जब नर-रत्न पाण्डव अपनी माता के साथ राजा द्रुपद के श्रेष्ठ देश, उनकी पुत्री द्रौपदी और उसके स्वयंवर-महोत्सव को देखने के लिये रवाना हुए, तब उन्हें मार्ग में एक साथ ही बहुत-से ब्राह्मणों के दर्शन हुए । ब्राह्मणों ने पाण्डवों से पूछा कि आप लोग कहाँ से चलकर किस स्थान को जा रहे हैं ?
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, “पूजनीय ब्राह्मणो ! हम सब भाई एक साथ ही रहते हैं और इस समय एक चक्रा नगरी से आ रहे हैं” । ब्राह्मणों ने कहा, “आप लोग आज ही पांचाल देश के राजा द्रुपद की राजधानी में चलिये । वहाँ स्वयंवर का बहुत बड़ा उत्सव होने वाला है । हम भी वहीं चल रहे हैं । आइये, हम लोग साथ-साथ चलें” ।
युधिष्ठिर ने उनकी बात स्वीकार कर ली, सब लोग एक साथ ही चलने लगे । कुछ आगे चलने पर उन्हें महर्षि वेदव्यास के भी दर्शन हुए । रास्ते में बहुत-से हरे-भरे जंगल और खिले कमलों से शोभायमान सरोवर देखते हुए तथा स्थान-स्थान पर विश्राम करते हुए सब लोग आगे बढ़ने लगे ।
साथियों को पाण्डवों के पवित्र चरित्र, मधुर स्वभाव, मीठी वाणी और स्वाध्यायशीलता से बहुत प्रसन्नता हुई | जब पाण्डवों ने देखा कि द्रुपद का नगर निकट आ गया और उसकी चहार दीवारी स्पष्ट दीख रही है, तब उन्होंने एक कुम्हार के घर डेरा डाल दिया । वे उसके घर में रहकर ब्राह्मणों के समान भिक्षावृत्ति से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । किसी भी नागरिक को यह बात मालूम नहीं हुई कि ये पाण्डु पुत्र हैं ।
राजा द्रुपद के मन में इस बात की बड़ी लालसा थी कि मेरी पुत्री द्रौपदी का विवाह किसी-न-किसी प्रकार अर्जुन के साथ हो । परंतु उन्होंने अपना यह विचार किसी पर प्रकट नहीं किया । अर्जुन को पहचानने के लिये उन्होंने एक ऐसा धनुष बनवाया, जो किसी दूसरे से झुक न सके । इसके अतिरिक्त उन्होंने आकाश में एक ऐसा यन्त्र टँगवा दिया, जो चक्कर काटता रहता था ।
उसी के ऊपर वेधने का लक्ष्य रखा गया । द्रुपद ने घोषणा कर दी कि जो वीर-रत्न इस धनुष पर डोरी चढ़ाकर इन सजे हुए बाणों से घूमने वाले यन्त्र के छिद्र में से लक्ष्य वेध करेगा, वही मेरी पुत्री को प्राप्त करेगा । स्वयंवर का मण्डप नगर के ईशान कोण में एक समतल और सुन्दर स्थान पर बनवाया गया था । उसके चारों ओर बड़े-बड़े महल, परकोटे, खाइयाँ और फाटक बने हुए थे ।
उनके चारों ओर बन्दन वारें लटक रही थीं । भीतों की ऊँचाई और रंग-बिरंगी चित्रकला के कारण वे महल हिमालय-जैसे जान पड़ते थे । राजा द्रुपद के द्वारा आमन्त्रित नरपति और राजकुमार स्वयंवर-मण्डप में आकर अपने लिये बनाये हुए विमानों के समान मंचों पर बैठने लगे । युधिष्ठिर आदि पाण्डव भी ब्राह्मणों के साथ राजा द्रुपद का वैभव देखते हुए वहाँ आये और उन्हीं के साथ बैठ गये ।
वह उत्सव का सोलहवाँ दिन था । द्रुपद कुमारी कृष्णा सुन्दर वस्त्र और आभूषणों से सज-धजकर हाथ में सोने की वरमाला लिये मन्दगति से रंग-मण्डप में आयी । धृष्टद्युम्न ने अपनी बहिन द्रौपदी के पास खड़े होकर गम्भीर, मधुर और प्रिय वाणी से कहा, “स्वयंवर के उद्देश्य से समागत नर पतियो और राजकुमारो ! आप लोग ध्यान देकर सुनें । यह धनुष है, ये बाण हैं और यह आप लोगों के सामने लक्ष्य है ।
