परीक्षित नंदन जन्मेजय को महाभारत कथा सुनाते हुए वैशम्पायन जी कहते हैं “जनमेजय ! द्रोणाचार्य ने राजकुमारों को अस्त्रविद्या में निपुण देखकर कृपाचार्य, सोमदत्त, बाह्रीक, भीष्म, व्यास और विदुर आदि के सामने धृतराष्ट्र से कहा, ‘राजन् ! सभी राजकुमार सब प्रकार की विद्या में निपुण हो चुके हैं । आपकी इच्छा हो, अनुमति दें तो उनकी अस्त्रविद्या का कौशल एक दिन सबके सामने दिखाया जाय’ ।
धृतराष्ट्र ने प्रसन्न होकर कहा, ‘आचार्य ! आपने हमारा बहुत बड़ा उपकार किया है । आप जिस समय, जिस जगह, जिस प्रकार अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन उचित समझते हों, करें । उसके लिये जिस प्रकार की तैयारी आवश्यक हो, उसकी आज्ञा करें’ । इसके बाद उन्होंने विदुर जी से कहा, ‘विदुर ! आचार्य के आज्ञानुसार तैयारी कराओ यह काम मुझे बहुत प्रिय है’ ।
द्रोणाचार्य ने रंगमण्डप के लिये एक झाड़-झंखाड़ से रहित समतल भूमि पसंद की । जलाशयों के कारण वह भूमि और भी सुहावनी थी । शुभ मुहूर्त में पूजा करके रंगमण्डप की नींव डाली गयी । रंगमण्डप तैयार होने पर उसमें अनेकों प्रकार के अस्त्र-शस्त्र टाँगे गये और राजघराने के स्त्री-पुरुषों के लिये उचित स्थान बनवाये गये । स्त्रियों और साधारण दर्शकों के स्थान अलग-अलग थे ।
नियत दिन आने पर राजा धृतराष्ट्र भीष्म एवं कृपाचार्य के साथ वहाँ आये । चारों ओर मोतियों की झालरें लटक रही थीं । साथ ही गान्धारी, कुन्ती एवं बहुत-सी राजपरिवार की महिलाएं भी अपनी-अपनी दासियों के साथ आयीं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि आकर यथास्थान बैठ गये । वहाँ की भीड़ उमड़ते समुद्र के समान जान पड़ी । बाजे बजने लगे ।
आचार्य द्रोण श्वेत वस्त्र, श्वेत यज्ञोपवीत और श्वेत पुष्पों की माला पहने अपने पुत्र अश्वत्थामा के साथ वहाँ आये । उनके सिर के और मूंछ-दाढ़ी के बाल भी श्वेत ही थे । द्रोणाचार्य ने समयानुसार देवताओं की पूजा कर वेदज्ञ ब्राह्मणों से मंगल पाठ करवाया । राजकुमारों ने पहले धनुष-बाण का कौशल दिखलाया ।
इसके बाद रथ, हाथी और घोड़ों पर चढ़कर अपनी-अपनी युद्ध- चातुरी प्रकट की । उन्होंने आपस में कुश्ती भी लड़ी । इसके बाद ढाल-तलवार लेकर तरह-तरह के पैंतरे बदलने तथा हस्तलाघव दिखलाने लगे । सब लोग उनकी फुर्ती, सफाई, शोभा, स्थिरता और मुट्ठीं की मजबूती आदि देखकर प्रसन्न हुए । भीमसेन और दुर्योधन दोनों हाथ में गदा लेकर रंगभूमि में उतरे ।
वे पर्वत-शिखर के समान हट्टे कटें वीर लंबी भुजा और कसी कमर के कारण बड़े ही शोभायमान हुए । रंग मण्डप में वे मदमत्त हाथियों के समान चिग्घाड़-चिग्घाड़कर पैंतरे बदलने और चक्कर काटने लगे । विदुर जी, धृतराष्ट्र को और कुन्ती, गान्धारी को सब बातें बतलाती जाती थीं । उस समय दर्शकों में दो दल हो गये । कुछ लोग भीमसेन की जय बोलते तो कुछ लोग राजा दुर्योधन की ।
