आप में से बहुतों के मन में कभी न कभी ये प्रश्न जरूर उठा होगा कि जब मापन की अन्य इकाइयाँ, जैसे दूरी नापने की इकाई (मीटर, किलोमीटर आदि) तथा भार नापने की इकाई (ग्राम, किलोग्राम आदि), 10, 100, 1000 आदि के अंतर से बढ़ती या घटती हैं तो समय मापन की इकाई (जैसे सेकंड्स, मिनट्स, घंटे आदि) में केवल 60 का अंतर क्यों होता है?
कभी, जब आप बहुत अच्छा समय व्यतीत कर रहे हों तो दुःख भी होता होगा कि ये पल इतने जल्दी क्यों बीत रहे हैं लेकिन बुरे समय में इस बात का सन्तोष भी होता होगा कि अच्छा हुआ जो ये घंटे और मिनट्स 100-100 के नहीं हुए नहीं तो…!
अच्छा और बुरा समय तो मनुष्य के प्रारब्ध का विषय है लेकिन मूल प्रश्न यहाँ ये है कि आखिर पश्चिमी जगत के वैज्ञानिकों को ऐसा क्या समझ में आया कि उन्होंने एक मिनट में 60 सेकंड्स और एक घंटे में 60 मिनट्स निर्धारित किये? इतिहास के विद्वान इसे कुछ प्राचीन सभ्यताओं की देन मानते हैं |
कुछ इसे प्राचीन मिस्र का अविष्कार बताते हैं जो अपने दैनिक जीवन में समय के ज्ञान के लिए सूर्य घड़ी का उपयोग करते थे लेकिन आधुनिक युग के ज्यादातर विद्वान इस बात पर सहमत हैं कि मिस्र से भी पहले प्राचीन बेबीलोन के निवासी समय की गणना के लिए एक यन्त्र ‘Sexagesimal’ का प्रयोग करते थे जो 60 की संख्या में ही गणना करता था |
प्राचीन बेबीलोन निवासियों का नक्षत्र ज्ञान उच्च स्तर का था | निःसंदेह उन्होंने काफी उन्नति की लेकिन उन्होंने अपने ज्ञान की बहुत सारी चीजें (जिसमे काल गणना का ज्ञान भी था) प्राचीन सुमेरिया वासियों से सीखीं जो की आज से साढ़े चार हज़ार साल पहले अपनी सभ्यता और संस्कृति के शिखर पर थे|
ये तो हुई मान्यताओं की बात, आधुनिक युग के कुछ ‘बुद्धिजीवी’ और ‘प्रबुद्ध वर्ग’ के लोग इसमें परमाणु घड़ी या Atomic Watch को केंद्र में रखकर इन सिद्धांतों की व्याख्या करने की कोशिश करते हैं भले ही इसका उनसे कोई लेना-देना ना हो |
काल- गणना पर, दुनिया भर के विद्वानों द्वारा लिखे गए लेख और पुस्तकों के साथ-साथ इन्टरनेट पर उपलब्ध ज्ञान को उठा कर देख लीजिये आपको यूनान, रोम, मिस्र, मेसोपोटामिया, बेबिलोनिया सुमेरिया आदि सभ्यताओं के ज्ञान का वर्णन प्रमुखता से किया हुआ मिलेगा जबकि आपको ये जानकर सुखद आश्चर्य होगा की प्राचीन और आधुनिक काल- गणना का मुख्य आधार भारतीय ज्ञान था |
भारतीयों की इस काल- गणना की व्यवस्था (System) को जिस सभ्यता ने जिस मात्रा और रूप में ग्रहण किया उन्होंने उसी के अनुसार ज्योतिष और नक्षत्र विद्या में प्रगति की | आइये अब आपको प्राचीन भारतीय काल- गणना व्यवस्था (System) के कुछ प्रमुख बिंदु से अवगत कराते हैं |
भारतीय काल गणना कि विशेषता ही ये है कि ये अचूक एवं अत्यंत सूक्ष्म है. जिसमे ‘त्रुटी’ से लेकर प्रलय तक कि काल गणना की जा सकती है | ऐसी सूक्ष्म काल गणना विश्व के किसी और सभ्यता या संस्कृति में नहीं मिलती चाहे आप कितना भी गहन अन्वेषण कर लीजिये |
भारतीय सभ्यता के प्राचीनतम ग्रंथों में से एक ‘सूर्य सिद्धांत’ में, भारतीय व्यवस्था के अनुसार काल के दो रूप बताये गए हैं-:
अमूर्त काल-: ऐसा सूक्ष्म समय जिसको न तो देखा जा सकता है और न ही इन सामान्य इन्द्रियों से उनको अनुभव ही किया जा सकता है | उसकी गणना सामान्य तरीको से की भी नहीं जा सकती है | इनकी गणना विशेष प्रकार के यंत्रो से की जाती थी तथा इनका उपयोग भी कुछ विशेष शास्त्रों में हुआ है जैसे वैमानिक शास्त्र और शल्य चिकत्सा शास्त्र आदि |
मूर्त काल -: अर्थात ऐसा समय जिसकी गणना संभव है एवं उसको, सामान्य इन्द्रियों से देखा और अनुभव भी किया जा सकता है |
