इस जगत में परमाणु, किसी भी जड़ पदार्थ की सबसे छोटी इकाई मानी जाती है। उसकी सूक्ष्मता अन्तिम मानी जाती है | ऐसा अनुमान है कि यदि मनुष्य, इस धरती पर एक परमाणु के बराबर हो जाये तो अपने देश यानी भारतवर्ष के 135 करोड़ लोग एक बड़ी सूई की नोक में आसानी से बैठाये जा सकते हैं।
परमाणु की सूक्ष्मता की कोई भी सीमा नहीं है। लेकिन यदि इस पूरे जगत में किसी भी एक स्थान पर अपवाद से रहित सत्य मिल जाता है तो जो सागर की लहरों से लेकर सूर्य के गतिशील होने तक की एक व्यापक हलचल विश्व में दिखाई दे रही है वह न होती, सृष्टि में सब ओर जड़ता ही जड़ता ही होती।
सृष्टि के खेल बड़े निराले हैं | इसको चलाये रखने के लिये हर परमाणु के भीतर एक चेतन शक्ति काम कर रही है। वही चेतन सत्ता जीव है, आत्मा है, उसी का विराट् रूप ब्रह्म है। उपनिषदों का एक संस्कृत श्लोक है “वालाग्रश्त भागस्य कल्पिस्य च। भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते”॥ श्वेताश्वतरोपनिषद् 5/6 |
अर्थात् बाल के अग्रभाग के सौवें भाग से भी सौवें अंश जितना सूक्ष्मातिसूक्ष्म परिमाण वाला आत्मा ही असीम गुणों वाला हो जाता है। परमाणु की लघुता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पानी की एक बूँद में 60 लाख शंख (सौ के आगे बीस शून्य) परमाणु होते हैं।
पानी के एक घटक तत्व हाइड्रोजन के परमाणु का व्यास एक इंच के बीस करोड़वें भाग जितना होता है। और उसका भार 164 ग्राम के 10 अरब शंख अर्थात् 1 के आगे 24 शून्य होती है।
इतना छोटा परमाणु भी अपने आप में न तो अन्तिम सत्य है और न ही स्थिर। उसकी स्थिरता परमाणु में न्यूट्रान कणों की उपस्थित के कारण भ्रम जैसी जान पड़ती है मुख्य रूप से उसमें दो भौतिक शक्तियाँ इलेक्ट्रान (ऋण विद्युत) और प्रोट्रान (धन विद्युत) गतिशील हैं।
ये दोनों शक्तिगण होने पर भी भौतिक माने जाते हैं। अर्थात् वह विभक्त तत्व हैं और परमाणु से भी काफी छोटे हैं। ऋण आवेश (इलेक्ट्रान का व्यास एक इंच के पचास नीलवें भाग अर्थात एक बटा 5 के आगे बारह शून्य) के बराबर और भार में हाइड्रोजन के परमाणु भार से भी एक बटा 2 हजारवें भाग जितना।
हैरानी की बात यह है कि यह इलेक्ट्रान परमाणु की कक्षा में 1300 मील प्रति सेकेंड की गति से चक्कर काट रहे हैं। इसी प्रकार धनात्मक आवेश वाले अणु (प्रोट्रान) इलेक्ट्रान से दस गुणा अधिक बड़ा स्थिर तथा भार में हाइड्रोजन परमाणु के बराबर होता है।
अभी तक न तो यह इलेक्ट्रान सूक्ष्मता की अन्तिम सीमा में आ पाये और नहीं प्रोट्रान तब तक इनको बाँध रखने वाली केन्द्रीय शक्ति भी आ धमकी इसे नाभिक या केन्द्रक (न्यूक्लियस) कहते हैं | एक परमाणु में नाभिक का स्थान उस परमाणु के दस नीलवें भाग जितना ही होता है।
