स्वर्ग और नर्क समेत अन्यान्य लोकों की अवधारणा दुनिया के कई धर्मों में हैं | इसी अवधारणा ने आज के समय में, परग्रही एलियंस एवं उनकी रहस्यमय दुनिया के प्रति आम-जनमानस के कौतूहल को जन्म दिया है | आम आदमी अभी भी इनसे सम्बंधित घटनाओं को आश्चर्य की तरह देखता है और उनके बारे में ज्यादे-से-ज्यादे विश्वसनीय जानकारी पाना चाहता है |
पुरातन काल में ऐसा नहीं था | प्राचीन मनुष्य दूसरे लोकों के प्राणियों के संपर्क में वैसे ही था जैसे आज हम दूसरे देशों के मनुष्यों के संपर्क में होते हैं | आज के आधुनिक इतिहासकार, विद्वान, वैज्ञानिक, पुरातत्ववेत्ता, मनुष्य की विकास यात्रा को डार्विन के चश्मे से देखते हैं और हमें बताते हैं कि प्राचीन मनुष्य आदिवासियों की ज़िन्दगी जीता था, उसके पास अपनी ज़िन्दगी को सुचारू रूप से चलाने के लिए मूलभूत सुविधाओं और पर्याप्त बुद्धि का आभाव था |
जबकि सच्चाई ये है कि इन्ही आदिवासियों के सामानांतर विकसित सभ्यताएँ कल भी थीं आज भी हैं और कल भी रहेंगी | ये सृष्टि का नियम है | अगर कहीं प्रलय हो रही होती हैं तो कहीं सृजन भी हो रहा होता है | सर्वथा प्रलय या महाविनाश के समय भूत, भविष्य और वर्तमान एक ही बिंदु में समाहित हो जाते हैं और इतिहास अपना अंतिम अध्याय भी समाप्त कर देता है और विलीन हो जाता है महाशून्य में |
प्राचीन सभ्यताएँ विकसित थीं इसके प्रमाण, प्राचीन भारत, मिस्र, माया, यूनान, और रोम के भग्नावशेष खुद ही देते हैं | काल के क्रूर पंजों एवं मूढ़मति बर्बर आतताइयों के आक्रमण के बावजूद सौभाग्यवश बचे हुए प्राचीन भारत के ग्रंथों में इन परग्रही एलियंस एवं इनके लोकों के दिक्-काल, जन्म-मरण के नियम आदि के बारे में काफ़ी कुछ जानकारी दी हुई है |
जिन्हें इन ग्रंथों एवं इनके ज्ञान की वास्तविक जानकारी है वो बिना प्रकाश में आये इस पर शोध-कार्य कर भी रहे हैं | एक साधारण जिज्ञासा बहुतों के मन में होती है कि अगर स्वर्ग और नर्क जैसे लोक वास्तव में हैं तो क्या वहां के लोग हमारे ही जैसे होते हैं और हमारे ही जैसे जन्मते-मरते हैं या फिर वैसे ही अतिरंजित होते हैं जैसा विभिन्न धर्मों के ग्रंथों में वर्णित हुआ है |
मनुष्य हमेशा अनोखी चीजों को अपनी बुद्धि के अनुसार देखता है, सुनता है और समझता है और फिर वैसे ही उनका उल्लेख करता है | ये सांसारिक नियम है, किसी द्रव को आप जिस बर्तन में रखेंगे वो उसी के आयतन एवं आकार के अनुसार रूप ग्रहण कर लेता है | भारतीय दर्शन, मानवेतर दुनिया, उनके लोक, प्राणी आदि के बारे में सटीक जानकारी देता है |
प्राचीन भारतीय ज्ञान के अनुसार इस अखिल विश्व ब्रह्माण्ड में चौरासी लाख योनियाँ हैं जिसमे जीवात्मा अलग-अलग दिक्-काल में अपने कर्मों को भोगता है | इन्ही में से एक योनि है मनुष्य योनि जो कर्म योनि मानी गयी है | प्राचीन भारतीय ऋषि मुनियों ने इन चौरासी लाख योनियों को दो श्रेणियों में बाँटा है-पहली श्रेणी है मैथुनी सृष्टि की दूसरी श्रेणी अमैथुनी सृष्टि की |
