आज के मनुष्य की समस्त प्रकार की समस्याओं एवं कष्टों का मुख्य कारण इस बात में विश्वास करना है कि कुल मिलाकर जो कुछ है बस यही जीवन है जो भी सुख भोगना है, पैसा कमाना है, नाम कमाना है, उन सब के लिए….बस यही जीवन मिला है !
मेरी बात से बहुत लोग सहमती नहीं जताएंगे वो बोलेंगे कि नहीं ऐसा नहीं है, वो पुनर्जन्म, अलौकिक दुनिया में विश्वास रखते हैं और इस जीवन के साथ-साथ अपने संभावित पार्लौकिंक जीवन की बेहतरी के लिए भी सोचते हैं और उसके अनुसार कार्य करते हैं, जैसे पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा इत्यादि |
मेरा इन सभी लोगों से एक ही प्रश्न है कि “कितनी प्राथमिकता देते हैं आप अपने संभावित पार्लौकिंक जीवन को ?” मेरे इस प्रश्न का उत्तर आप स्वयं को दीजियेगा और स्वयं से विश्लेषण कीजियेगा, आपको मेरी ऊपर लिखी बात का मर्म समझ में आएगा |
मनुष्य से निम्न स्थिति के सारे जीवों में कर्म-सम्बन्ध नहीं है क्योकि उन जीवों में अहंकार का विकास न होने के कारण उनमे कर्म की सम्भावना नहीं होती है | वस्तुतः कीट-पतंग, पशु-पक्षी आदि की कोई गति नहीं होती |
शास्त्रों में उनके लिए किसी लोक का निर्देश नहीं है | उपनिषद में ‘जायस्व म्रियस्व’ ये दो बातें उनको लक्ष्य करके कही गयी हैं अतः वर्तमान गति का विवरण उनके सम्बन्ध में प्रयोज्य नहीं है |
जो महापुरुष इस देह में ही देह्पात के साथ-साथ परामुक्ति प्राप्त करते हैं उनकी भी कोई गति नहीं होती उनके शुभाशुभ कर्म पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं अतः उनकी मरणोत्तर गति का प्रश्न ही नहीं उठता |
वे लोग यथास्थित भाव में ही ब्राह्मी स्थिति प्राप्त करते हैं | उनके प्रारब्ध कर्म की समाप्ति के साथ-साथ उनकी देह का भी अवसान हो जाता है | देहावसान के बाद उनका कोई ऐसा कर्म रह नहीं जाता जिसके कारन उनकी कोई गति संभव हो |
जिन व्यक्तियों ने सकाम भाव से जीवन व्यतीत किया है, जिनके अंतर्मन में अभी ज्ञान का उदय नहीं हुआ है, पर जो निषिद्ध कर्म छोड़ कर केवल धर्मानुसार उचित कर्म करते रहे हैं, मृत्यु के बाद उनकी गति हुआ करती है इसको पित्रयान गति कहते हैं |
इस गति के फलस्वरूप वे अपने कर्म द्वारा अर्जित पुण्य के अनुसार स्वर्ग आदि लोक की उपलब्धि और भोग प्राप्त करते हैं | लेकिन ये अनित्य है | इसी कारण से पुण्य की मात्रा के अनुसार स्वर्गादि लोक में उनको भोग प्राप्त होता है | ये स्वर्गवास एक से अधिक स्वर्गों में भी हो सकता है |
भोग के समाप्त होने पर यानि पुण्यक्षय होने के साथ ही उनको इसी मृत्युलोक में जन्म ग्रहण करना पड़ता है | स्वर्ग से वापस आये जीव साधारणतः अच्छे वंश और अच्छे परिवार में ही जन्म ग्रहण करते हैं | यह जन्म ग्रहण उन जीवों के शेष कर्म द्वारा हुआ करता है |
जैसे पानी से भरे हुए बर्तन से पानी गिरा देने पर भी उस खाली बर्तन में पानी का कुछ अंश बचा रह जाता है (पानी की कुछ बूंदे चिपकी रह जाती हैं बर्तन से), ठीक उसी प्रकार से स्वर्गभोग के द्वारा क्षीण हो जाने पर भी जो कुछ पुण्यकर्म बचा रह जाता है उसी के फल से दोबारा वापसी होती है और मनुष्यदेह में जन्म होता है |
