‘जो पुरूष निरन्तर विषय-चिंतन किया करता है, उसका चित्त विषयों में फंस जाता है और जो मेरा स्मरण करता है, उसका चित्त मुझमें तल्लीन हो जाता है।’-भगवान श्री कृष्ण।
एक बार की बात है। लोक पितामह चतुर्मुख ब्रह्मा जी अपनी दिव्य सभा में बैठे हुए थे कि उनके मानस पुत्र सनकादि चारों कुमार दिगम्बर-वेष में वहां पहुंच गये और उन्होंने अपने पिता श्री ब्रह्मा जी के चरण कमलों में प्रणाम किया। फिर ब्रह्मा जी के आदेश अनुसार वे चारों कुमार पृथक-पृथक आसनों पर बैठ गये। सभा के अन्य सदस्य तेजस्वी सनकादि कुमारों के सम्मान में सर्वथा मौन एवं शान्त हो गये थे।
‘परम पूज्य श्री पिताजी! जो चित्त है वह गुणों अर्थात विषयों में प्रविष्ट रहता है।’ कुमारों ने अत्यन्त विनयपूर्वक जिज्ञासा प्रकट की ‘और गुण भी चित्त की एक-एक वृत्ति में समाये रहते हैं। इनका परस्पर आकर्षण है, स्थायी सम्बन्ध है। फिर मोक्ष चाहने वाला अपना चित्त विषयों से कैसे हटा सकता है? उसका चित्त गुणहीन अर्थात निर्विषय कैसे हो सकता है? क्योंकि यदि मनुष्य-जीवन प्राप्त कर मोक्ष की सिद्धि नहीं की गयी तो सम्पूर्ण जीवन ही व्यर्थ हो जायगा।’
देव शिरोमणि, स्वयम्भू एवं प्राणियों के जन्मदाता होने पर भी विधाता, प्रश्न में संदेह का बीज कहां है, इसका पता नहीं लगा सके, प्रश्न का मूल कारण नहीं समझ सके। वे आदि पुरूष परब्रह्म परमात्मा का ध्यान करने लगे।
सबके सम्मुख सहसा अत्यन्त सुंदर, परमोज्जवल एवं परम तेजस्वी महा हंस के रूप में श्री भगवान प्रकट हो गये। उक्त हंस के अलौकिक तेज से प्रभावित होकर ब्रह्मा, सनकादि तथा अन्य सभी सभासद उठ कर खड़े हो गये। सबने परमहंस रूपी श्री भगवान के चरणों में श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया। इसके बाद पाद्य-अध्यादि से सविधि पूजा कर उन्हें पवित्र और सुंदर आसन पर बैठाया।
‘आप कौेन हैं?’ उक्त महामहिम परम तेजस्वी परमहंस का परिचय प्राप्त करने के लिये कुमारों ने उनसे पूछा। ‘मैं क्या उत्तर दूँ?’ हंस ने विचित्र उत्तर दिया- ‘इसका निर्णय तो आप लोग ही कर सकते हैं। तो शरीर की दृष्टि से पृथ्वी, वायु, जल, तेज और आकाश से निर्मित, रस, रक्त, मेदा, मज्जा, अस्थि और शुक्र वाला शरीर सबका है। अतएव देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी शरीर पंचभूतात्मक होने के कारण अभिन्न ही हैं, और आत्मा के संबंध में आप लोगों का यह प्रश्न ही नहीं बनता। वह तो सदा सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है ही।’
कुछ रूक कर मुस्कारते हुए भगवान हंस ने कहा ‘अब आप लोग ही सोचें और निर्णय करें कि चित्त मेें गुण हैं या गुणों में चित्त समाया हुआ है। स्वप्र का द्रष्टा, देखने की क्रिया और दृश्य सब क्या पृथक होते हैं? भगवान हंस ने मुस्कुरा कर सनकादि से पूछा ।
‘मन से, वाणी से, दृष्टि से तथा अन्य इन्द्रियों से भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ, मुझसे भिन्न और कुछ नहीं है। यह सिद्धांत आप लोग तत्त्व विचार के द्वारा सरलता से समझ लीजिये।’
‘यह चित्त चिंतन करते-करते विषय आकार हो जाता है और विषय चित्त में प्रविष्ट हो जाते हैं, यह बात सत्य है; तथापि विषय और चित्त- ये दोनों ही मेरे स्वरूपभूत जीव के देह हैं- उपाधि हैं। अर्थात आत्मा का चित्त और विषय के साथ कोई संबंध ही नहीं है।’
परम प्रभु हंस के उत्तर सेे सनकादि मुनियों को संदेह निवारण हो गया। उन्होंने अत्यन्त श्रद्धा और भक्ति से भगवान परमहंस की पूजा और स्तुति की। तदनन्तर ब्रह्मा जी के सम्मुख ही परमहंस रूप धारी श्री भगवान अदृश्य होकर अपने पवित्र धाम में चले गये।