समुद्र के समान उमड़ती हुई भीड़ का कोलाहल सुनकर द्रोणाचार्य ने अश्वत्थामा से कहा “बेटा ! इन्हें अब रोक दो । बात बढ़ जायगी तो दर्शक गड़बड़ कर बैठेंगे” । अश्वत्थामा ने उनकी आज्ञा का पालन किया । द्रोणाचार्य ने खड़े होकर बाजे बन्द करवाये और गम्भीर स्वर से कहा, “अब आप लोग अर्जुन का अस्त्र कौशल देखें । ये मुझे सबसे अधिक प्यारे हैं” ।
अर्जुन रंग-भूमि में आये । उन्होंने पहले आग्नेयास्त्र से आग पैदा की, फिर वारुणास्त्र से जल उत्पन्न कर के उसे बुझा दिया । वायव्यास्त्र से आँधी चला दी, पर्जन्यास्त्र से बादल पैदा किये, भौमास्त्र से पृथ्वी और पर्वतास्त्र से पर्वत प्रकट कर दिये । अन्तर्धानास्त्र के द्वारा वे स्वयं छिप गये । वे क्षण भर में बहुत लंबे हो जाते. तो पलक मारते बहुत छोटे ।
लोगों ने चकित होकर देखा कि वे दम भर में रथ के धुरे पर, तो उसी क्षण रथ के बीच में और पलक मारते पृथ्वी पर अस्त्रकौशल दिखा रहे हैं । उन्होंने बड़ी फुर्ती, सफाई और सुन्दरता के साथ सुकुमार, सूक्ष्म और भारी निशाने उड़ाकर अपनी निपुणता दिखायी ।
उन्होंने लोहे के बने सूअर (Robots) को इतनी फुर्ती से पाँच बाण मारे कि लोग एक ही बाण देख पाये । चंचल निशाने को भी बेधा । इसके बाद खड्गयुद्ध, गदायुद्ध तथा धनुर्युद्ध के अनेक पैंतरे तथा हाथ दिखलाये |
इसी समय कर्ण ने रंग भूमि के भीतर प्रवेश किया । जान पड़ा मानो कोई जीता-जागता पहाड़ टहलता हुआ आ रहा है । कर्ण ने अर्जुन को सम्बोधित कर के कहा “अर्जुन ! घमण्ड न करना । मैं तुम्हारे दिखाये हुए काम और भी विशेषता के साथ दिखाऊँगा” । उस समय दर्शकों में तहलका मच गया और वे इस प्रकार खड़े हो गये, मानो मशीन से उन्हें एक साथ खड़ा कर दिया गया हो ।
कर्ण की बात सुनकर अर्जुन एक बार तो लज्जित से हो गये, पर फिर उन्हें क्रोध आ गया । कर्ण ने द्रोणाचार्य की आज्ञा से वे सभी कौशल दिखलाये, जिन्हें अर्जुन ने दिखलाया था । इससे दुर्योधन को बड़ी प्रसन्नता हुई । उसने कर्ण को गले लगाकर कहा, “मेरे सौभाग्य से ही आपका आगमन हुआ है । हम और हमारा राज्य आपका ही है ।
इच्छानुसार इसका उपभोग कीजिये” । कर्ण ने कहा, “मैं तो स्वयं आपके साथ मित्रता करने को उत्सुक हूँ । इस समय मैं अर्जुन से द्वन्द्व युद्ध करना चाहता हूँ” । दुर्योधन ने कहा, “आप हमारे साथ रह कर सब प्रकार के भोग भोगिये, मित्रों का प्रिय कीजिये और शत्रुओं के सिर पर पैर रखिये” ।’
अर्जुन को ऐसा जान पड़ा, मानो कर्ण भरी सभा में मेरा तिरस्कार कर रहा है । उन्होंने कर्ण को पुकार कर कहा, “कर्ण ! बिना बुलाये आने वालों और बिना बुलाये बोलने वालों को जो गति मिलती है, वहीं तुम्हें मेरे हाथ से मरने पर मिलेगी” ।
कर्ण ने कहा, “अजी, यह रंगमण्डप तो सबके लिये है । क्या इस पर केवल तुम्हारा ही अधिकार है ? कमजोर की तरह आक्षेप क्या करते हो ? साहस हो तो धनुष-बाण से बातचीत करो । मैं तुम्हारे गुरु के सामने ही तुम्हारा सिर धड़ से अलग किये देता हूँ” । गुरु द्रोण की आज्ञा से अर्जुन द्वन्द्व युद्ध करने के लिये कर्ण के पास जा पहुंचे । कर्ण भी धनुष-बाण लेकर खड़ा हो गया ।
