार अपनी वाणी को निभाने के लिये भगवान ने भाइयों के साथ अयोध्या में अवतार लिया। इस प्रकार भक्तों के प्रेम के वशीभूत होकर समष्टि को व्यष्टि, निर्गुण को सगुण और निराकार को साकार बनना पड़ा तथा बालक बनकर माता कौशल्या की गोद का आश्रय लेना पड़ा |

इन कारणों के अतिरिक्त भगवान ने अपने भक्त विभीषण को बतलाया कि मैं केवल तुम्हारे-जैसे संतों के लिये ही अवतार ग्रहण करता हूँ, मेरे अवतार का अन्य कोई प्रयोजन नहीं है | श्री रामावतार करूणावतार ही है | श्री भगवान के परम कृपामात्र गोस्वामी श्री तुलसीदास जी महाराज विनय-पत्रिका (170)-में कहते हैं “हे प्रभो! मेरे सभी अंग आपके चरणों से विमुख हैं। केवल इस मुख से आपके नाम की ओट ले रखी है (और यह इसलिये कि) तुलसी को एक यही निश्चय है कि आपकी मूर्ति कृपामयी है (अर्थात आप कृपासागर होने के कारण, नाम के प्रभाव से मुझे अवश्य अपना लेंगे)।

जैसे मिटटी, लोहा, चाँदी, सोना, हीरा आदि जिस किसी भी पदार्थ की मूर्ति बनी हो, उसमें तत्तद् वस्तुएं ही प्रधान रहती हैं, उसी प्रकार श्री राम में कृपा एवं करूणा तत्व ही प्रधान हैं। उनके अवतरण का उददेश्य भी जीवों पर करूणा तथा कृपा करके उनका उद्धार करना ही है। इस प्रकार से, यद्यपि श्री रामावतार करूणावतार एवं कृपावतार ही है तथापि मुख्य और अवान्तर भेद से श्री रामावतार के अनेक उददेश्य हैं, जो परम विचित्र हैं।

गोस्वामी जी ने रामावतार कारण श्री रामचरितमानस में इस प्रकार प्रकट किया है-धर्म की हानि, अधर्म रूपी अभिमानी असुरों की वृद्धि, अनीति का आचरण तथा ब्राह्मण, गौ, देवता तथा पृथ्वी का दुःखी होना | धर्म, अर्थ तथा काम में सामजंस्य रखने वाली प्रणाली ही नीति कहलाती है, पर ये अधम असुर धर्म नीति के विपरीत चलते हैं। तब कृपानिधि प्रभु विविध अवतार धारण कर सज्जनों की पीड़ा का हरण करते हैं |

अवतरित होकर कृपा सिंधु परम आनंद का विस्तार करते हैं। श्री भगवान के प्रिय पार्षद जय-विजय सनकादि मुनियों के शाप से जब हिरण्यकशिपु-हिरण्याक्ष हुए, तब नृसिंह तथा वाराह रूप धारण कर प्रभु ने उनका वध किया; रावण, कुम्भकर्ण को श्री राम रूप में मारा, शिशुपाल दन्तवक्त्र का उद्धार श्री कृष्ण रूप में किया।

दूसरी बार, दूसरे कल्प में, जब जलन्धर की स्त्री ने शाप दिया तब रामावतार हुआ। यहाँ भी भगवान विशेषण कृपालु ही रहा है। तीसरी बार नारद जी ने शाप दिया, पर जब श्री भगवान ने माया का आवरण दूर कर दिया, तब माया का प्रभाव मिट गया-नारद जी पछताने लगे। यहाँ भी भगवत्कृपा ही झलकती है।

चैथी बार न भक्त को शाप है न भगवान को। केवल श्री भगवत्कृपा का ही साम्राज्य झलकता दीखता है। श्री स्वायम्भुव मनु एवं माता शतरूपी जी ने तीर्थोत्तम नैमिषारण्य में जाकर आराधना, तपस्या, भजन द्वारा श्री भगवान सीताराम जी का शुभ दर्शन किया। इस प्रसंग में कृपा ही कृपा भरी है। महाराज मनु ने अपनी संतान, मानव-जाति के लिये अक्षय सम्पत्ति श्री भगवान को ही वर रूप में मांग लिया। इस स्थल पर कृपा की सर्वोत्तम झलक उजागर है।

