महाभारत युद्ध के अंतिम दिन जब भीम ने दुर्योधन को गदा युद्ध में परास्त करके उसका मान-मर्दन करते हुए उसे अधमरा कर दिया तो दुर्योधन के पिता धृतराष्ट्र अत्यंत बेचैन हो गए | उन्होंने संजय से पूछा “संजय ! मेरा पुत्र बड़ा क्रोधी था, पाण्डवों से वैर रखने के कारण उस पर बड़ा भारी संकट आ पड़ा । बताओ, जब जाँघे टूट जाने से वह पृथ्वी पर गिरा और भीमसेन ने उस के सिर पर अपना पैर रखा, उसके बाद उसने क्या कहा”?
संजय ने कहा-महाराज ! जाँघ टूट जाने पर जब दुर्योधन धरती पर गिरा तो धूल में सन गया । फिर बिखरे हुए बालों को समेटता हुआ वह दसों दिशाओं की ओर देखने लगा ।
तत्पश्चात् बड़ी कोशिश से किसी तरह बालों को बाँधकर उसने आँसू भरे नेत्रों से मेरी ओर देखा और अपनी दोनों भुजाओं को धरती पर रगड़ कर उच्छ्वास लेते हुए कहा “ओह ! शान्तनुनन्दन भीष्म, कर्ण, कृपाचार्य, शकुनि, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, शल्य और कृतवर्मा-जैसे वीर मेरे रक्षक थे, तो भी मैं इस दशा को आ पहुँचा ! निश्चय ही काल का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता ।
जो एक दिन ग्यारह अक्षौहिणी सेना का स्वामी था, उसकी आज यह अवस्था ! संजय ! मेरे पक्ष के योद्धाओं में जो लोग जीवित हों, उनसे कहना कि भीमसेन ने गदा-युद्ध के नियम को तोड़कर दुर्योधन को मारा है । क्रूर कर्म करने वाले पाण्डवों ने भीष्म, द्रोण, भूरिश्रवा और कर्ण को कपट पूर्वक मारने के पश्चात् मेरे साथ छल कर के एक और कलंक का टीका लगा लिया ।
मुझे विश्वास है, उन्हें इन कुकर्म के कारण सत्पुरुषों के समाज में पछताना पड़ेगा । कौन ऐसा विद्वान् होगा, जो मर्यादा का भंग करने वाले मनुष्य के प्रति सम्मान प्रकट करेगा ? आज पापी भीमसेन जैसा खुश हो रहा है, अधर्म से विजय पाने पर दूसरा कौन बुद्धिमान् पुरुष ऐसी खुशी मनायेगा ? मेरी जाँघे टूट गयी हैं, ऐसी दशा में भीम ने जो मेरे सिर को पैरों से दबाया है, इससे बढ़कर आश्चर्य को बात और क्या होगी ?
मेरे माता-पिता बहुत दुःखी होंगे, उनसे यह संदेश कहना “मैंने यज्ञ किये; जो भरण-पोषण करने योग्य थे, उनका पालन किया और समुद्रपर्यन्त पृथ्वी पर अच्छी तरह शासन किया । शत्रु जीवित थे, तो भी उनके मस्तक पर पैर नहीं रखा और शक्ति के अनुसार मित्रों का प्रिय किया । अपने बन्धु-बान्धवों का आदर तथा वश में रहने वालों का सत्कार किया ।
धर्म, अर्थ तथा काम का सेवन किया; दूसरे राष्ट्रों पर आक्रमण कर के उन्हें जीता और दास की भाँति राजाओं पर हुक्म चलाया । जो अपने प्रिय व्यक्ति थे, उनकी सदा ही भलाई की । फिर मुझसे अच्छा अन्त किस का हुआ होगा ? विधिवत् वेदों का स्वाध्याय किया, नाना प्रकार के दान दिये और आयु भर में मुझे कभी रोग नहीं हुआ !
