भारत वर्ष के राजा धृतराष्ट्र ने पूछा-संजय ! तुमने कहा कि युधिष्ठिर ने महारथी दुर्योधन को रथहीन कर दिया था, सो उसके बाद उन दोनों का किस प्रकार युद्ध हुआ? इसके सिवा तीसरे पहर का रोमांचकारी युद्ध भी कैसे-कैसे हुआ? यह सब वृत्तान्त तुम मुझे सुनाओ । संजय ने कहा-राजन् ! जब दोनों ओर की सेनाएँ आपस में भिड़ गयीं तो आपका पुत्र एक दूसरे रथ में चढ़कर संग्राम भूमि में आया ।
उसने अपने सारथि से कहा, “सूत ! चल, चल जल्दी से, जहाँ राजा युधिष्ठिर हैं, वहीं मुझे शीघ्र ले चल” । तब सारथि तुरंत ही उस रथ को हाँककर धर्मराज के सामने ले गया । दुर्योधन ने फौरन ही एक पैने बाण से उनका धनुष काट डाला । इस पर महाराज युधिष्ठिर ने दूसरा धनुष लेकर दुर्योधन के धनुष और ध्वजा के टुकड़े कर दिये । तब दुर्योधन ने भी दूसरा धनुष लेकर उन्हें घायल कर डाला ।
इस प्रकार वे दोनों ही वीर अत्यन्त क्रोध में भरकर एक-दूसरे पर शस्त्रों की वर्षा करने लगे, दोनों ही एक-दूसरे पर वार करने का मौका देखने लगे, दोनों ही बाणों की चोटों से घायल हो गये तथा दोनों ही बार-बार सिंह के समान गर्जना और शंखध्वनि करने लगे । राजा युधिष्ठिर ने तीन वज्र के समान वेगवान् और दुर्धर्ष बाणों से दुर्योधन की छाती पर चोट की । इसके बदले में आपके पुत्र ने उन्हें पाँच तीक्ष्ण बाणों से घायल कर दिया ।
इसके बाद उसने उन पर एक अत्यन्त तीक्ष्ण लोहमयी शक्ति छोड़ी । उसे आते देख राजा युधिष्ठिर ने तीन पैने बाणों से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये तथा पाँच बाणों से दुर्योधन को भी घायल कर डाला । अब दुर्योधन गदा उठाकर बड़े वेग से धर्मराज की ओर दौड़ा । यह देखकर उन्होंने आपके पुत्र पर एक अत्यन्त देदीप्यमान शक्ति छोड़ी । उसने उसके कवच को तोड़कर छाती पर चोट पहुँचायी ।
इससे वह अत्यन्त व्याकुल होकर गिर पड़ा और मूर्छित हो गया । इसी समय भीमसेन ने अपनी प्रतिज्ञा याद करके धर्मराज से कहा, “महाराज! इसे आप न मारें” । यह सुनकर धर्मराज वहाँ से हट गये । अब आपके पक्ष के योद्धा कर्ण को आगे करके पाण्डव-सेना पर टूट पड़े और उनके साथ युद्ध करने लगे । कर्ण ने अनेकों चमचमाते हुए बाण सात्यकि पर छोड़े ।
इस पर सात्यकि ने फौरन ही उसे तथा उसके रथ, सारथि और घोड़ों को अनेकों तीखे तीरों से छा दिया । कर्ण को इस प्रकार सात्यकि के बाणों से व्यथित देख आपके पक्ष के अनेकों अतिरथी हाथी, घोड़े, रथी और पैदल सेनाएँ लेकर दौड़े । उनका सामना द्रुपद के पुत्र आदि अनेकों वीरों ने किया । इससे वहाँ हाथी, घोड़े, रथ और सैनिकों का बड़ा भारी संहार होने लगा ।