वर्तमान में हुए शोधों के अनुसार अब इलेक्ट्रान के भीतर इलेक्ट्रान (क्वार्क)और नाभिक (न्यूक्लियस) के भीतर अनेक नाभिकों (न्यूक्लिआई) की संख्या भी निकलती चली आ रही है। हमारे प्राचीन आर्ष ग्रन्थों में इन्हें “सर्गाणु” तथा “कर्पाणु” शब्द से सम्बोधित किया गया है। विभिन्न तत्वों के परमाणुओं की इस सूक्ष्म शक्ति को देवियों की शक्ति कहा गया है। जैसे हर देवता के साथ एक देवी उसकी शक्ति के रूप में रहती है |
वैसे तो सामान्य तौर से तत्व पाँच ही माने गये हैं किन्तु “वेद निदर्शन विद्या” में यह स्पष्ट उल्लेख है कि सोना, चाँदी, लोहा, अभ्रक आदि ठोस पृथ्वी तत्व के ही विभिन्न रूपांतर हैं। ये कोई अलग से तत्व नहीं है जैसा की आवर्त सारणी में दिया गया है | इसी प्रकार के वायु के 46 भेद मिलते हैं अग्नियों और प्रकाश के भी भिन्न-भिन्न रूपों का वर्णन मिलता है |
शाक्त साहित्य में पदार्थ शक्तियों के सैकड़ों नाम मिलते हैं हर शक्ति का एक स्वामी देवता माना गया है और उसे शक्तिमान शब्द से संबोधित किया गया है। हमारे धर्म ग्रंथों के अनुसार अब पदार्थ के साथ जिस प्रति पदार्थ की कल्पना की गई है वह प्रत्येक अणु में प्रकृति के साथ पुरुष की उपस्थिति का ही बोधक है।
1930 में इसी विषय पर प्रसिद्ध अँगरेज़ वैज्ञानिक पाल एड्रिअन माँरिस डीराक ने इस तरह के कणों की उपस्थिति का उल्लेख किया और उन्हें प्रति-व्यय (एण्टी एलिमेंट) का नाम दिया गया । डीराक को 1933 में इसी विषय पर नोबुल पुरस्कार भी दिया गया।
उसके बाद एंटी इलेक्ट्रान (पॉज़िट्रान)और एंटी प्रोटोन सामने आये। सबसे हलचल वाली खोज मार्च 1965 में अमेरिका की ब्रुक हेवेन राष्ट्रीय प्रयोगशाला में हुई जिसके अनुसार प्रत्येक तत्व का उल्टा तत्व होना चाहिए।
कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने ‘एण्टी डयूटिरियम; की खोज की जो सामान्य हाइड्रोजन के गुणों से विपरित था और यह निश्चित हो गया कि संसार में प्रोटानों से भी भारी नाभिक विद्यमान हैं। और यहीं से एक नई कल्पना का उदय हुआ कि संसार में प्रति ब्रह्माण्ड नाम की भी कोई सत्ता होनी चाहिये।
ब्रह्माण्ड कहते हैं कि ईश्वर के अण्ड कहते हैं जिसमें निवास हो सके | लोक आदि, सारे संसार को ही ब्रह्माण्ड कहते हैं और भारतीय दर्शन में एक ही ईश्वर की कल्पना की गई हैं- विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात्। से बाहुभ्या धमति सं पतमैर्द्यावा भूमी जनयन देव एकः॥ ऋग्वेद 10/81/3 अर्थात एक ही देव (परमात्मा) सब विश्व को उत्पन्न करता, देखता, चलाता है। उसकी शक्ति सर्वत्र समाई हुई हैं। वही परम शक्तिमान् और सबको कर्मानुसार फल देने वाला है।
अंग्रेजी का ‘यूनीवर्स; शब्द भी सारे विश्व की एकता का प्रतीक है सृष्टि का कोई भी स्थान पदार्थ से रहित नहीं है आकाश में भी गैस है, वायु है और जहाँ बिल्कुल हवा नहीं है वहाँ विकिरण या प्रकाश के कण और ऊर्जा विद्यमान हैं। प्रकाश भी एक विद्युत चुम्बकीय तत्व है।
वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि वह एक वर्ग मील क्षेत्र पर प्रति मिनट आधी छटाँक मात्रा में सूर्य से गिरता रहता है। अर्थात् एक वर्ग मील स्थान में जो भी प्राकृतिक हलचल हो रही है उसका मूल कारण यह आधी छटाँक विद्युत चुम्बकीय तत्व ही होता।
जिस प्रकार कोई स्थान पदार्थ रहित नहीं है और प्रति कण को उपस्थिति भी सिद्ध हो गई जो कि स्थूल कण की चेतना से विपरीत गुण वाली होता है यह एक मानने वाले बात हुई कि सारी-सारी में व्यापक प्रति ब्रह्मांड तत्व वही ईश्वर होना चाहिये जिसे कण-कण में विद्यमान कर्माध्यक्ष विचार ज्ञान, मनन आदि गुणों वाला तथा गुणों से भी अतीत कहा गया है।
मनुष्य शरीर जिन जीवित कोशिकाओं (सेल्स) से मिल कर बना है उसमें आधा भाग ऊपर बताये भौतिक तत्व होते हैं। उनकी अपनी विविधता कैसी भी हो पर यह निश्चित है कि कोश में नाभिक को छोड़कर हर स्थूल पदार्थ कण कोई न कोई तत्व होता है।
उनके अपने-अपने परमाणु अपने-अपने इलेक्ट्रान प्रोट्रान, न्यूट्रान, पाजिट्रान प्रति इलेक्ट्रान तथा नाभिक भी होगे। पदार्थ ही ब्रह्मांड की रचना करता है इस प्रकार योग वशिष्ठ का यह कहना कि प्रत्येक लोक के अन्दर अनेक लोक और उनके ब्रह्मा (शासन कर्त्ता) विद्यमान हैं गलत नहीं है।
जीव अपनी वासना के अनुसार जिस पदार्थ की कल्पना करता है उसी प्रकार वे तत्व या गुण वाले लोक में चला जाता है। पर जिस प्रकार से मनुष्य के कोश का मूल ‘नाभिक’ ही अपनी चेतना का विस्तार साइटोप्लाज्म के हर तत्व के नाभिक में करता है उसी प्रकार इस सारी सृष्टि में हो रही हलचल का एक केन्द्रक या नाभिक होना चाहिये।
चेतन गुणों के कारण उसे ईश्वर नाम दिया गया हो तो इस भारतीय तत्वदर्शियों की अति-कल्पना न मान कर आज के स्थूल और भौतिक विज्ञान जैसा चेतना का विज्ञान ही मानना चाहिये और जिस प्रकार आज भौतिक विज्ञान की मानना चाहिये और जिस प्रकार आज भौतिक विज्ञान की उपलब्धियाँ जीवन के सीमित क्षेत्र को लाभान्वित कर रही हैं जीवन के अनन्त क्षेत्र के लाभ इस महान् अध्यात्म विज्ञान द्वारा प्राप्त किया जाना चाहिये।
परमाणु एक सजीव ब्रह्माण्ड है उसमें झाँक कर देखा गया तो सूर्य सी दमक सितारों सा परिभ्रमण और आकाश जैसा शून्य स्थान मिला। परमाणु की सारी गति का केन्द्र बिन्दु उसका तेजस्वी नाभिक ही होता है। सन् 1833 की बात है एक दिन फ्राँसीसी भौतिक विज्ञानी हेनरी बेकरल यूरेनियम पर प्रयोग कर रहे थे तब उन्हें पता चला कि यह यौगिक अपने भीतर आप ऊर्जा उत्पन्न करते हैं।
यह ऊर्जा पदार्थ से फूटती गलते और नष्ट होते रहते हैं यह मैडसक्यूरी ने इसी का नाम रेडियो सक्रियता बताया था। इसी गुण के कारण पदार्थ टूटते-फूटते गलते और नष्ट होते रहते हैं यह अवधि बहुत लम्बी होती है इसलिये स्पष्ट दिखाई नहीं देती पर प्रकृति में इस तरह की सक्रियता सर्वत्र है।
