श्री गंगा के उत्पत्ति में मूल कारण तपस्या है । भारतीय संस्कृति में तप के महत्व को सर्वाेच्च माना गया है । तप द्वारा अकथनीय ऊर्जा की उत्पत्ति होती है। राजा भागीरथ ने हजारों वर्षों तक तपस्या कर ब्रह्मा जी को इसलिए प्रसन्न किया कि वह कमण्डलु के पवित्र जल की कुछ बिंदुओं का विसर्जन करें , जिन्हें उन्होंने वामनावतार के समय त्रिविक्रम वामन के ब्रह्माण्ड नापने के लिये उठे चरण के अंगुष्ठ नख से टूटे हुए दो भागों में विभक्त हुए ब्रह्माण्ड से फूट पड़ी जलधारा के रूप में कमण्डलु में संचित कर लिया था।
गंगा जी कौन हैं
ब्रह्मा जी राजा भागीरथ की दीर्घकाल व्यापिनी तपस्या से प्रसन्न हुए, किंतु उन्होंने भगीरथ से कहा कि ‘सब तो ठीक है लेकिन कमण्डलु से विसर्जित यह जलधारा पृथ्वी लोक तक जाते – जाते प्रबल जल प्रवाह का रूप धारण कर लेगी। उन्होंने बताया की इस प्रबल जल प्रवाह को यदि किसी ने नहीं रोका तो यह जलधारा पृथ्वी का भेदन कर पाताल में प्रवेश कर जायगी ।
इससे पृथ्वी पर महाविनाश होने की सम्भावना तो है ही, साथ ही इसे पृथ्वी पर ले जाने का आपका प्रयत्न विफल हो जायेगा , इसलिये पहले एक ऐसे शक्तिशाली महा पुरूष को प्रस्तुत करें जो इसके प्रबल वेग को रोक सकता हो’।
राजा भागीरथ द्वारा ब्रह्मा जी से ही पूछने पर उन्होंने राजा भागीरथ से बताया कि कैलासवासी भगवान शिव में ही ऐसी योग्यता है, अतः इसके लिये उन्हें आप पहले प्रसन्न करें।
अब महादेव शिव को प्रसन्न करने के लिये राजा भागीरथ ने घनघोर तपस्या प्रारम्भ कर दी। सैकड़ों वर्षों तक की तपस्या देख शिव द्रवित हो गये। उन्होंने राजा भागीरथ से वर मांगने के लिये कहा । राजा भगीरथ ने ब्रह्मा जी द्वारा कमण्डलु से विसर्जित विष्णु नदी (जल बिंदुओं )- के प्रवाह को रोकने और धारण करने की महादेव से प्रार्थना की।
महादेव जी द्वारा गंगा नदी को अपनी जटाओं में धारण करना
महादेव जी की स्वीकृति मिलने पर राजा भागीरथ पुनः ब्रह्मा जी की शरण में पहुंचे और उनसे प्रार्थना की कि वह कमण्डलु से विष्णु नदी (जल बिन्दुओं) – को छोड़ें। अब इसके बाद ब्रह्मा जी द्वारा कमण्डलु से (यानि ब्रह्म लोक से) जल बिन्दुओं के छोड़ने पर, इस ब्रह्माण्ड के ध्रुव चक्र और शिशुमार चक्र से नीचे आते-आते उन जल बिन्दुओं ने भीषण जल प्रवाह का रूप धारण कर लिया।
यहाँ, पृथ्वी पर, शिव जी उस प्रबल जल प्रवाह को रोकने के लिये अपनी जटाएं बिखेर कर खड़े हो गये। प्रबल प्रवाह में परिणत विष्णु के उस चरणोदक ने सोचा कि वह शिव को लपेट कर पाताल लोक में प्रविष्ट हो जाय , किंतु महादेव शिव की जटाओं ने विशाल विपिनरूपी कटाह का रूप धारण कर लिया कि जल का वह प्रबल प्रवाह एक वर्ष तक शिव की जटाओं के भीषण कानन में ही चक्कर काटता रह गया।
गंगा नदी का नाम अलकनंदा, मन्दाकिनी, एवं जाह्नवी कैसे पड़ा