इसी समय पुरुषप्रवर श्रीकृष्ण और अर्जुन अपने नित्यकर्म से निपटकर तथा शास्त्रानुसार भगवान् शंकर का पूजन कर युद्धक्षेत्र में आये । अर्जुन ने गाण्डीव धनुष चढ़ाकर सारी दिशा-विदिशाओं को बाणों से व्याप्त कर दिया, शत्रुओं के अनेकों रथ, आयुध, ध्वजा और सारथियों को नष्ट कर डाला तथा बहुत-से हाथी, महावत, घुड़सवार, घोड़े और पैदलों को यमराज के घर भेज दिया ।
यह देखकर राजा दुर्योधन अकेला ही बाणों की वर्षा करता अर्जुन पर टूट पड़ा । अर्जुन ने सात बाणों की वर्षा से उसके धनुष, सारथि, ध्वजा और घोड़ों को नष्ट करके एक बाण से उसका छत्र काट डाला । इसके बाद ज्यों ही उन्होंने दुर्योधन पर एक नवाँ प्राणघातक बाण छोड़ा कि अश्वत्थामा ने बीच ही में उसके सात टुकड़े कर दिये ।
इस पर अर्जुन ने अपने बाणों से अश्वत्थामा के धनुष, रथ और घोड़ों को नष्ट कर दिया तथा कृपाचार्य के प्रचण्ड कोदण्ड को भी टूक-टूक कर डाला । इसके बाद वे कृतवर्मा के धनुष, ध्वजा और घोड़ों को नष्ट करके तथा दुःशासन का भी धनुष काट कर कर्ण के सामने आये । कर्ण भी फौरन ही सात्यकि को छोड़कर अर्जुन के सामने आया और उन्हें तीन तथा श्रीकृष्ण को बीस बाणों से घायल कर बार-बार बाणों की वर्षा करने लगा ।
इतने ही में सात्यकि भी आ गया । उसने कर्ण पर पहले निन्यानबे और फिर सौ बाणों से चोट की । इसके बाद पाण्डव पक्ष के अन्यान्य योद्धा भी कर्ण पर वार करने लगे । युधामन्यु, शिखण्डी, द्रौपदी के पुत्र, प्रभद्रक वीर, उत्तमौजा, युयुत्सु, नकुल-सहदेव, धृष्टद्युम्न, चेदि, करूष, मत्स्य और केकय देश के वीर तथा चेकितान और धर्मराज युधिष्ठिर-इन सभी शूरवीरों ने बहुत-सी बलवती सेना लेकर उसे चारों ओर से घेर लिया तथा उस पर तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे । परंतु कर्ण ने अपने पैने बाणों से उस सारी शस्त्रवृष्टि को छिन्न-भिन्न कर डाला ।
बात-की-बात में कर्ण की अस्त्रशक्ति से आक्रान्त होकर पाण्डवों की सेना शस्त्रहीन और घायल होकर भागने लगी । अर्जुन ने हँसते-हँसते अपने अस्त्रों से कर्ण के अस्त्रों को नष्ट करके सम्पूर्ण दिशाओं, आकाश और पृथ्वी को बाणों से व्याप्त कर दिया । उनके बाण मूसल और परिघों के समान गिर रहे थे तथा कोई कोई तो शतघ्नी और वज्रों के समान जान पड़ते थे ।
इस प्रकार आपके और पाण्डवों के पक्ष के योद्धा विजय की लालसा से युद्ध में जुटे हुए थे कि इसी समय सूर्यदेव अस्ताचल के शिखर पर जा पहुंचे । सब ओर अन्धकार फैलने लगा तथा बड़े-बड़े धनुर्धर अपने-अपने योद्धाओं के सहित छावनी की ओर चलने लगे ।
कौरवों को जाते देख विजयी पाण्डव भी अपने शिविरों को चल दिये । सब वीर बाजे-गाजे के साथ सिंहनाद और गर्जना करते तथा अपने शत्रुओं की हँसी एवं श्रीकृष्ण और अर्जुन की स्तुति करते जाते थे । इस प्रकार उन्होंने छावनी में जाकर रातभर विश्राम किया |