जब द्रोणाचार्य ने देखा कि सभी राजकुमार अस्त्रविद्या के अभ्यास में पूर्णतः निपुण हो चुके हैं, तब उन्होंने निश्चय किया कि अब गुरु दक्षिणा लेने का समय आ गया है । उन्होंने सब राजकुमारों को अपने पास बुलाकर कहा, “तुम लोग पांचालराज द्रुपद को युद्ध में पकड़कर ले आओ । यही मेरे लिये सबसे बड़ी गुरु दक्षिणा होगी” । सबने बड़ी प्रसन्नता से गुरुदेव की आज्ञा स्वीकार की और उनके साथ शस्त्र धारण कर रथ पर सवार हो द्रुपद नगर की यात्रा कर दी ।
दुर्योधन, कर्ण, युयुत्सु, दुःशासन और दूसरे राजकुमार “पहले आक्रमण कर के मैं पकडूँगा”-ऐसा निश्चय करके आपस में स्पर्धा करने लगे । उन्होंने क्रमश: देश में और फिर राजधानी में प्रवेश किया । पांचालराज द्रुपद ने बड़ी शीघ्रता से किले से बाहर निकलकर अपने भाइयों के साथ आक्रमण कारियों पर बाण वर्षा शुरू कर दी ।
अर्जुन ने दुर्योधन आदि कौरवों को बहुत घमण्ड करते देखकर पहले ही द्रोणाचार्य से कहा था, “आचार्य ! इन लोगों को पहले अपना पराक्रम दिखा लेने दीजिये । ये लोग पांचालराज को नहीं पकड़ सकेंगे । इनके बाद हम लोगों की बारी आयेगी” । अर्जुन अपने भाइयों के साथ नगर से आधा कोस इधर ही ठहर गये थे ।
उधर द्रुपद ने अपने बाणों की बौछार से कौरवों की सेना को चकित कर दिया । वे इतनी फुर्ती और सफाई से बाण चला रहे थे कि कौरव भय वश उन्हें अनेक रूपों में देखने लगे । जिस समय द्रुपद घमासान बाण-वर्षा कर रहे थे, उस समय शंख, भेरी, मृदंग और सिंह नाद से सारी राजधानी गूंज उठी । धनुष की टंकार आकाश का स्पर्श करने लगी ।
इधर दुर्योधन, विकर्ण, सुबाहु और दुःशासन आदि भी बाण चलाने में कोई कोर-कसर नहीं रखते थे । द्रुपद अलातचक्र (बनेठी) की तरह घूम-घूमकर अकेले ही सबका सामना कर रहे थे । उस समय पांचाल राज की राजधानी के सभी साधारण और असाधारण नागरिक-जिनमें बच्चे, बूढ़े और स्त्रियाँ भी थीं-लाठी, मूसल आदि लेकर निकल पड़े और बरसते हुए बादलों के समान कौरवो पर टूट पड़े ।
कौरवों की सेना पर ऐसी मार पड़ी कि वे उस भयंकर मार के सामने एक क्षण भी नहीं ठहर सके, रोते-चिल्लाते पाण्डवों के पास भाग आये । कौरवों का करुण क्रन्दन सुनकर पाण्डवों ने द्रोणाचार्य के चरणों में प्रणाम किया और रथ पर सवार हुए । अर्जुन ने युधिष्ठिर को रोक दिया | नकुल और सहदेव को अपने रथ के चक्कों का रक्षक बनाया ।
भीम सेन हाथ में भीषण गदा लेकर सेना के आगे-आगे स्वयं चलने लगे । अभी द्रुपद आदि वीर कौरवों को हराकर हर्षनाद कर ही रहे थे कि अर्जुन का रथ दिशाओं को गुंजायमान करता हुआ वहाँ जा पहुंचा । भीमसेन दण्डपाणि काल के समान हाथ में गदा लेकर द्रुपद की सेना के भीतर घुस गये और गदा मार-मारकर हाथियों के सिर तोड़ने लगे ।
