फल्गु नदी के अंत के रमणीय तट पर श्री विष्णु भगवान एवं माता मंगलागौरी जी के दिव्य स्थान से सुशोभित पितरो का उद्धार करने वाले , तीर्थ गया को भारतीय तीर्थों में सबसे उत्तम स्थान प्राप्त है। गया में भगवान विष्णु के कितने ही रूपों के मंदिर प्राचीन काल से प्रतिष्ठित हैं; उनमें से प्रमुख है – श्री गदाधर देव का स्थान। भगवान विष्णु के गदाधर रूप के अवतरण स्थल गया को श्राद्ध एवं पिण्ड दान का उत्तम स्थल कहा जाता है।
यहां एक विशाल मंदिर भी मौजूद है, जिसे लोग गदाधर मंदिर के नाम से जानते है । जगतनियन्ता देव श्री विष्णु के दशावतारों एवं चौबीस अवतारों के अतिरिक्त एक अन्य अवतार की चर्चा प्रायः धर्म साहित्य में वर्णन की गई है, वह है-जगत के पालनहार विष्णु जी का गदाधर रूप। भक्तों की मान्यता है कि सभी अवतारों के बाद इस लोक में अपने शेष कार्यों को पूर्ण करने के उददेश्य से कलियुग प्रारम्भ होने के ठीक पूर्वकाल में भगवान विष्णु ने अपने जिस नाम से जगत का उद्धार किया, वह ‘गदाधर’ कहलाता है और उनकी उस अवतार स्थली को ‘गया’ कहा गया है ।
इस संबंध में एक महिमामयी रोचक कथा पुराणों से प्राप्त होती है, जिसमें बताया गया है कि प्राचीनकाल में गय नाम का एक असुर था, जो केवल तपस्या में ही रूचि रखता था। वह दीर्घकाल तक निष्काम भाव से तप करता रहा। भगवान नारायण ने उसे वरदान दिया कि उसकी देह समस्त तीर्थ से भी अधिक पवित्र हो जाएगा । इस वरदान के पश्चात भी असुर तपस्या करता ही रहा। उसके तप से त्रिलोकी भी संतप्त होने लगी। देवता संत्रस्त हो उठे।
अंत में भगवान विष्णु के आदेश से ब्रह्मा जी ने गय के पास जाकर यज्ञ करने के लिये देह मांगी। गय सो गया और उसके शरीर पर यज्ञ किया गया, किंतु यज्ञ पूरा होने पर असुर फिर उठने लगा। उस समय देवताओं ने धर्मव्रती शिला गयासुर के ऊपर रख दी। इतने पर भी असुर उठने लगा तो स्वयं भगवान विष्णु गदाधर के अवतार के रूप में उत्पन्न हो कर उसके ऊपर स्थित हो गये। अन्य देवता भी वहां प्रतिष्ठित हो गये।
श्री गदाधर की कृपा से यह अवतरण स्थली ‘गया’ नामक पुण्य क्षेत्र हो गया । वायु पुराणा से स्पष्ट होता है कि गया तीर्थ गयागय, गयादित्य, गायत्री, गदाधर, गया एवं गयासुर-इन छः रूपों में मुक्तिदायक है । मोक्ष भूमि गया के छः मुक्तिदायी स्थलों में मौजूद एक गदाधर भी है। जहां तक गदाधर नाम के आशय की बात है तो वायु पुराण (105।60)-से स्पष्ट होता है कि हरि को आदि गदाधर इसीलिये कहा जाता है क्योंकि उन्होंने ही सर्वप्रथम गदा को धारण किया , जिसके आश्रय से विष्णु भक्त गयासुर के चलायमान शरीर को स्थिर किया गया।
ऐसा भी कहा गया है कि गदा नामक असुर की अस्थियों से बने अस्त्र को सर्वप्रथम धारण करने के कारण विष्णु जी का नाम ‘गदाधर’ है। गया तीर्थ की पुण्यतोया फल्गु को भी जलधारा के रूप में आदि गदाधर कहा गया है।
विद्वज्जनों की मान्यता है कि गया की भूमि ज्ञान की भूमि है और यह मूल विद्या का क्षेत्र है तथा पितृ कर्म के लिये सर्वोत्तम स्थल है। भगवान ने यहां गदाधर के रूप में अवतार धारण किया।
गया में श्री विष्णु पद-मंदिर के निचले ढलान में फल्गुजी के पार्श्व में गदाधर देव मंदिर है, जिसे मूल गदाधर अथवा गया गदाधर भी कहा जाता है। यहां गर्भ गृह में विष्णु भगवान के गदाधर रूप का एक प्रभावशाली विभाग है। मंदिर-क्षेत्र से प्राप्त शिलालेख स्पष्ट करते हैं कि पाल नरेश गोविन्द पाल (11161-1175 ई0)-ने यहां गदाधर विष्णु मंदिर का निर्माण करवाया । आज भी यह मंदिर क्षेत्र गया का एक प्रख्यात तीर्थ है।
गया में फल्गुजी के अनेक घाटों में एक का नाम ‘गदाधर-घाट’ होना इस बात का सूचक है कि यहां प्राचीन काल से गदाधर जी पूजनीय रहे हैं । भगवान गदाधर की इस अवतरण स्थलों के विषय में कहा गया है कि गया में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जो तीर्थ न हो। यहां सभी तीर्थों का सामीप्य है; अतः गया तीर्थ सर्वश्रेष्ठ है । माता-पिता एवं अपने पूवर्ज पितरो की सदगति के लिये पुत्र द्वारा गया में पिण्ड दान करने का विशेष महत्व है तथा सत-पुत्र के लिये यह अनिवार्य भी है। भगवान गदाधर ही गया के अधिष्ठात देवता हैं।