अपनी धुन के पक्के विक्रमादित्य ने, बिलकुल भी विचलित न होते हुए, वापस पेड़ पर लौटने वाले बेताल को फिर से अपनी पीठ पर लादा और चल दिए तान्त्रिक के पास, जिसने उन्हें लाने का काम सौंपा था | थोड़ी देर बाद बेताल ने अपना मौन व्रत तोड़ा और कहा “तुम भी बड़े हठी हो राजन, खैर चलो, मार्ग आसानी से कट जाए, इसके लिए मै तुम्हे एक कथा सुनाता हूँ |
किसी समय की बात है वक्रोलक नामक नगर में सूर्यप्रभ नाम का राजा राज्य करता था । उसके कोई भी सन्तान न थी। उसी समय में एक दूसरी नगरी में धनपाल नाम का एक साहूकार रहता था। उसकी स्त्री का नाम हिरण्यवती था और उन दोनों को धनवती नाम की एक पुत्री थी ।
देव योग से जब धनवती बड़ी हुई तो उसका पिता धनपाल मर गया और उसके नाते-रिश्तेदारों ने उन माँ बेटी का सारा धन हड़प लिया। किस्मत की मारी हिरण्यवती अपनी लड़की को लेकर रात के समय ही नगर छोड़कर चल दी । रास्ते में उसे एक चोर सूली पर लटकता हुआ मिला । उस समय तक वह चोर मरा नहीं था। उसने हिरण्यवती को देखकर अपना परिचय दिया और कहा, “मैं तुम्हें एक हज़ार अशर्फियाँ दूँगा। तुम बस अपनी लड़की का ब्याह मेरे साथ कर दो।”
हिरण्यवती ने आश्चर्यचकित हो कर कहा, “लेकिन तुम तो मरने वाले हो।” चोर बोला, “मेरा कोई पुत्र नहीं है और निपूते की परलोक में कोई सदगति नहीं होती। अगर मेरी आज्ञा से और किसी के भी वीर्य से इसके पुत्र पैदा हो जायेगा तो मुझे सदगति मिल जायेगी, अतः मेरी बात मानो और अपनी कन्या का मुझसे विवाह करा दो।”
हिरण्यवती ने अशर्फियों के लोभ के वश होकर उसकी बात मान ली और धनवती का ब्याह उसके साथ कर दिया। चोर बोला, “इस बरगद के पेड़ के नीचे अशर्फियाँ गड़ी हैं, सो ले लेना और मेरे प्राण निकलने पर मेरा दाह संस्कार करके तुम अपनी बेटी के साथ अपने नगर में चली जाना, ईश्वर तुम दोनों का कल्याण करें ।”
इतना कहकर चोर ने अपने प्राण त्याग दिए । हिरण्यवती ने बरगद के पेड़ के नीचे की ज़मीन खोदकर अशर्फियाँ निकालीं, चोर का दाह संस्कार किया और अपने नगर में लौट आयी ।
उसी नगर में वसुदत्त नाम का एक गुरु था, जिसके मनस्वामी नाम का शिष्य था। वह शिष्य एक वेश्या से प्रेम करता था। वेश्या उससे पाँच सौ अशर्फियाँ माँगती थी। पर वह कहाँ से लाकर देता ! संयोग से धनवती ने मनस्वामी को देखा और वह उसे चाहने लगी। उसने अपनी दासी को अपना प्रणय प्रस्ताव ले कर उसके पास भेजा। मनस्वामी तो वैश्या के प्रेम मे पागल था, उसे किसी तरह से केवल पांच सौ अशर्फियाँ चाहिए थीं अतः उसने उसकी दासी से कहा कि मुझे पाँच सौ अशर्फियाँ मिल जायें तो मैं एक रात धनवती के साथ रह सकता हूँ।
उसके सन्देश को सुन कर धनवती इसके लिए तैयार हो गयी। उसने मनस्वामी को पाँच सौ अशर्फियाँ दे दीं, और उसी रात्रि को उन दोनों ने गन्धर्व विवाह किया । कुछ समय के बाद धनवती को एक पुत्र उत्पन्न हुआ। जिस रात्रि को धनवती को पुत्र उत्पन्न हुआ उसी रात देवता ने सपने में उसे दर्शन देकर कहा, “तुम इस बालक को सहस्त्र अशर्फियों के साथ राजा के महल के दरवाज़े पर रख आओ।”
सुबह उठने के बाद, सूर्योदय के पहले ही, माँ-बेटी ने ऐसा ही किया। उधर उन्ही देवता ने राजा को सपने में दर्शन देकर कहा, “तुम्हारे द्वार पर किसी ने धन के साथ अपना पुत्र रख दिया है, उसे ग्रहण करो और उसका लालन-पालन करो।”
राजा ने अपने नौकरों को भेजकर बालक और अशर्फियों को मँगा लिया। बालक का नाम उन्होंने चन्द्रप्रभ रखा । जब वह बालक बड़ा हुआ तो उसे गद्दी सौंपकर राजा काशी चले गए और कुछ दिन बाद स्वर्ग सिधार गए।
कुछ समय पश्चात पिता के ऋण से उऋण होने के लिए चन्द्रप्रभ तीर्थ करने निकला। जब वह घूमते हुए गयाकूप पहुँचा और पिण्डदान किया तो उसमें से तीन हाथ एक साथ निकले। चन्द्रप्रभ ने चकित होकर ब्राह्मणों से पूछा कि मै किसको पिण्ड दूँ? उन ब्राह्मणो में जो प्रमुख थे उन्होंने ध्यान लगया और कुछ समय बाद अपनी आँखे खोली फिर उससे कहा, “इनमे से लोहे की कील वाला चोर का हाथ है जिससे तुम्हारी माँ का विवाह हुआ, पवित्री वाला हाँथ उस ब्राह्मण मनस्वामी का है जिसके वीर्य से तुम उत्पन्न हुए हो और अंगूठी वाला हाँथ राजा का है जिसने तुम्हारा पिता की भाँति लालन-पालन किया । अब आप तय करो कि पिंडदान किसको देना है?”
इतना कहकर बेताल राजा विक्रमादित्य से बोला, “राजन्, तुम बताओ कि चन्द्रप्रभ को किसे पिण्ड देना चाहिए?”
राजा विक्रमादित्य ने बहुत ही शान्त भाव से कहा, “चोर को, क्योंकि उसी का वह पुत्र था। मनस्वामी उसका पिता इसलिए नहीं हो सकता कि वह तो एक रात के लिए पैसे से ख़रीदा हुआ था । राजा भी उसका पिता नहीं हो सकता, क्योंकि उसे बालक को पालने के लिए धन मिल गया था । इसलिए चोर ही पिण्ड का अधिकारी है।”
इतना सुनकर बेताल बहुत प्रसन्न हुआ लेकिन फिर अपनी प्रतिज्ञा की याद दिला कर पेड़ पर जा लटका और राजा को वहाँ जाकर उसे लाना पड़ा। रास्ते में फिर उसने एक कहानी सुनाई।