आप लोग घूमते हुए यन्त्र के छिद्र में से अधिक-से-अधिक पाँच बाणों के द्वारा लक्ष्य वेध कर दें । जो बलवान्, रूपवान् एवं कुलीन पुरुष यह महान् कर्म करेगा, मेरी प्यारी बहिन द्रौपदी उसकी अर्धांगिनी बनेगी । मेरी बात कभी झूठी नहीं हो सकती” । यह घोषणा करने के बाद धृष्टद्युम्न ने द्रौपदी की ओर देखकर कहा, “बहिन ।
देखो, धृतराष्ट्र के बलवान् पुत्र दुर्योधन, दुर्विषह, दुर्मुख, दुष्प्रधर्षण, विविंशति, विकर्ण, दुश्शासन, युयुत्सु आदि, वीरवर कर्ण को साथ लेकर तुम्हारे लिये यहाँ आये हैं । बड़े बड़े यशस्वी और कुलीन नरपति, जिन में शकुनि, वृषक, बृहद्बल आदि प्रधान हैं, स्वयंवर में तुम्हें पाने के लिये यहाँ आये हैं ।
अश्वत्थामा, भोज, मणिमान्, सहदेव, जयत्सेन, राजा विराट, सुशर्मा, चेकितान, पौण्डूक, वासुदेव, भगदत्त, शल्य, शिशुपाल, जरासन्ध और बहुत-से सुप्रसिद्ध राजा-महाराजा यहाँ उपस्थित हैं । इन पराक्रमी राजाओं से जो इस लक्ष्य को वेध दे, उसके गले में तुम वरमाला डाल देना” ।
जिस समय धृष्टद्युम्न इस प्रकार सब का परिचय दे रहा था, उसी समय वहाँ रुद्र, आदित्य, वसु, अश्विनीकुमार, साध्य, मरुद्गण, यमराज और कुबेर आदि देवता भी विमानों द्वारा आकाश में आकर स्थित हुए । दैत्य, गरुड़, नाग, देवर्षि और मुख्य मुख्य गन्धर्व भी उपस्थित हुए । वसुदेवनन्दन बलराम जी, भगवान् श्रीकृष्ण, प्रधान-प्रधान यदुवंशी और अन्य बहुत-से महानुभाव स्वयंवर-महोत्सव देखने के लिये वहाँ आये हुए थे ।
धृष्टद्युम्न का वक्तव्य सुनकर दुर्योधन, शाल्व, शल्य आदि राजा और राजकुमारों ने अपने बल, शिक्षा, गुण और क्रम के अनुसार धनुष को झुकाकर डोरी चढ़ाने की चेष्टा की; परंतु उन्हें ऐसा झटका लगा कि वे धमाक-धमाक धरती पर जा गिरे । बेहोशी के कारण उनका उत्साह तो टूट ही गया; साथ ही उनके मुकुट और हार भी गिर पड़े, दम फूल गया ।
वे द्रौपदी को पाने की आशा छोड़कर अपने अपने स्थान पर बैठ गये । दुर्योधन आदि को निराश और उदास देखकर धनुर्धर शिरोमणि कर्ण उठा । उसने धनुष के पास जाकर झटपट उसे उठाया और देखते-देखते डोरी चढा दी । वह क्षण भर में ही लक्ष्य को वेध देता कि द्रौपदी जोर से बोल उठी, “मैं सूतपुत्र को नहीं वरूँगी” । कर्ण ने यह सुनकर ईर्ष्या भरी हँसी के साथ सूर्य को देखा और फड़कते हुए धनुष को नीचे रख दिया ।
जब इस प्रकार बहुत से लोग निराश हो गये, तब शिशुपाल धनुष चढ़ाने के लिये आया । किंतु धनुष उठाने के समय ही वह घुटनों के बल नीचे जा पड़ा । जरासन्ध की भी वही दशा हुई और वह उसी समय अपनी राजधानी के लिये प्रस्थान कर गया । मद्रदेश के राजा शल्य की भी वही गति हुई, जो शिशुपाल की हुई थी ।
जब इस प्रकार बड़े-बड़े प्रभावशाली राजा लक्ष्य वेध न कर सके, सारा समाज सहम गया, लक्ष्यवेध की बातचीत तक बंद हो गयी । उसी समय अर्जुन के चित्त में यह संकल्प उठा कि अब मैं चलकर लक्ष्य वेध करूँ | यह संकल्प करके aरजुन अपने स्थान से उठे |