मृत्यु के दरवाज़े तक जा कर लौटने वाले अनेकों व्यक्तियों की घटनाओं पर दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया है। 1970 में अमेरिका में इसी पैरानोर्मल विषय पर अध्ययन करने के लिए एक संस्था बनाई गई जिसका नाम था ”सांइटिफिक स्टडी ऑफ नियर डेथ फिनोमेना।” डॉ. रेमण्ड ए. मूडी नामक प्रख्यात मनोचिकित्सक ने इसका नाम एन. डी. ई. (नियर डेथ एक्सपीरियंस) रखा। उन लोगो ने हर साल 100 से अधिक लोगों पर अध्ययन किया।
उनके द्वारा किए गये सैकड़ों परीक्षणों के उपरान्त उन्होंने पाया कि कुछ समानताएँ सब में होती हैं। जो भी व्यक्ति मृत्यु के निकट पहुँच कर लौटे, उन्होंने सबसे पहले शरीर को छोड़ने के बाद दूर से उसे देखा। इस दौरान उन्हें अनेक मृतक संबंधी भी मिले । घने अन्धकार भरे मार्ग से प्रकाश की ओर गमन के अनुभव की बात उन सभी लोगों ने बतायी और प्रकाश की ओर जाते ही शान्ति और आनन्द की अनुभूति भी हुई कुछ लोगों को |
इन विभिन्न तथ्यों का वैज्ञानिक अध्ययन करने के लिए 250 वैज्ञानिकों, मनोविशेषज्ञों, मनश्चिकित्सकों और मनोवैज्ञानिकों का एक संगठन बना। ऐसे 100 व्यक्ति जिन्हें डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया था और जो पुनः जीवित हो उठे, उनसे साक्षात्कार कर उनके अनुभव इकट्ठे किये गये। 1975 में रेमण्ड मूडी ने अपने इस कार्य को एक पुस्तक “लाइफ आफ्टर डेथ” का रूप दिया।
मृत्यु के निकट पहुँचने वाले व्यक्तियों के कुछ अनुभव लगभग एक से पाए गये। जैसे-मृत्यु के समय अत्यधिक पीड़ा होना और डॉक्टर द्वारा मृत घोषित कर देने के बाद अन्धकार पूर्ण मार्ग से गुजरकर प्रकाशित स्थान में पहुँचना।
विस्तृत रूप से आप उनके अनुभवों को पढ़ें तो आप पायेंगे कि ऐसा व्यक्ति अपने शरीर से अपने आप को अलग अनुभव करता है। एक दृष्टा की तरह अपने शरीर को देखता है। उसका शरीर से तुरन्त मोह दूर नहीं होता, कुछ समय उसी के इर्द-गिर्द वह घूमता है। दीवार खिड़की आदि उसके लिए बाधक नहीं रहते अब वह और अधिक शक्ति महसूस करता है।
डॉक्टर व अपने संबंधी लोगों को अपने शरीर के इर्द-गिर्द खड़े देखता है, उनके प्रत्येक प्रयास को देखता है। मृत मित्र संबंधियों की आत्माएँ भी उससे मिलती है। एक दिव्य प्रकाश उसके सामने आता है। यह प्रकाश उसे संकेत देता है कि जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं को याद करो। जीवन की सुखद और दुःखद घटनाओं के साथ वैसी ही पार्श्व भूमि वहाँ तैयार होती जाती है। वैसी ही ध्वनियाँ सुनाई देती हैं।
ऐसा अनुभव होता है कि एक प्रदेश की सीमा छोड़कर दूसरे प्रदेश में प्रवेश कर रहा है। इसके तुरन्त बाद उसे लगता है कि अब अपने शरीर में पुनः लौटना पड़ेगा। उसे ऐसा बताया जाता है कि उसकी मृत्यु का समय नहीं हुआ। लेकिन वह नये होने वाले सुखद अनुभव के कारण पुराने जीवन में नहीं जाना चाहता। कई बार उसकी अनिच्छा होने पर भी उसे पुराने शरीर से जोड़ दिया जाता है।
