क्या श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन ने युधिष्ठिर का घोर अपमान किया था और अपना गुणगान किया था तथा बाद में श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों ने युधिष्ठिर से क्षमा मांगी थी

क्या श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन ने युधिष्ठिर का घोर अपमान किया थामहाभारत युद्ध के दौरान जब अर्जुन द्वारा कर्ण का वध न किये जाने पर, युधिष्ठिर ने अर्जुन को धिक्कारा और उनके गांडीव को धिक्कारा तथा उन्हें अपना गाण्डीव किसी अन्य योद्धा को सौंप देने को कहा तो अर्जुन अत्यंत क्रोधित हो कर तलवार निकल लिए और युधिष्ठिर को मारने के लिए उद्धत हुए |

उसी समय कृष्ण ने स्थिति को भांपते अर्जुन को रोका, उनको अधर्म के रस्ते पर जाने के लिए धिक्कारा तथा उन्हें कथाओं के माध्यम से धर्म और अधर्म के मार्ग को स्पष्ट रूप से समझाया |

अर्जुन का क्रोध शांत हुआ, तो अर्जुन श्री कृष्ण से बोले “श्रीकृष्ण ! कोई बहुत बड़ा विद्वान् और बुद्धिमान् मनुष्य जैसा उपदेश दे सकता है तथा जिसके अनुसार आचरण करने से हम लोगों का कल्याण होना सम्भव है, वैसी ही बात आपने बतायी है ।

आप हम लोगों के माता-पिता के तुल्य हैं, आप ही परम गति हैं, इसलिये आपने बहुत उत्तम बात बतायी है । तीनों लोकों में कहीं कोई भी ऐसी बात नहीं है, जो आपको विदित न हो ।

अतः आप ही परम धर्म को पूर्ण रूप से तथा ठीक-ठीक जानते हैं । अब मैं राजा युधिष्ठिर को मारने योग्य नहीं समझता । मेरी इस प्रतिज्ञा के सम्बन्ध में आप ही अनुग्रह करके कुछ ऐसी बात बताइये, जिससे इसका पालन भी हो जाय और राजा का वध भी न होने पावे । भगवन् ! आप तो जानते ही हैं कि मेरा व्रत क्या है ?

मनुष्यों में जो कोई भी यह कह दे कि ‘तुम अपना गाण्डीव धनुष दूसरे किसी वीर को दे डालो, जो अस्त्र-विद्या और पराक्रम में तुमसे बढ़कर हो’ । तो मैं हठात् उसकी जान ले लूँ । इसी तरह भीमसेन को कोई ‘तूबरक’ (बिना मूंछ का या अधिक खाने वाला) कह दे, तो वे सहसा उसे मार डालें । सो राजा ने आपके सामने ही मुझसे कहा है कि ‘तुम अपना धनुष दूसरे को दे डालो’ ।

ऐसी दशा में यदि मैं इन्हें मार डालूँ तो इनके बिना एक क्षण के लिये भी मैं इस संसार में नहीं रह सकूँगा और यदि इनका वध न करूँ तो फिर प्रतिज्ञा भंग के पाप से कैसे मुक्त होऊँगा ? क्या करूँ ? मेरी बुद्धि कुछ काम नहीं देती । कृष्ण ! संसार के लोगों की समझ में मेरी प्रतिज्ञा भी सच्ची हो और राजा युधिष्ठिर का तथा मेरा जीवन भी सुरक्षित रहे-ऐसी ही कोई सलाह दीजिये” ।

श्रीकृष्ण ने कहा “वीरवर ! सुनो । राजा युधिष्ठिर थक गये हैं और बहुत दुःखी हैं । कर्ण ने अपने तीखे बाणों से इन्हें संग्राम में अधिक घायल कर डाला है । इतना ही नहीं, ये जब युद्ध नहीं कर रहे थे, उस समय भी उसने इनके ऊपर बाणों का प्रहार किया । इसीलिये दुःख और रोष में भरकर इन्होंने तुम्हें न कहने योग्य बात कह दी है ।

ये जानते हैं कि पापी कर्ण को सिर्फ तुम्हीं मार सकते हो; और उसके मारे जाने पर कौरवों को शीघ्र ही जीत लिया जा सकता है । इसी विचार से इन्होंने वे बातें कह डाली हैं; इसलिये इनका वध करना उचित नहीं है । अर्जुन ! तुम्हें अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना है तो जिस उपाय से ये जीवित रहते हुए मरे के समान हो जायँ वही बताता हूँ, सुनो ।

यही उपाय तुम्हारे अनुरूप होगा । सम्माननीय पुरुष संसार में जब तक सम्मान पाता है, तब तक ही उसका जीवित रहना माना जाता है, जिस दिन उसका बहुत बड़ा अपमान हो जाय, उस समय वह जीते-जी ‘मरा’ समझा जाता है । तुमने, भीमसेन ने, नकुल सहदेव ने तथा अन्य वृद्ध पुरुषों एवं शूरवीरों ने राजा युधिष्ठिर का सदा ही सम्मान किया है ।