स्वयं सूर्य सिद्धांत बताता है कि यह ग्रन्थ 22,00,000 वर्ष पुराना है लेकिन समय-समय पर इसमें संशोधन एवं परिवर्तन भी होते रहे हैं | ऐसी मान्यता है कि अंतिम बार इसको भास्कराचार्य द्वितीय ने इसको, इसका वर्तमान स्वरुप दिया था, ऐसा भारतीय विद्वानों को मानना है | सूर्य सिद्धांत के अनुसार इस सौर-मंडल की काल-व्यवस्था (Time-System) का मुख्य आधार ही भगवान् भास्कर हैं |
सूर्य सिद्धांत के अनुसार काल गणना कि मूल इकाई ‘त्रुटी’ है जो एक सेकेण्ड के तीन करोड़वें भाग के बराबर होती है | 1 सेकंड में 3,24,00,000 ‘त्रुटियाँ’ होती हैं | ‘त्रुटी’ से ‘प्राण’ तक का समय अमूर्त एवं उसके बाद का समय मूर्त कहलाता है | सूर्य सिद्धांत में जो समय की सारिणी दी गयी है वो इस प्रकार है-:
सूर्य सिद्धांत कि समय सारणी
मूल इकाई त्रुटी
60 त्रुटी = 1 रेणु
60 रेणु = 1 लव
60 लव = 1 लेषक
60 लेषक = 1 प्राण
60 प्राण = 1 विनाड़ी
60 विनाड़ी = 1 नाड़ी
60 नाड़ी = 1 अहोरात्र (दिन-रात या 24 घंटे)
7 अहोरात्र =1 सप्ताह
2 सप्ताह = 1 पक्ष
2 पक्ष = 1 माह
2 माह = 1 ऋतु
6 माह = 1 अयन
12 माह = 1 वर्ष
4,32,000 वर्ष = कलियुग
8,64,000 वर्ष = द्वापरयुग
12,96,000 वर्ष = त्रेतायुग
17,28,000 वर्ष = सत्य युग
43,20,000 वर्ष = 1 चतुर्युग
71 चतुर्युग = 1 मन्वंतर (खंड प्रलय) (30,67,20,000 वर्ष)
14 मन्वंतर = 1 ब्रह्म दिन (4,29,40,80,000)
8,58,81,60,000 वर्ष = ब्रह्मा का एक अहोरात्र = 1 सृष्टि चक्र
अर्थात 8 अरब 58 करोड़, 81 लाख, 60 हज़ार वर्ष का एक सृष्टि चक्र होता है | यद्यपि ग्रहों, नक्षत्रो और तारा-मंडल की सूक्ष्म गतियों की वजह से इसमें कुछ अतिरिक्त वर्ष और जुड़ते हैं और ब्रह्मा जी का एक दिन यानि एक सृष्टि-चक्र 8,64,00,00,000 वर्ष का होता है किन्तु ये मनुष्यों का सृष्टि चक्र है और उनकी काल गणना के अनुसार है |
भारतीय विज्ञान हमें बताता है कि इस ब्रह्माण्ड में बहुत सी दूसरी योनियां हैं जिनका सृष्टि चक्र अलग है | ब्रह्माण्ड में जहाँ स्थान का विस्तार हुआ है, वहाँ समय की गति सूक्ष्म हो गयी है | रहस्यमय के पिछले एक लेख में ब्रह्माण्ड में स्थित विभिन्न लोकों के स्थान विस्तार का परिमाण (योजन में) बताया गया है |
जिसका जितना विस्तार है वहाँ समय की गति उतनी ही सूक्ष्म हो गयी है | यहाँ काल की सूक्ष्म गति का तात्पर्य यह नहीं भुक्त-काल का परिमाण कम हो गया है बल्कि इसका मतलब यह है की वहाँ के निवासी, अपेक्षाकृत अधिक सूक्ष्म स्तर के काल (समय) को देखने, समझने, अनुभव करने और भोगने में समर्थ हैं |
अधिक सूक्ष्म स्तर के काल को भोग सकने में समर्थ होने के परिणाम स्वरुप उनकी आयु भी अपेक्षाकृत अधिक होती है | महर्षि नारद कि गणना इससे भी सूक्ष्म है. नारद संहिता के अनुसार ‘लग्न काल’ त्रुटी का भी हजारवां भाग है अर्थात 1 लग्न काल, 1 सेकेण्ड के 32 अरबवें भाग के बराबर होगा |
इसकी सूक्ष्मता के बारे में नारद जी का कहना है कि स्वयं ब्रह्मा भी इसे अनुभव नहीं कर सकते तो साधारण मनुष्य कि बात ही क्या | स्पष्ट है कि लग्न-काल की सूक्ष्मता ब्रह्मा जी और उनके द्वारा उत्पन्न किये गए ब्रह्माण्ड से परे है |
ब्रह्मा जी के 360 अहोरात्र ब्रह्मा जी के 1 वर्ष के बराबर होते हैं और उनके 100 वर्ष पूरे होने पर इस अखिल विश्व ब्रह्माण्ड के महाप्रलय का समय आ जाता है तब सर्वत्र महाकाल ही अपनी महामाया के साथ विराजते हैं, काल का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता वहां |
इससे हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि प्राचीन भारतीय ज्ञान कितनी उन्नत अवस्था में था तो अगली बार जब भी आप घड़ी देखियेगा, अपने भारतीय होने पर गर्व कीजियेगा |