पापी के सम्बन्ध में भी कुछ इसी तरह की बात कही गयी है | पापी भी धूममार्ग के रास्ते से ही किन्तु बहुत कष्ट भोगते हुए नर्क जाता है | नर्क में उसको कई तरह की भीषण कष्टप्रद यंत्रणा भोगनी पड़ती है | स्वाभाविक (Natural) देह से इस प्रकार की कठिन यंत्रणाओ का भोग संभव नहीं है इसी कारण से वहां उस जीवात्मा को एक विशेष प्रकार की ‘यातना-देह’ मिलती है |
और इसी यातना-देह के साथ ही उस जीवात्मा को उस नर्क में प्रवेश करना पड़ता है | काफ़ी लम्बे समय तक कई प्रकार की यंत्रणा भोगने के बाद जीवात्मा उस यातना-देह को छोड़कर नर्क से वापस लौटता है | ऐसी जीवात्माओं में बहुत से पशु-पक्षी की देह धारण करते हैं |
बहुत सी जीवात्माएं जो मनुष्य देह धारण करती हैं उनके शरीर में कई प्रकार के नर्क-भोग के चिन्ह वर्तमान हो सकते हैं | किसी-किसी क्षेत्र में कठिन रोग लेकर देह धारण करना पड़ता है | कभी-कभी ये सारे व्यतिक्रम एक से अधिक जन्मो में भी संघटित हो सकते हैं | स्वर्ग की प्राप्ति या नर्क में पतन दोनों आपके कर्म के अनुसार निश्चित होते हैं लेकिन इन दोनों गतियों के फल से पुनरावर्तन निश्चित रूप से होता है |
साधारण परिस्थितियों में कोई सामान्य व्यक्ति अपने जीवन में अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कार्य करता है | यदि इन दोनों प्रकार के कार्यों का स्तर साधारण है तो सामान्यतः मृत्यु के पश्चात् वो व्यक्ति पुनः मनुष्य लोक में जन्म लेता है और नए जन्म में उसके साथ होने वाली घटनाओं का लेखा-जोखा उसके पूर्व जन्मों में किये गए कार्यों के अनुसार उसका प्रारब्ध तय करता है |
लेकिन अगर कोई व्यक्ति अपने वर्तमान जन्म में कोई असाधारण अच्छे या बुरे कर्म करता है तो उसके दोबारा मनुष्य जन्म में आने की संभावना कम होती है उसकी या तो उच्च गति होगी या अधोगति ये निर्भर करता है उसके कर्म पर |
इसी आधार पर ये लोक कहावत है कि जब कोई व्यक्ति बुरे कामों और लोगों को सताने की अति कर देता है तो लोग कहना शुरू कर देते है कि अब उसके पापों का घड़ा भर चुका है अर्थात अब अगर वो जीवात्मा शरीर छोड़ेगा तो सीधा नर्क जाएगा, मनुष्य लोक में अपने पापों को भोगने के पश्चात् ही आ पायेगा |
यहाँ पर जिन स्वर्गों का ज़िक्र किया गया है वे निम्न स्तर के स्वर्ग हैं | वो सकाम कर्म के फलस्वरूप प्राप्त होते हैं | इन निम्न स्वर्गों से ऊपर उच्च कोटि का उर्ध्व-स्वर्ग भी है | लेकिन वो ज्ञानहीन पुण्यकर्म के फल से प्राप्त नहीं हो सकता | निम्नकोटि के जितने भी स्वर्ग हैं वो काम्य्कर्म के फल के भोगस्थान हैं |
वहां भोगोपयोगी सारी वस्तुएं इच्छा मात्र से प्राप्त होती हैं, किसी से माँगना नहीं पड़ता | अनुकूल अप्सरा, अमृत-रस, कई प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन, फल सुन्दर और नयनाभिराम दृश्य, दिव्य-सुगंध, दिव्य सरोवर आदि कई प्रकार की भोग्य वस्तुएं- सब वहां सहज ही प्राप्य हैं | यह स्वर्ग भोग का स्थान है, भोग समाप्त होने पर पतन अवश्यम्भावी है |
इस निम्न से निम्नतर स्तर के स्वर्ग भी बहुत सारे हैं | निम्न स्वर्ग के अधिष्ठाता इन्द्र देवता हैं | लेकिन उच्च कोटि का उर्ध्वस्वर्ग इन्द्र के अधीन नहीं है | महर्लोक, सत्यलोक, तपोलोक उसी के अवान्तर विभाग हैं | ज्ञान और कर्म का समुच्चय हुए बिना उनकी प्राप्ति संभव नहीं | योगशक्ति और ज्ञान के क्रम-विकास के अनुसार अत्युच्च उर्ध्वतम स्वर्ग की प्राप्ति होती है लेकिन ये सब पितृयान गति से संभव नहीं |