मैंने अपने धर्म से लोकों पर विजय पायी है तथा धर्मात्मा क्षत्रिय जैसी मृत्यु चाहते हैं, वही मुझे प्राप्त हो गयी । इससे अच्छा अन्त किसका होगा ? संतोष की बात है कि मैं पीठ दिखाकर भागा नहीं, मेरे मन में कोई दुर्विचार नहीं उत्पन्न हुआ । तो भी जैसे सोये अथवा पागल हुए मनुष्य को जहर देकर मार डाला जाय, उसी तरह उस पापी ने युद्ध धर्म का उल्लंघन कर के मेरा वध किया है” ।
तत्पश्चात् आपके पुत्र ने संदेश वाहकों से कहा “अश्वत्थामा, कृतवर्मा और कृपाचार्य से मेरी बात कह देना-अनेकों बार युद्ध के नियम को भंग कर के पाप में प्रवृत्त हुए इन पाण्डवों का आप लोग कभी भी विश्वास न कीजियेगा ।
मैं भीम के द्वारा अधर्म पूर्वक मारा गया हूँ । जो मेरे ही लिये स्वर्ग में गये हैं उन आचार्य द्रोण, कर्ण, शल्य, वृषसेन, शकुनि, जलसन्ध, भगदत्त, भूरिश्रवा, जयद्रथ तथा दुःशासन आदि भाइयों के तथा लक्ष्मण, दुःशासन कुमार और अन्य हजारों राजाओं के पीछे अब मैं भी स्वर्ग लोग में चला जाऊँगा । चिन्ता यही है कि अपने भाइयों और पति की मृत्यु का समाचार सुनकर मेरी दुःखिनी बहिन दुःशला की क्या दशा होगी ।
पुत्र और पौत्रों की बिलखती हुई बहुओं के साथ मेरे माता-पिता किस अवस्था को पहुँचेंगे ! बेटे और पति की मृत्यु सुनकर बेचारी लक्ष्मण की माता भी तुरंत प्राण दे देगी । व्याख्यान देने में कुशल और संन्यासी के वेष में चारों ओर घूमने-फिरने वाले चार्वाक को यदि मेरी हालत मालूम हो जायगी तो अवश्य ही वे मेरे वैर का बदला लेंगे । मैं तो त्रिभुवन में प्रसिद्ध इस पवित्र तीर्थ समन्तपंचक में प्राण त्याग कर रहा हूँ, इसलिये मुझे अक्षय लोकोंकी प्राप्ति होगी” ।
राजन् ! आपके पुत्र का यह विलाप सुनकर हजारों मनुष्यों की आँखों में आँसू भर आये । वे व्याकुल होकर वहाँ से इधर-उधर हट गये । दूतों ने आकर अश्वत्थामा से गदायुद्ध की सारी बातें तथा राजा को अन्यायपूर्वक गिराये जाने का समाचार भी कह सुनाया । इसके बाद वहाँ थोड़ी देर तक विचार करने के पश्चात् वे जहाँ से आये थे, वहीं लौट गये |
संदेश वाहकों के मुख से दुर्योधन के मारे जाने का समाचार सुनकर बचे हुए कौरव महारथी अश्वत्थामा, कृपाचार्य तथा कृतवर्मा-जो स्वयं भी तीखे बाण, गदा, तोमर और शक्तियों के प्रहार से विशेष घायल हो चुके थे-तेज चलने वाले घोड़ों से जुते हुए रथ पर सवार हो तुरंत युद्धभूमि में गये ।
वहाँ पहुँचकर देखा कि दुर्योधन धरती पर गिरा हुआ छटपटा रहा है और उसका सारा शरीर खून से भीगा हुआ है । क्रोध के मारे उसकी भौंहें तनी और आँखें चढ़ी हुई थी, वह अमर्ष में भरा दिखायी देता था । अपने राजा को इस अवस्था में पड़ा देख कृपाचार्य आदि को बड़ा मोह हुआ । वे रथों से उतर कर दुर्योधन के पास ही जमीन पर बैठ गये । उस समय अश्वत्थामा की आँखों में आँसू भर आये, वह सिसकता हुआ कहने लगा “राजन् ! निश्चय ही इस मनुष्य लोक में कुछ भी सत्य नहीं है, जहाँ तुम्हारे-जैसा राजा धूल में लोट रहा है ।
अन्यथा जो एक दिन समस्त भूमण्डल का स्वामी था, जिसने सब पर हुक्म चलाया, वही आज इस निर्जन वन में अकेला कैसे पड़ा हुआ है । आज मुझे दुःशासन नहीं दिखायी देता, महारथी कर्ण तथा सम्पूर्ण हितैषी मित्रों का भी दर्शन नहीं होता-यह क्या बात है ? वास्तव में काल की गति को जानना बड़ा कठिन है ।
जरा समय का उलट-फेर तो देखो, तुम मूर्धाभिषिक्त राजाओं के अग्रगण्य होकर भी आज तिनकों सहित धूल में लोट रहे हो ! महाराज ! तुम्हारा वह श्वेत छत्र कहाँ है? चँवर कहाँ है? और वह विशाल सेना कहाँ चली गयी? किस कारण से कौन सा काम होगा, इसको समझना बड़ा मुश्किल है; क्योंकि तुम समस्त प्रजा के माननीय राजा होकर भी आज इस दशा को पहुँच गये ।