डॉ. एलिजाबेथ कबलररोस ने भी डॉ. रेमण्ड की तरह ही इस सम्बन्ध कुछ प्रयोग किये हैं। “यूनीवर्सिटी ऑफ अटलाँटा” के कार्डियोलोजी के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. माइकेल सेबोम का कथन है – “डॉ. रेमण्ड मूडी की पुस्तक में वर्णित घटनाओं पर मुझे विश्वास नहीं हुआ। लेकिन नियर डेथ एक्सपीरियंस पर शोध करने में मेरी भी रुचि जागी।”
उनकी सहायिका सारा क्रुजिगर के साथ मिलकर उन्होंने 120 नियर डेथ एक्सपीरियंस के उदाहरणों पर अध्ययन किया। उनमें से 40 प्रतिशत व्यक्तियों ने डॉ. मूडी की रिपोर्ट के अनुसार ही अपने अनुभव बताये। इसी प्रकार ‘यूनिवर्सिटी ऑफ कनेक्टीकट’ के प्रोफेसर डॉ. केनेथरिंग ने, मृत्यु के मुख से निकल आये लगभग 102 व्यक्तियों से मुलाकात की।
डॉ. के अनुरूप ही 50 प्रतिशत व्यक्तियों ने अपने अनुभव बताये। इन सारे विशेषज्ञों के काम से प्रभावित होकर, ‘सेन्टल्युक हास्पिटल’ के हृदय विशेषज्ञ डॉ. फ्रेड शूनर ने ऐसे ही 2300 व्यक्तियों के अनुभवों की जाँच की। उनमें से 60 प्रतिशत लोगों के अनुभव डॉ. मूडी के बताये गए अनुभवों के अनुसार पाये गये। इस प्रकार पूरे अमेरिका में इन शोध निष्कर्षों के प्रति कौतूहल जागृत हुआ।
डा. कार्लिंस ओसिस और इरलेण्डर हाल्डसन, इन दोनों मनोवैज्ञानिकों ने मिलकर भारत और अमेरिका के उदाहरणों का तुलनात्मक अध्ययन किया। परीक्षणों के उपरान्त उन लोगों ने बताया कि दो भिन्न देशों की धार्मिक मान्यताएँ भिन्न होने के बावजूद भी दोनों स्थानों के प्रमाणों में बहुत कुछ एक जैसे अनुभव देखने को मिले।
प्राकृतिक मृत्यु एक बहुत ही धीमी प्रक्रिया है। यह क्रमशः आगे बढ़ती है। पहले जीव-कोष धीरे-धीरे मरने लगते हैं। फिर विभिन्न ऊतक (टिशूज) संवेदनाहीन होते हैं। उसके बाद शरीर के विभिन्न अवयव-हृदय, फेफड़े आदि निष्क्रिय होते हैं और अन्त में मस्तिष्कीय क्षमता नष्ट होती तथा शरीर मृत हो जाता है।
शरीर को पर्याप्त मात्रा में प्राणवायु (Oxygen) न मिलने पर जीव-कोष नष्ट होते हैं। विभिन्न जीव-कोषों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। मस्तिष्क के जीव-कोष सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं। प्राण वायु कम पड़ने पर वे सबसे पहले नष्ट होते हैं जबकि रीढ़ की हड्डी के जीव-कोष इतनी जल्दी नहीं समाप्त होते। जीवकोष प्रायः या तो फूल जाते हैं और अत्यधिक फूलने से फट जाते हैं या इतने सिकुड़ जाते हैं कि पूर्व स्थिति में नहीं आ पाते। शरीर के कुछ भाग नष्ट हो जाने पर भी शरीर जीवित रह सकता है।