आज तुम उनका अंशत: अपमान करो । यद्यपि युधिष्ठिर पूज्य होने के कारण ‘आप’ कहने योग्य हैं तथापि इन्हें ‘तू’ कह दो । गुरुजन को ‘तू’ कह देना उनका वध कर देने के ही समान माना जाता है । जिसके देवता अथर्वा और अंगिरा हैं, ऐसी एक सर्वोत्तम श्रुति बतायी जाती है । अपना भला चाहने वालों को बिना विचारे ही इसके अनुसार बर्ताव करना चाहिये ।

उस श्रुति का भाव यह है, ‘गुरु को ‘तू’ कह देना उसे बिना मारे ही मार डालना है’ । इसलिये जैसा मैंने बताया, उसी के अनुसार तुम धर्मराज के लिये ‘तू’ शब्द का प्रयोग करो । तुम्हारे मुख से अपने लिये ‘तू’ का प्रयोग सुनकर धर्मराज उसे अपना वध ही समझेंगे । इसके बाद तुम इनके चरणों में प्रणाम करके सान्त्वना देना और अपनी कही हुई अनुचित बात के लिये क्षमा माँग लेना ।

तुम्हारे भाई राजा युधिष्ठिर समझदार हैं, ये धर्म का खयाल करके भी तुम पर क्रोध नहीं करेंगे । इस प्रकार तुम मिथ्या भाषण और भ्रातृ वध के पाप से छूटकर प्रसन्नता पूर्वक सूतपुत्र कर्ण का वध करना । अपने सखा भगवान् श्रीकृष्ण का वह वचन सुनकर अर्जुन ने उनकी बड़ी प्रशंसा की, फिर वे हठ पूर्वक धर्मराज के प्रति ऐसे कटुवचन कहने लगे, जैसे पहले कभी नहीं कहे थे ।

वे बोले “तू चुप रह, न बोल, तू तो खुद ही लड़ाई से भागकर एक कोस दूर आ बैठा है, तू क्या उलाहना देगा ? हाँ, भीमसेन को मेरी निन्दा करने का अधिकार है; क्योंकि वे समस्त संसार के प्रमुख वीरों के साथ लड़ रहे हैं । शत्रुओं को पीड़ा पहुँचा रहे हैं । असंख्य शूरवीरों, अनेकों राजाओं, रथियों, घुड़सवारों तथा हजारों हाथियों को मौत के घाट उतारकर काम्बोजों और पर्वतीय योद्धाओं को इस तरह नष्ट कर रहे हैं, जैसे सिंह मृगों को ।

तू अपने कठोर वचनों के चाबुक से अब मुझे न मार, मेरे कोप को फिर न बढ़ा” । अर्जुन धर्मभीरु थे, वे युधिष्ठिर को ऐसी कठोर बातें सुनाकर बहुत उदास हो गये । यह जानकर कि ‘मुझसे कोई बहुत बड़ा पाप बन गया’ उनके चित्त में बड़ा खेद हुआ । बारंबार उच्छ्वास खींचते हुए उन्होंने फिर से तलवार उठा ली ।

यह देखकर श्रीकृष्ण ने कहा “अर्जुन ! यह क्या? तुम फिर क्यों तलवार उठा रहे हो? मुझे जवाब दो, तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध करने के लिये मैं पुन: कोई उपाय बताऊँगा” । श्रेष्ठ पुरुषों ने कभी ऐसा काम नहीं किया है । धर्म का स्वरूप सूक्ष्म है और उसका समझना कठिन, अज्ञानियों के लिये तो और भी मुश्किल है । यहाँ जो कर्तव्य है, उसे मैं बताता हूँ, सुनो ।

भाई का वध करने से जिस नरक की प्राप्ति होती है, उससे भी भयानक नरक तुम्हें आत्मघात करने से मिलेगा, इसलिये अब अपने ही मुँह से अपने गुणों का बखान करो, ऐसा करने से यही समझा जायगा कि तुमने अपने ही हाथों अपने को मार लिया” ।

यह सुनकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बातों का अभिनन्दन किया और ‘तथास्तु’ कहकर धनुष को नवाते हुए वे युधिष्ठिर से बोले “राजन् ! अब मेरे गुणों को सुनिये-पिनाकधारी भगवान् शंकर को छोड़कर दूसरा कोई भी मेरे समान धनुर्धर नहीं है; मेरी वीरता का उन्होंने भी अनुमोदन किया है । यदि चाहूँ तो इस चराचर जगत को एक ही क्षण में नष्ट कर डालूँगा । मेरे चरणों में रथ और ध्वजा के चिह्न हैं ।