अब बात करते है देवयान मार्ग की | वैसे पित्रयान मार्ग में शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्मो की गति होती है, कुछ दूर तक एक ही पथ से गति होती है उसके बाद रास्ते अलग-अलग हो जाते हैं | देवयान मार्ग से जो गति होती है वो शुक्ल गति होती है |
ज्ञानहीन कर्म और कर्महीन ज्ञान से इस गति की प्राप्ति संभव नहीं क्योकि ज्ञानहीन कर्म स्वर्ग और नर्क की ओर आकर्षण करता है (जीवात्मा एक तरह से इनके गुरुत्व क्षेत्र में प्रवेश करता है) और कर्महीन ज्ञान बिलकुल ही गतिशून्य होता है अतः निश्चित रूप से देवयान गति के लिए ज्ञान और कर्म का समुच्चय आवश्यक है |
कर्म और ज्ञान में किसकी प्रधानता है ये साधक की साधना पर निर्भर करता है | इस समुच्चय में कर्म की मात्रा अधिक रहने पर रास्ते में प्रत्येक ‘स्टेशन’ पर उतरना पड़ता है और वहां का भोग पूरा करना पड़ता है लेकिन ज्ञान का अंश अधिक रहने पर ऐसा नहीं होता |
ज्ञान-कर्म समुच्चय का अंतिम स्टेशन ब्रह्मलोक है | विशुद्ध ज्ञान के फल से ब्रह्मलोक में गति नहीं होती | उसकी बिलकुल भी गति नहीं होती | ब्रह्म लोक में जा कर जब तक वासनाक्षय नहीं हो जाता तब तक शुद्ध ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती | ब्रह्मलोक में जीव, जीवन्मुक्त दशा में रहता है | ये सारे जीवन्मुक्त ‘हिरण्यगर्भ’ के साथ सम्बंधित है |
यहाँ हिरण्यगर्भ को समझना जरूरी है | वेदों में कई जगह पर हिरण्यगर्भ का ज़िक्र हुआ है लेकिन कई लोगों को इसका वास्तविक अर्थ पता नहीं होता | परब्रह्म, परमात्मा निराकार है, अनंत है असीम है किन्तु जब भी वो कोई रूप ग्रहण करता तो सर्वप्रथम वो जो रूप धारण करता है उसे हिरण्यगर्भ कहते हैं इसके पश्चात् वो नाना प्रकार के रूप धारण कर सकता है जिन्हें हम कभी ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, सूर्य तो कभी कृष्ण और राम के रूप में भी पहचान सकते हैं ये निर्भर करता है आपकी श्रद्धा और विश्वास पर |
जो लोग ब्रह्म लोक में निम्न अधिकार लेकर प्रविष्ट होते हैं वे हिरण्यगर्भ के सालोक्य को प्राप्त करते हैं | जो उच्चतर अधिकारी हैं वो सारुप्य की प्राप्ति करते हैं | और जो उच्चतम अधिकारी हैं वे सार्ष्टि और सामीप्य को प्राप्त करके चरम अवस्था में सायुज्य को प्राप्त होते हैं |
अंत समय में जब महा प्रलय उपस्थित होती है तो उस समय ब्रह्माण्ड के नाश के साथ-साथ हिरण्यगर्भ की देह भी नष्ट होती है | तब हिरण्यगर्भ के साथ-साथ उनके अंगीभूत जीव परब्रह्म के साथ अभेद को प्राप्त होते हैं |
इस लौकिक दुनिया से परे जो अलौकिक दुनिया है उसका कार्य-व्यापार भी कर्म के आधार पर ही चल रहा है अतः कर्म की महत्ता सर्वोपरि है, गीता में भगवान् कृष्ण ने भी यही कहा था | उस समय कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि “तेरे भी अनंत जन्म हो चुके है और मै भी अनंत जन्म ले चुका हूँ बस फर्क सिर्फ इतना है कि तू उन्हें नहीं जानता लेकिन मै जानता हूँ” |
अनंत जन्मो की इस यात्रा में आज इस पड़ाव पर आपको मनुष्य देह मिली है (बड़े भाग मानुष तन पावा) तो जब आप नितांत अकेले हों तो अपने आप से एक सवाल जरूर पूछियेगा कि क्या ये उचित समय नहीं है अपने आप को बदलने का………..!