श्री सीताराम जी की झाँकी अतीव बाँकी है, जो मानव जाति को नित्य प्राप्त अक्षय सम्पत्ति के रूप में है। भगवान ने मनु जी से वर मांगने के लिये कहा-
भगवान ने इतना कह दिया कि जो कुछ आप मांगेंगे, सब हम दे देंगे; यदि आप हमको मांगेंगे, तो हम अपने आपको भी देने को तैयार हैं |

इस पर मनु महाराज ने अपनी इच्छा प्रकट की | मनु जी की परम प्रीति देख कर करूणा निधि ने ‘एवमस्तु’ कहा और बताया कि मैं अपने समान दूसरा खोजने कहाँ जाऊँ (क्योंकि मेरे समान कोई दूसरा है ही नहीं), इसलिये हे राजन! मैं स्वयं ही तुम्हारा पुत्र बनकर आऊँगा|

श्री भगवान ने शतरूपी जी से कहा “माता जी ! जो वर आपको रूचे, आप हमसे मांग लें।” उन्होंने ने भी अपनी इच्छा प्रकट की | कृपा का सागर उमड़ पड़ा, सुखद आनंददायिनी लहरें आने लगीं। श्री भगवान ने कहा “अभी आप जो वरदान मांग रही हैं, मैं दे रहा हूं। मेरे अन्तर्धान होने के बाद कहीं आप प्रकृतिस्थ हो सोचने लगें कि अरे, भूल हो गयी। मैं तो कृपा और प्रेम के समुद्र में गोते लगा रही थी। यह नहीं मांगा-वह नहीं मांगा। तो मैया। सावधान हो सुन ले। तुम्हारे अन्तःकरण में छिपी हुई जो भी लालसा होगी सब परिपूर्ण है”।

तब श्री मनु जी ने पुनः कहा “हे प्रभो ! मेरी एक विनती और है-आपके चरणों में मेरी वैसी ही प्रीति हो जैसी पुत्र के लिये पिता की होती है, चाहे मुझे कोई बड़ा भारी मूर्ख ही क्यों न कहे” | ऐसा वरदान मांग कर राजा भगवान के चरण पकड़े रह गये। तब करूणा निधान भगवान ने कहा “ऐसा ही होगा ।” जब रावण के अत्याचारों से विश्व संत्रस्त हो गया। सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गयी। उसने नया कानून बनाया था-राक्षसों को सुखी करो, बाकी को फूंक दो, जला दो |

ब्रह्म आदि देव सब मिल के सदा की भांति स्तुति करने लगे। यह स्तवन सिद्ध कोटि का है, बड़े-बड़े संत-महात्माओं से सुना है, बाल काण्ड की ब्रह्म स्तुति परम सिद्ध स्तवन एवं अनुष्ठान स्वरूप है, नित्य प्रातः सायं आर्तभाव से इसका पाठ करने से शीघ्र ही श्री भगवान सुरक्षा करते हैं।

श्री अवधपुरी में एक महात्मा लाल दास जी परमहंस हो गये हैं, जिन्होंने जगत गुरू श्री रामानन्दाचार्य श्री हर्याचार्य जी को भागवत पढ़ाया था। वे जब श्री रामचरितमानस की चौपाई की व्याख्या करते थे तो विहृल होकर रोने लगते थे, कहते थे- भगवान राम कृपा करके व्याकुल हो जाते हैं, कहते हैं-अभी कुछ ही कृपा की है और कृपा करूँ, और कृपा करूँ। श्री भगवान थोड़ी सी शरणागति के भाव से पिघल जाते हैं, उनसे रहा नहीं जाता। कृपा करने के लिये वे बेचैन रहते हैं। इस प्रकार श्री राम अवतार भगवान की कृपा और करूणा का ही अवतार है।

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