मुझ-जैसा वीर यदि युद्ध में पहुँच जाय तो उसे कोई भी नहीं जीत सकता । उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम-इन सभी दिशाओं के राजाओं का मैंने संहार किया है” । “कृष्ण ! अब हम दोनों विजयशाली रथ पर बैठकर सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिये शीघ्र ही चल दें । आज राजा युधिष्ठिर प्रसन्न हों, मैं कर्ण को अपने बाणों से नष्ट कर डालूँगा” ।

यों कहकर अर्जुन पुनः युधिष्ठिर से बोले “आज या तो कर्ण की माता पुत्रहीन होगी या माता कुन्ती ही मुझसे हीन हो जायगी । मैं सत्य कहता हूँ, अपने बाणों से कर्ण को मारे बिना आज कवच नहीं उतारूँगा” ।

यह कहकर अर्जुन ने तुरंत अपने हथियार और धनुष नीचे डाल दिये, तलवार म्यान में रख दी, फिर लज्जित होकर उन्होंने युधिष्ठिर के चरणों में सिर झुकाया और हाथ जोड़कर कहा “महाराज ! मैंने जो कुछ कहा है, उसे क्षमा कीजिये और मुझ पर प्रसन्न हो जाइये । मैं आपको प्रणाम करता हूँ । अब मैं सब तरह से प्रयत्न करके भीमसेन को युद्ध से छुड़ाने और सूतपुत्र कर्ण का वध करने के लिये जा रहा हूँ ।

राजन् ! मेरा जीवन आपका प्रिय करने के लिये ही है-यह मैं सत्य कहता हूँ” । ऐसा कहकर अर्जुन ने राजा के दोनों चरणों का स्पर्श किया और फिर वे रणभूमि की ओर जाने को उद्यत हो गये । धर्मराज युधिष्ठिर अर्जुन के कठोर वचनों को सुनकर अपने पलंग पर खड़े हो गये, उस समय उनका चित्त बहुत दुःखी हो गया था ।

वे कहने लगे “पार्थ ! मैंने अच्छे काम नहीं किये हैं, इसीलिये तुम लोगों पर घोर संकट आ पड़ा है । मेरी बुद्धि मारी गयी है, मैं आलसी और डरपोक हूँ, इसलिये आज वन में चला जाता हूँ । मेरे न रहने पर तुम सुख से रहना । महात्मा भीमसेन ही राजा होने के योग्य हैं, मैं तो क्रोधी और कायर हूँ । अब मुझमें तुम्हारी ये कठोर बातें सहन करने की शक्ति नहीं है ।

इतना अपमान हो जाने पर मेरे जीवित रहने की भी कोई आवश्यकता नहीं है” । यह कहकर वे सहसा पलंग से कूद पड़े और वन में जाने को उद्यत हो गये | यह देख भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें प्रणाम करके कहा “राजन् ! आपको तो सत्यप्रतिज्ञ अर्जुन की यह प्रतिज्ञा मालूम ही है कि जो कोई उन्हें गाण्डीव धनुष दूसरे को देने के लिये कह देगा, वह उनका वध्य होगा | फिर भी आपने उन्हें वैसी बात कह दी ।

इससे अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करते हुए मेरे कहने से आपका अनादर किया है । गुरुजनों का अपमान ही उनका वध कहलाता है । इसलिये मैंने तथा अर्जुन ने जो सत्य की रक्षा को दृष्टि में रखकर आपके साथ न्याय के विरुद्ध आचरण किया है, उसे आप क्षमा कीजिये । हम दोनों ही आपकी शरण में आये हैं । मेरा भी अपराध है, इसके लिये आपके चरणों पर गिरकर मै क्षमा की भीख माँगता हूँ ।

आप मुझे भी क्षमा कर दें । आज यह पृथ्वी पापी कर्ण का रक्त-पान करेगी, मैं आपसे सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ, अब सूतपुत्र को मरा हुआ ही मान लीजिये” ।’ भगवान की यह बात सुनकर युधिष्ठिर ने सहसा उन्हें अपने चरणों पर से उठाया और हाथ जोड़कर कहा “गोविन्द ! आप जो कुछ कहते हैं, बिलकुल ठीक है, सचमुच ही मुझसे यह भूल हो गयी है | माधव ! आपने यह रहस्य बताकर मुझ पर बड़ी कृपा की, डूबने से बचा लिया ।

आज आपने हम लोगों की भयंकर विपत्ति से रक्षा की है । आप-जैसे स्वामी को पाकर ही हम दोनों संकट के भयानक समुद्र से पार हो गये । हम लोग अज्ञानवश मोहित हो रहे थे, आपकी ही बुद्धिरूप नौका का सहारा ले अपने मन्त्रियों सहित शोक सागर के पार हुए हैं । अच्युत! हम आपसे ही सनाथ हैं” ।

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