समुद्र मंथन से आयुर्वेद के जनक धन्वतरि कैसे प्रकट हुए, क्या वो भगवान् विष्णु के अवतार थे

समुद्र मंथन से आयुर्वेद के जनक धन्वतरि कैसे प्रकट हुए, क्या वो भगवान् विष्णु के अवतार थेपौराणिक ग्रंथों में ईश्वर के धन्वन्तरी अवतार के विषय में आया है “असुरों के द्वारा पीड़ित होने से जो दुर्बल हो रहे थे, उन देवताओं को अमृत पिलाने की इच्छा से ही भगवान् धन्वतरि-समुद्र-मंथन से प्रकट हुए थे । वे हमारी सदा रक्षा करें” ।

एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना इस ब्रह्माण्ड में हुई समुद्र-मंथन की | उस समय समुद्र-मंथन का महत्त्व बतलाकर सकारात्मक शक्तियों (देवताओं) ने नकारात्मक शक्तियों (असुरों) को अपना मित्र बना लिया । इसके बाद देवताओं और दानवों ने मिलकर अनेक औषधियों और रासायनों को क्षीर सागर में डाला । उन्हें डालते ही क्षीर सागर में भीषण हलचल शुरू हो गयी थी |

पृथ्वी पर स्थित मन्दराचल पर्वत (उन दिनों पर्वत चैतन्य रूप में, प्राणियों की भांति गति कर सकते थे और हवा में उड़ कर अपना स्थान बदल सकते थे) को मथानी और वासुकि नाग को रस्सी बनाकर ज्यों ही देव और दानव समुदाय ने समुद्र-मंथन प्रारम्भ किया, त्यों ही निराधार मन्दराचल समुद्र में धँसने लगा ।

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तब स्वयं सर्वेश्वर भगवान् ने कूर्मरूप (कछुए के रूप में) से मन्दरगिरि को अपनी पीठ पर धारण किया । इतना हीं नहीं श्री विष्णु भगवान् ने वहां देवता, दानवों एवं वासुकि नाग में प्रविष्ठ होकर और स्वयं मन्दराचल को ऊपर से दबाकर समुद्र-मंथन कराया । हलाहल यानि विष, कामधेनु, ऐरावत, उच्चैःश्रवा अश्व, अप्सराएँ, कौस्तुभमणि, वारूणी, शंख, कल्पवृक्ष, चन्द्रमा, लक्ष्मी जी और कदली वृक्ष (केले का वृक्ष) उससे प्रकट हो चुके थे ।

इन सब के बावजूद समुद्र मंथन से अब तक वह नहीं निकला था जिसके लिए सभी लोग बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे, और वह था अमृत | अमृत के न निकल पाने से सभी पक्षों में बेचैनी थी | नारद जी द्वारा ढांढस बंधाने के बाद अमृत-प्राप्ति के लिये पुनः समुद्र-मंथन होने लगा और अंत में हाथ में अमृत-कलश लिये भगवान् धन्वतरि प्रकट हुए ।

धन्वतरि साक्षात भगवान् विष्णु के अंश से प्रकट हुए थे, इस कारण उनका स्वरूप भी मेघश्याम श्री हरि के समान श्यामल एवं दिव्य था । भगवान् विष्णु के सामान ही इनकी चार भुजाएं थीं | ऊपर की दोनों भुजाओं में वे शंख और चक्र धारण किये हुए थे | जबकि नीचे की दो भुजाओं में से एक में जलूका और औषधि तथा दूसरे में अमृत कलश लिए हुए थे |

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चतुर्भुज धन्वन्तरि शौर्य एवं तेज से युक्त थे । उनका दिव्य तेज़ युक्त रूप देखकर सभी चकित थे | सभा में अमृत-वितरण हो जाने पर देवराज इन्द्र ने धन्वन्तरि जी से देव वैद्य का पद स्वीकार करने की प्रार्थना की । इन्होंने देवराज इंद्र की इच्छानुसार अमरावती में निवास करना स्वीकार कर लिया । कुछ समय बाद पृथ्वी पर समय चक्र के अनुसार युग बदला तो वहां अनेक व्याधियाँ फैलीं ।

मनुष्य समेत सभी पशु-पक्षी एवं जीवित प्राणी विभिन्न प्रकार के रोगों से कष्ट पाने लगे । तब देवताओं के अधिपति इन्द्र की प्रार्थना से भगवान् धन्वन्तरि ने काशिराज दिवोदास के रूप में पृथ्वी पर, अवतार धारण किया ।

दिवोदास ने ही विश्व में सर्वप्रथम काशी में शल्य-चिकित्सा का विश्विद्यालय खोला जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत-प्रथम बनाये गए | सुश्रुत-प्रथम दिवोदास के ही शिष्य थे और ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के पुत्र थे | उन्होंने ही सुश्रुतसंहिता लिखी थी | हाँलाकि तब से लेकर आज तक इसमें कई परिवर्तन हुए हैं |

कहा जाता है कि भगवान धन्वन्तरी के अवतरण के साथ ही पृथ्वी पर आयुर्वेद का प्रादुर्भाव हुआ | उन्होंने आयुर्वेद के कई सिद्धांतों पर ग्रन्थ रचे जो प्राणी मात्र की भलाई के लिए थे | वे आयुर्वेद के महान चिकित्सक थे | इन्हें आदिदेव, अमरवर, अमृत योनि एवं अब्ज आदि नामों से सम्बोधित किया गया है ।

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लोक-कल्याणार्थ एवं जरा आदि व्याधियों को नष्ट करने के लिये स्वयं भगवान्, धन्वन्तरि के रूप में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को प्रकट हुए थे, अतः आयुर्वेद-प्रेमी भगवान् धन्वन्तरि के भक्तगण एवं आयुर्वेद के विद्वान इसी दिन प्रतिवर्ष आरोग्य-देवता के रूप में इनकी जयन्ती मनाते हैं । इनका प्रिय धातु पीतल माना जाता है | इसलिए धनतेरस को पीतल आदि धातु के बर्तन खरीदने की परंपरा है |

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