महादेव शंकर को प्रसन्न करने के लिये राजा भागीरथ ने पुनः तप करना प्रारम्भ किया। शिव ने प्रसन्न होकर जटाओं की एक लट खोल दी। उस अलक (जटा) – से निकलने के कारण उस जल समूह का नामकरण ‘अलकनन्दा’ हुआ। वह जलधारा हिमालय से मंथर गतिपूर्वक पृथ्वी की ओर प्रवाहित होने लगी , तब उसका नामकरण हुआ ‘मन्दाकिनी’। मन्दाकिनी के मार्ग में जहृु का यज्ञ सम्भार पड़ा। वह उसे बहाकर ले जाने लगीं तो जहृु ने मन्दाकिनी का पान कर लिया। राजा भागीरथ ने उन्हें भी अपने तप से प्रसन्न कर दिया ।
सुहोत्रसुत जहृु ने मन्दाकिनी को अपने दाहिने कान से बाहर निकाल दिया। हिमालय में जहृु कन्दरा से होकर मन्दाकिनी प्रवाहित होती हैं। तब मन्दाकिनी का नामकरण ‘जाहृवी’ हुआ। हिमालय से पृथ्वी पर आते ही जाहृवी का नामकरण ‘गंगा’ हुआ-‘गाम-पृथिवीम्, गा-गता-गंगा।’ तपःप्रसूत गंगा का यह इतिवृत्त किसे श्रद्धाभिभूत नहीं करता । कपिल मुनि की क्रोध अग्नि से सागर के साठ हजार पुत्र दग्ध हो गये थे।
गंगा दशहरा का माहात्म्य
अपने उन पूर्वजों को मुक्ति प्रदान करने के लिये राजा भागीरथ अपने रथ के पीछे-पीछे गंगा जी को लेकर गंगासागर पहुँचे। जलकर राख हुए उनके पूर्वज गंगा के पवित्र जल का संस्पर्श पाकर मुक्त हो गये। भागीरथ के रथ का अनुवर्तन करने वाली गंगा की प्रसिद्धि ‘ भागीरथी ’ के नाम से हुई। गंगा के पृथ्वी पर अवतरण की तिथि उस समय मानी गयी है, जब सूर्य की तिग्म किरणों से जीव-जंतु त्रस्त हो रहे थे। ज्येष्ठ मास में सूर्य-किरणों की प्रखरता सर्व विदित होती है ।
इस मास के शुक्ल पक्ष की हस्त नक्षत्रयुक्त दशमी गंगा अवतरण की तिथि ठहरती है । इस तिथि पर गंगा जी में स्नान, दान और संकल्प आदि करने से दशविध पापों का नाश होता है। इस कारण इस पावन पर्व की प्रसिद्धि ‘गंगा दशहरा’-दशविध पापों को हरण करने वाली गंगा के रूप में मनाया जाता है । इस दिन गंगा में स्नान करने वाला व्यक्ति दस प्रकार के दोषों को त्याग करने का संकल्प ले ले तो न केवल वह स्वयं मुक्त होगा है अपितु अन्य लोगों को भी दोषों से मुक्ति प्रदान करने में समर्थ हो जाता है । वे दस प्रकार के दोष इस प्रकार हैं-
शारीरिक कायिक दोष
1-बिना दी हुई, अननुमित वस्तुओं को हड़प लेना
2-अविहित हिंसा करना
3-परस्त्रियों से अवैध संबंध बनाना
वाचिक दोष
1-कठोर वाणी बोलना,
2-असत्य भाषण करना,
3-चुगलखोरी करना तथा
4-अनर्गल बकझक करना।
मानसिक दोष
1-पराये धन पर लालच का आना
2-मन ही मन किसी के विरूद्ध अनिष्ट चिंतन करना
3-नास्तिक बुद्धि रखना
पाप विनाशिनी श्री गंगा की शरण में आया प्रत्येक व्यक्ति संकल्प लेकर कहे-हे गंगे! पूर्व जन्म या इस जन्म में हुए मेरे इन दस प्रकार के पापों का शमन हो; ऐसा संकल्प लेने पर स्वयं का और दूसरे लोगों का उद्धार हो सकता है।