शरीर को मृत तब घोषित किया जाता है जब हृदय की धड़कन बन्द हो जाती है। डॉक्टरों के अनुसार धड़कन बन्द होना, श्वास बन्द होना आँखों में स्थिरता, शरीर का तापमान गिरना आदि लक्षण मृत्यु के हैं। इन लक्षणों के बाद 10 मिनट से लेकर 2 घण्टे के अन्दर अस्थि पंजर के सभी स्नायु कड़े हो जाते हैं। रक्त जम जाने के कारण शरीर का रंग नीला पड़ने लगता है। इसके बाद के 24 घण्टों में शरीर के ऊतकों को बैक्टीरिया विघटित करने लगते हैं। इस प्रक्रिया को ‘सोमेटिक डेथ’ कहते हैं जब शरीर का प्रत्येक कोष मर जाता है।
क्वांटम, चुम्बकत्व, और सापेक्षिकता के सिद्धांत (Theory of Relativity) के अनुसार पदार्थ (Matter) का मूलरूप तरंग के रूप में है और वह एक या दूसरे माध्यम से अपना अस्तित्व बनाये ही रहता है। इस विश्व ब्रह्माण्ड में असंख्य स्तर की तरंगें व्याप्त है। पर उनमें से नापने पकड़ने में थोड़ी सी ही आई है। यंत्रों के आविष्कार अभी इतने ही हुए हैं जो सामान्य स्तर की तरंगों (Waves) के अस्तित्व की जानकारी दे सकें। इनसे सूक्ष्म यन्त्र जब भी बन सकेंगे तभी उन रहस्यमय पदार्थ तरंगों की जानकारी मिल सकेगी जो अभी संभावना क्षेत्र में होने पर भी अपनी सत्ता का आभास देने लगी हैं।
मनुष्य शरीर भी पदार्थ का समुच्चय है। उसका मूल स्वरूप वास्तव में ऊर्जामय है। शरीर के इर्द-गिर्द फैला रहने वाला तेजोवलय (Aura) तथा विचार तरंगों के रूप में आकाश को आच्छादित किये रहने वाला चेतन प्रवाह अपने-अपने स्तर की ऊर्जा का परिचय देते हैं। चूँकि पदार्थ कभी मरता नहीं। इसलिए यह मनुष्य को आत्मा न सही, शरीर या पदार्थ भर माना जाय तो भी यह कहा जा सकता है कि मरने के बाद भी उसकी वह ऊर्जा बनी रहती हैं, जिसे अध्यात्म की भाषा में ‘प्राण’ कहा जाता है।
इस ब्रह्माण्ड में फैला रहने वाला, ऊर्जा तरंगों से बना मनुष्य शरीर, मरने के बाद भी अपना अस्तित्व बनाये रखता है। भले ही आज के अविकसित यन्त्र उसे देखने पकड़ने में समर्थ न हो सकें। जब अस्तित्व विद्यमान ही रहा तो उसके परिचय, प्रमाण या प्रकटीकरण के जो स्वरूप बनते रहते हैं, सिद्धान्त रूप से उनकी संभावना स्वीकार करने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
शरीर सत्ता पुनर्जन्म के रूप में भी अपनी पिछली क्षमताओं तथा आदतों का परिचय तो देती ही रहती है, मरण और जन्म के बीच में यदि जीव सत्ता अपने अस्तित्व का परिचय प्रेत-पितरों के रूप में देती हो, तो उसे अमान्य नहीं ठहराया जा सकता । विकसित विज्ञान अगले दिनों, उस बीच के समय में, प्राणी की स्थिति का भी पता लगा लेगा जो अभी अज्ञात और रहस्यमय बनी हुई है।
मरने से पहले और जन्म लेने के बाद, जब जीवन-शृंखला (Series of Life) के अविच्छिन्न (Continuous) संबंधों का कई आधारों पर प्रमाण मिलता है तो कोई कारण नहीं कि कुछ समय तक, इस भौतिक जगत में न होने वाली स्थिति, का विवरण जाना न जा सकें। आज के आधुनिक विज्ञान को भी कुछ समय बाद उन्हीं निष्कर्षों पर पहुँचना पड़ेगा जिस पर कि सनातन धर्म का अध्यात्म विज्ञानं बहुत समय पहले पहुँचा और मरणोत्तर जीवन की एक-एक गुत्थी सुलझाने में समर्थ रहा है।