तुम तो इन्द्र से भी भिड़ने का हौसला रखते थे; जब तुम पर भी यह विपत्ति आ गयी तो यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि किसी भी मनुष्य की सम्पत्ति स्थिर नहीं होती” ।’
अत्यन्त दु:खी हुए अश्वत्थामा की बात सुनकर दुर्योधन की आँखों में शोक के आँसू उमड़ आये । उसने दोनों हाथों से नेत्रों को पोंछा और कृपाचार्य आदि से यह समयोचित वचन कहा “मित्रो ! इस मर्त्यलोक का ऐसा ही नियम है, यह विधाता का बनाया हुआ धर्म है; इसलिये कालक्रम से एक-न-एक दिन समस्त प्राणियों का मरण होता है ।
वही आज मुझे भी प्राप्त हुआ है, जिसे आप लोग अपनी आँखों देख रहे हैं । एक दिन मैं इस भूमण्डल का पालन करने वाला राजा था और आज इस अवस्था को पहुँचा हुआ हूँ । तो भी मुझे इस बात की खुशी है कि युद्ध में बड़ी-से-बड़ी विपत्ति आने पर भी मैं कभी पीछे नहीं हटा ।
पापियों ने मुझे मारा भी तो छल से । मैंने युद्ध में सदा ही उत्साह दिखाया है और अपने बन्धु-बान्धवों के मारे जाने पर स्वयं भी युद्ध में ही प्राण-त्याग कर रहा हूँ, इससे मुझे विशेष संतोष है । सौभाग्य की बात है कि आप लोगों को इस नर संहार से मुक्त देख रहा हूँ । साथ ही आप लोग सकुशल एवं कुछ करने में समर्थ हैं-यह मेरे लिये भी प्रसन्नता की बात है ।
आप लोगों का मुझपर स्वाभाविक स्नेह है, इसलिये मेरे मरने से दुःखी हो रहे हैं; किंतु चिन्ता करने की कोई बात नहीं है । यदि वेद प्रमाणभूत हैं, तो मैंने अक्षय लोकों पर अधिकार प्राप्त किया है; इसलिये मैं कदापि शोक के योग्य नहीं हूँ । आप लोगों ने अपने स्वरूप के अनुरूप पराक्रम दिखाया और सदा ही मुझे विजय दिलाने का प्रयत्न किया है; किंतु दैव के विधान का कौन उल्लंघन कर सकता है”?
महाराज ! इतना कहते-कहते दुर्योधन की आँखों में फिर से आँसू उमड़ आये तथा वह शरीर की पीड़ा से भी अत्यन्त व्याकुल हो गया; इसलिये अब आगे कुछ न बोल सका, चुप हो रहा । अपने राजा की यह दशा देख अश्वत्थामा की आँखें भर आयीं, उसे बड़ा दुःख हुआ । साथ ही शत्रुओं पर क्रोध भी हुआ । वह क्रोध से आगबबूला हो उठा और हाथ से हाथ दबाता हुआ कहने लगा
“राजन् ! उन पापियों ने क्रूरकर्म करके ही मेरे पिता को भी मारा था; किंतु उसका मुझे उतना संताप नहीं है, जितना आज तुम्हारी दशा देखकर हो रहा है अच्छा, अब मेरी बात सुनो, मैंने जो यज्ञ किये, कुएँ तालाब आदि बनवाये तथा जो दान, धर्म एवं पुण्य किये हैं, उन सबकी तथा सत्य की भी शपथ खाकर कहता हूँ-आज मैं श्रीकृष्ण के देखते-देखते हर एक उपाय से काम लेकर समस्त पांचालों को यमलोक भेज दूंगा ।
इसके लिये सिर्फ तुम आज्ञा दे दो” । अश्वत्थामा की बात सुनकर दुर्योधन मन-ही मन प्रसन्न हुआ और कृपाचार्य से बोला “आचार्य ! आप शीघ्र ही जल से भरा हुआ कलश ले आइये” । कृपाचार्य ने ऐसा ही किया । जब कलश लेकर वे राजा के निकट आये, तो उसने कहा “विप्रवर ! यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं, तो द्रोणकुमार का सेनापति के पद पर अभिषेक कर दीजिये आपका भला होगा” ।
राजा की आज्ञा से कृपाचार्य ने अश्वत्थामा का अभिषेक किया । इसके बाद वह दुर्योधन को हृदय से लगाकर सम्पूर्ण दिशाओं को सिंहनाद से प्रतिध्वनित करता हुआ वहाँ से चल दिया । दुर्योधन खून में डूबा हुआ रातभर वहीं पड़ा रहा । युद्धभूमि से दूर जाकर वे तीनों महारथी आगे के कार्यक्रम पर विचार करने लगे