इतने में नीति निपुण कृपाचार्य ने दोनों को द्वन्द्व युद्ध के लिये तैयार देखकर कहा, “कर्ण ! पाण्डुनन्दन अर्जुन कुन्ती का सबसे छोटा पुत्र है । इस कुरुवंश शिरोमणि का तुम्हारे साथ युद्ध होने जा रहा है, इसलिये तुम भी अपने माँ-बाप और वंश का परिचय बतलाओ । यह जान लेने पर ही युद्ध करने-न-करने का निश्चय होगा । क्योंकि राजकुमार अज्ञात कुल-शील अथवा नीच वंश के पुरुष के साथ द्वन्द्वयुद्ध नहीं करते” ।’
कर्ण पर मानो सौ घड़ा पानी पड़ गया । उसका शरीर श्री हीन हो गया, मुँह लज्जा से झुक गया । दुर्योधन ने कहा, “आचार्य जी ! शास्त्र के अनुसार उच्च कुल के पुरुष, शूरवीर और सेना पति–तीनों ही राजा हो सकते हैं यदि अर्जुन कर्ण के साथ इसलिये नहीं लड़ना चाहते कि वह राजा नहीं है तो मैं कर्ण को अंगदेश का राज्य देता हूँ ।
यह कहकर दुर्योधन ने कर्ण को सुवर्ण- सिंहासन पर बैठाया और तत्काल अभिषेक कर दिया । उस समय कर्ण के धर्म पिता अधिरथ को बड़ी प्रसन्नता हुई । उसका दुपट्टा बिखर रहा था, शरीर पसीने से लथपथ था और दुर्बल होने के कारण उसका अंजर पंजर दीख रहा था । वह काँपता-काँपता कर्ण के पास आया और ‘बेटा-बेटा’! कह कर दुलार करने लगा कर्ण ने धनुष छोड़ कर बड़े सम्मान से उसके चरणों पर सिर रखकर प्रणाम किया ।
अभी उसका सिर अभिषेक के जल से भीग रहा था । अधिरथ ने झटपट कपड़े के छोर से अपना पैर ढंक लिया, उसे छाती से लगाया तथा प्रेमाश्रु से उसका सिर भिगो दिया । अधिरथ का ऐसा व्यवहार देखकर पाण्डवों ने निश्चय कर लिया कि यह सूत पुत्र है । भीम सेन ने हंसते हुए कहा, “अरे सूतपुत्र ! तू अर्जुन के हाथों मरने योग्य भी नहीं है |
तेरे वंश के अनुरूप तो यह है कि झटपट घोड़ों की चाबुक सँभाल ले । अरे नीच ! तू अंगदेश का राज्य करने योग्य नहीं है । भला, कहीं कुत्ता यज्ञ के हविष्य का अधिकारी होता है” ? कर्ण लम्बी साँस लेकर सूर्य की ओर देखने लगा ।
उस समय महाबली दुर्योधन मदमत्त हाथी के समान भाइयों के झुण्ड में से उछलकर निकल आया और भीम सेन से बोला, “भीम सेन ! तुम्हें ऐसी बात मुँह से नहीं निकालनी चाहिये । क्षत्रियों में बल की श्रेष्ठता ही सर्वमान्य है । इसलिये नीच कुल के शूरवीर के साथ भी युद्ध करना ही चाहिये । शूरवीर और नदियों की उत्पत्ति का ज्ञान बड़ा कठिन है ।
कर्ण स्वभाव से ही कवच-कुण्डलधारी और सर्वलक्षण सम्पन्न है । इस सूर्य के समान तेजस्वी कुमार को भला, कोई सूत पत्नी जन सकती है । कर्ण अपने बाहुबल तथा मेरी सहायता से केवल अंगदेश का ही नहीं, सारी पृथ्वी का शासन कर सकता है । मेरा यह काम जिस से न सहा जाता हो, वह रथ पर बैठकर धनुष पर डोरी चढ़ावे” ।
सारे रंगमण्डप में हाहाकार मच गया । तब तक सूर्यास्त हो गया था । दुर्योधन कर्ण का हाथ पकड़ कर वहाँ से बाहर निकल गया । द्रोणाचार्य, कृपाचार्य तथा भीष्मजी के साथ पाण्डव भी अपने-अपने निवास स्थान पर चले गये ।