इस रहस्यमयी शक्ति का ज़िक्र पहली बार महाभारत में हुआ है | महाभारत में आई कथा के अनुसार एक बार गन्धर्वराज चित्ररथ अर्जुन से कहते हैं “अर्जुन ! राजा इक्ष्वाकु के वंश में कल्माषपाद नाम का एक राजा हुआ था ।
एक दिन की बात है, वह शिकार खेलने के लिये वन में गया । लौटने के समय वह एक ऐसे मार्ग से आने लगा, जिससे केवल एक ही मनुष्य चल सकता था । वह थका-माँदा और भूखा-प्यासा तो था ही, उसी मार्ग पर सामने से शक्तिमुनि आते दीख पड़े ।
शक्तिमुनि, वसिष्ठ जी के सौ पुत्रों में सबसे बड़े थे । राजा ने कहा, “तुम हट जाओ । मेरे लिये रास्ता छोड़ दो” । शक्ति ने कहा, “महाराज ! सनातन धर्म के अनुसार क्षत्रिय का यह कर्तव्य है कि वह ब्राह्मण के लिये मार्ग छोड़ दे” । इस प्रकार दोनों में कुछ कहा-सुनी हो गयी । न ऋषि हटे और न राजा । राजा के हाथ में चाबुक था, उन्होंने बिना सोचे-विचारे ऋषि पर चला दिया ।
शक्ति मुनि ने इसे राजा का अन्याय समझ कर उन्हें शाप दिया कि “अरे नृपाधम ! तू राक्षस की तरह तपस्वी पर चाबुक चलाता है; इसलिये जा, राक्षस हो जा” । राजा राक्षसभावाक्रान्त हो गया । उसने कहा, “तुमने मुझे अयोग्य शाप दिया है; इसलिये लो, मैं तुमसे ही अपना राक्षसपना प्रारम्भ करता हूँ” । इसके बाद कल्माषपाद शक्ति मुनि को मारकर तुरंत खा गया ।
केवल शक्तिमुनि को ही नहीं; वसिष्ठ के जितने पुत्र थे, सभी को उसने खा लिया । शक्ति और वसिष्ठ के दूसरे पुत्रों के भक्षण में कल्माष का राक्षसपना तो कारण था ही, इसके अलावा विश्वामित्र ने भी पहले द्वेष का स्मरण करके किंकर नाम के राक्षस को आज्ञा दी थी कि वह कल्माषपाद में प्रवेश कर जाय, जिसके कारण वह ऐसे नीच कर्म में प्रवृत्त हुआ ।
वसिष्ठ जी को यह बात मालूम हुई । उन्होंने जाना कि इसमें विश्वामित्र की प्रेरणा है फिर भी उन्होंने अपने शोक के वेग को वैसे ही धारण कर लिया, जैसे पर्वतराज सुमेरु पृथ्वी को । उन्होंने प्रतीकार की सामर्थ्य होने पर भी उनसे किसी प्रकार का बदला नहीं लिया । एक बार महर्षि वसिष्ठ अपने आश्रम पर लौट रहे थे ।
इसी समय ऐसा जान पड़ा, मानो उनके पीछे-पीछे कोई षडंग वेदों का अध्ययन करता हुआ चलता है । वसिष्ठ ने पूछा कि मेरे पीछे-पीछे कौन चल रहा है? आवाज आयी कि “मैं आपकी पुत्रवधू शक्ति पत्नी अदृश्यन्ती हूँ” । वसिष्ठ बोले, “बेटी ! मेरे पुत्र शक्ति के समान स्वर से सांग वेदों का अध्ययन कौन कर रहा है” ?