उन्होंने हाथी, घोड़े, रथ और पैदल-समस्त सेना को तहस-नहस कर दिया । अर्जुन ने उस महान् और विलक्षण युद्ध में बाणों की ऐसी झड़ी लगायी कि पांचालराज की सारी सेना ढक गयी । पहले सत्यजित ने अर्जुन पर बड़ा भीषण आक्रमण किया, परन्तु अर्जुन ने थोड़ी ही देर में उसे युद्ध से विमुख कर दिया । इसके बाद अर्जुन ने द्रुपद का धनुष और ध्वजा काटकर जमीन पर गिरा दिये और पाँच बाणों से चार घोड़ों तथा सारथि को मारा ।
अभी द्रुपद राज दूसरा धनुष उठाना ही चाहते थे कि अर्जुन हाथ में खड्ग लेकर अपने रथ से कूद पड़े और द्रुपद के रथ पर जाकर उन्हें पकड़ लिया । जब अर्जुन द्रुपद को लेकर द्रोणाचार्य के पास चले, तब सारे राजकुमार द्रुपद की राजधानी में लूटपाट मचाने लगे । अर्जुन ने कहा, “भैया भीमसेन ! राजा द्रुपद कौरवों के सम्बन्धी हैं । इनकी सेना का संहार मत कीजिये, केवल गुरु दक्षिणा रूप से द्रुपद को ही गुरु के अधीन कर दीजिये” ।
यद्यपि भीमसेन अभी लड़ने से तृप्त नहीं हुए थे, फिर भी उन्होंने अर्जुन की बात मान ली और लौट आये । इस प्रकार पाण्डव द्रुपद को पकड़ कर द्रोणाचार्य के पास ले आये । अब उनका घमण्ड चूर-चूर हो चुका था, धन भी छिन गया था । वे सर्वथा द्रोणाचार्य के अधीन हो रहे थे । उनकी यह स्थिति देख कर आचार्य द्रोण बोले, “द्रुपद ! मैंने बल पूर्वक तुम्हारे देश और नगर को रौंद डाला है ।
अब तुम्हारा जीवन तुम्हारे शत्रु के अधीन है । क्या तुम पुरानी मित्रता को सातत्य में रखना चाहते हो” ? उन्होंने तनिक हँसकर और भी कहा, “द्रुपद ! तुम प्राणों से निराश मत होओ । हम तो स्वभाव से ही क्षमाशील ब्राह्मण हैं । बचपन में हम लोग एक साथ खेला करते थे । वह प्रेम सम्बन्ध अब भी है । राजन् ! मैं चाहता हूँ कि हम लोग फिर वैसे ही मित्र बन जायँ ।
मैं तुम्हें वर देता हूँ कि तुम आधे राज्य के स्वामी रहो । तुमने कहा था कि जो राजा नहीं है, वह राजा का सखा नहीं हो सकता । इसलिये मैं भी तुम्हारा आधा राज्य लेकर राजा हो गया हूँ । तुम गंगाजी के दक्षिण तट के राजा रहो और मैं उत्तर तट का । अब तुम मुझे अपना मित्र समझो” । द्रुपद ने कहा “ब्रह्मन् ! आप-जैसे पराक्रमी उदार हृदय महात्माओं के लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है ।
मैं आपसे प्रसन्न हूँ और आपका अनन्त प्रेम चाहता हूँ” । अब द्रोण ने उन्हें मुक्त कर दिया तथा बड़ी प्रसन्नता से सत्कार करके आधा राज्य दे दिया । द्रुपद माकन्दी प्रदेश के श्रेष्ठ नगर काम्पिल्य में रहने लगे । उसे दक्षिण-पांचाल कहते हैं, वहाँ चर्मण्वती नदी है ।
इस प्रकार यद्यपि द्रोण ने द्रुपद को पराजित करके भी उनकी रक्षा ही की, परन्तु द्रुपद के मन में सन्तोष नहीं हुआ । इधर अहिच्छत्र-प्रदेश की अहिच्छत्रा नगरी में द्रोणाचार्य रहने लगे । अर्जुन के पराक्रम से ही उन्हें यह राज्य प्राप्त हुआ था ।