थोरियम का अर्द्ध-जीवन 14000,000,000 वर्ष है अर्थात् इतने वर्षों में उसकी मात्रा आधी रह जाती है आधी विकिरण से नष्ट हो जाती है। पृथ्वी के लोग इस तरह का विकिरण किया करते हैं।
प्रतिवर्ष मनुष्य जाति 80000000000000000000 फुट पौण्ड ऊर्जा आकाश में भेजती रहती है जबकि हमारे जीवन को अपने समस्त ब्रह्मांड को गतिशील रखने के लिए सूर्य प्रति सेकेंड चार सौ सेक्टीलियन अर्थात् दस अरब इक्कीस करोड़ किलोवाट शक्ति अपने सार मंडल को बिखेरता और उसे गतिशील रखता है।
इस आदान-प्रदान क्रिया पर ही सारा संसार चल रहा है। यदि सूर्य यह शक्ति देना बन्द करदे तो सौर मंडल का हर कण, हर शरीर निश्चेष्ट होकर नष्ट हो जायेगा। सौर मंडलों की रचना व विध्वंस ऐसे ही हुआ करता है।
थोरियम के परमाणु से यदि नाभिक को उसी के इलेक्ट्रान से चोट कराई जाये तो जो रेडियो-ऊर्जा 14000,000000 (उसकी पूरी मात्रा समाप्त होने तक) वर्ष में समाप्त होती होगी वह एक क्षण में समाप्त हो जायेगा। यह शक्ति इतनी बड़ी होगी कि वह लन्दन जैसे तीन महानगरों को एक सेकेण्ड में नष्ट करदे।
परमाणु की इस महाशक्ति की सूर्य की महाशक्ति से उसी प्रकार तुलना की जा सकती है जिस प्रकार परमाणु की रचना से सौर- मंडल की रचना की तुलना की जाती है। वस्तुतः परमाणु सूर्य और समस्त ब्रह्माण्ड के समान त्रिक हैं।
जो परमाणु में है वही सौर मंडल में है जिस प्रकार परमाणु अपने नाभिक के बिना नहीं रह सकता, सौर मण्डल सूर्य के बिना ब्रह्माण्ड भी एक अनन्त सर्वव्यापी शक्ति के बिना रह नहीं सकता। प्रकृति और ब्रह्म की एकता का रहस्य भी यही है।
जब तक नाभिक, न्यूट्रान एक हैं, तब तक दोनों में संघात नहीं होता सृष्टि परम्परा परमाणु की तरह स्थिर रहेगी जिस दिन संघात हुआ उसी दिन सारी सृष्टि शक्ति रूप में ‘बहुस्याय एकोभव; की स्थिति में चली जायेगी।
शरीर एक परिपूर्ण ब्रह्माण्ड है। प्राकृतिक परमाणु (जो साइटोप्लाजमा निर्माण करते हैं) उसके लोक की रचना करते हैं और नाभिक मिलकर एक चेतना के रूप में उसे गतिशील रखते हैं। सूर्य, परमाणु प्रक्रिया का विराट् रूप है इसलिए वही दृश्य जगत की आत्मा है, चेतना है, नियामक है, सृष्टि है।
उसी प्रकार सारी सृष्टि का एक अद्वितीय स्रष्टा और नियामक भी है पर वह इतना विराट है कि उसे एक दृष्टि में नहीं देखा जा सकता। उसे देखने समझने और पाने के लिये हमें परमाणु की चेतना में प्रवेश करना पड़ेगा बिन्दु साधना का सहारा लेना पड़ेगा अपनी चेतना को इतना सूक्ष्म बनाना पड़ेगा कि आवश्यकता पड़े तो वह काल ब्रह्मांड तथा गति रहित परमाणु की नाभि सत्ता में ध्यानस्थ व केन्द्रित हो सके।
उसी अवस्था पर पहुँचने से आत्मा की परमात्मा को स्पष्ट अनुभूति होती है। नियामक शक्तियों के जानने का और कोई उपाय नहीं है। शरीर में वह सारी क्षमतायें एकाकार हैं चाहें तो इस यन्त्र का उपयोग कर परमाणु की सत्ता से ब्रह्म तक को प्राप्ति इसी में कर लें।