अदृश्यन्ती ने कहा, “आपका पौत्र मेरे गर्भ में है । वह बारह वर्ष से गर्भ में ही वेदाध्ययन कर रहा है” । यह सुनकर वसिष्ठ मुनि को बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने सोचा, “अच्छी बात है । मेरी वंश-परम्परा का उच्छेद नहीं हुआ” । यही सब सोचते हुए वे लौट ही रहे थे कि एक निर्जन वन में कल्माषपाद से उनकी भेंट हो गयी ।
कल्माषपाद विश्वामित्र के द्वारा प्रेरित उग्र राक्षस से आविष्ट होकर वसिष्ठ मुनि को खा जाने के लिये दौड़ा । उस क्रूरकर्मा राक्षस को देखकर अदृश्यन्ती डर गयी और कहने लगी, “भगवन् ! देखिये, देखिये; यह हाथ में सूखा काठ लिये भयंकर राक्षस दौड़ा आ रहा है । आप इससे मेरी रक्षा कीजिये” । वसिष्ठ ने कहा, “बेटी, डरो मत । यह राक्षस नहीं, कल्माषपाद है” ।
यह कहकर महर्षि वसिष्ठ ने हुंकार से ही उसे रोक दिया । इसके बाद उन्होंने जल को हाथ में लेकर मन्त्र से अभिमन्त्रित किया और कल्माषपाद के ऊपर डाला । वह तुरंत शाप से मुक्त हो गया । बारह वर्ष के बाद आज वह शाप से छूटा ।
उसका तेज बढ़ गया, वह होश में आया और हाथ जोड़कर श्रेष्ठ महर्षि वसिष्ठ से कहने लगा, “महाराज ! मैं सुदास का पुत्र कल्माषपाद आपका यजमान हूँ । आज्ञा कीजिये, मैं आपको क्या सेवा करूँ” ? वसिष्ठ जी ने कहा, “यह सब बात तो भैया ! समय-समय की है । अब जाओ, तुम अपने राज्य की देखभाल करो । हाँ, इतना ध्यान रखना कि कभी किसी ब्राह्मण का अपमान न हो” ।
राजा ने प्रतिज्ञा की, “महाभाग्यवान् ऋषिश्रेष्ठ ! मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा । कभी ब्राह्मणों का तिरस्कार नहीं करूँगा, उनका प्रेम से सत्कार करूँगा” । क्षमाशील महर्षि वसिष्ठ इसी पुत्रघाती राजा के साथ अयोध्या में आये और अपने कृपा प्रसाद से उसे पुत्रवान् बनाया ।
इधर वसिष्ठ के आश्रम पर अदृश्यन्ती के गर्भ से पराशर का जन्म हुआ । स्वयं भगवान् वसिष्ठ ने पराशर के जातकर्मादि संस्कार कराये । धर्मात्मा पराशर वसिष्ठमुनि को ही अपना पिता समझते थे और “पिताजी ! पिताजी !” कहकर पुकारते थे ।
एक दिन अदृश्यन्ती ने बतलाया कि ये तुम्हारे पिता नहीं, दादा हैं; इसी प्रसंग में पराशर जी को यह भी मालूम हुआ कि मेरे पिता को राक्षस ने खा डाला । यह सुनकर उनके चित्त में बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने सब राजाओं पर विजय प्राप्त करने का निश्चय किया । महर्षि वसिष्ठ ने प्राचीन कथाएँ कहकर उन्हें समझाया और आज्ञा की कि “तुम्हारा कल्याण इसी में है। तुम क्षमा करो, किसी को पराजित मत करो ।
तुम्हें मालूम ही है कि इन राजाओं की जगत में कितनी आवश्यकता है” । वसिष्ठ के समझाने-बुझाने से पराशर ने राजाओं को पराजित करने का निश्चय तो छोड़ दिया, परंतु राक्षसों के विनाश के लिये घोर यज्ञ प्रारम्भ किया । उस यज्ञ से जब राक्षसों का नाश होने लगा, तब महर्षि पुलस्त्य और वसिष्ठ ने उन्हें समझाया “पराशर ! क्षमा ही परम धर्म है । तुम्हारे सभी पूर्वज क्षमा की मूर्ति हैं ।
मनुष्य तो यों ही किसी की मृत्यु का निमित्त बन जाता है, तुम यह भयंकर क्रोध त्याग दो” । ऋषियों की आज्ञा से पराशर ने भी क्षमा स्वीकार की और अपने यज्ञाग्नि को हिमाचल में छोड़ दिया । उन्होंने उस भयङ्कर शक्ति को अभिमन्त्रित शक्तियों से आबद्ध कर के उस महान पर्वत की कंदराओं में ही कहीं स्थापित कर दिया है जिसका ज्ञान आज किसी को नहीं है ।
बहुत से लोग तो जानते भी नहीं कि ऐसी कोई शक्ति आज भी है | यद्यपि वो शक्ति जो कोई भी है और हिमांचल क्षेत्र में जहाँ कहीं भी है, इस बात की प्रबल सम्भावना है कि वो अभी निष्क्रिय है | लेकिन भविष्य में जब कभी भी, किसी कारण वश अगर वह सक्रीय हुई, तो राक्षसी मानसिकता वाली प्राणियों पर कहर बन कर बरसेगी |