युगल के सम्बन्ध से पैदा होने वाली सृष्टि, मैथुनी सृष्टि कहलाती है | जैन धर्म-ग्रंथों में इस सृष्टि को गर्भज सृष्टि भी कहते हैं | जो प्राणी एक निश्चित अवधि तक गर्भ में रहकर अपना शारीरिक विकास करता है और पर्याप्त विकास के बाद गर्भ से बाहर आता है, उसे गर्भज प्राणी कहते हैं | इसमें मनुष्य से लेकर पशु-पक्षी इत्यादि इस धरती के प्राणी आते हैं |
इन जीवों के गर्भ में रहने की अवधि अलग-अलग हो सकती है लेकिन इसी अवधि में उनका शारीरिक संस्थान पूरा बन जाता है और वो बाहर का वायुमंडल सहन कर सके ऐसी उनमे शारीरिक क्षमता पैदा हो जाती है | पक्षियों समेत इस दुनिया के कई प्राणियों के गर्भ अंडे के रूप में होते हैं | जीव अंडे के खोल में पैदा होता है और उसी में धीरे-धीरे उनका पूरा शरीर बन जाता है |
इस प्रकार गर्भ से पैदा होने वाले पशु-पक्षी तथा मनुष्य मैथुनी सृष्टि के अंतर्गत आते हैं | इनमे मानसिक, वाचिक और कायिक तीनो शक्तियों का विकास है | यद्यपि विकास की क्षमता में एक दुसरे से तारतम्य ज़रूर है लेकिन तीनो शक्तियों की सत्ता अवश्य विद्यमान है | इस ब्रह्माण्ड का दूसरा भाग ‘अमैथुनी’ सृष्टि का है | यह मैथुनी सृष्टि की तुलना में काफ़ी बड़ी है |
ब्रह्माण्ड के अपेक्षाकृत बड़े हिस्से में अमैथुनी सृष्टि के ही प्राणी विद्यमान हैं | इस सृष्टि में विकसित और अविकसित दोनों योनियों का समावेश है | एक तीसरी श्रेणी अतिविकसित योनि के प्राणियों की भी है | यद्यपि ऐसे प्राणियों की संख्या सीमित है लेकिन ब्रह्माण्ड की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं में इनका सीधा हस्तक्षेप होता है |
अमैथुनी सृष्टि के मुख्य प्राणी-देवयोनि के जीव, नरक योनि के जीव, एकेन्द्रिय जीव, द्विन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय लेकिन अमनस्क (यानी जिनमे मानसिक, वाचिक तथा कायिक शक्तियों का निरंतर विकास नहीं होता) आदि होते हैं | देवयोनि में पैदा होने वाले जीवों को माता-पिता के संयोग की आवश्यकता नहीं होती | गर्भ की या अंडे में रहने की भी आवश्यकता नहीं होती |
वे वहाँ, कुछ विशेष प्रकार के पुष्प होते हैं उनमे जन्मते हैं | ये विशेष प्रकार के फूल (वहां के समयानुसार) जब भी वहाँ खिलते हैं तो उनमे उनका जन्म होता है | जन्म लेने के दो घड़ी भीतर (लगभग अड़तालीस मिनट के अन्दर) उनके परिमित शरीर की रचना हो जाती है | देव योनि के जीवों में ना तो बचपन होता है और ना ही बुढ़ापा | वे शक्ति-सम्पन्न, ऊर्जायुक्त शरीर वाले होते हैं, जिसमे हाड़-मांस नहीं होता |
दरअसल उनके लिए विशिष्ट अणुओं का समूह शरीर के रूप में अवस्थित हो जाता है और इस उत्पत्ति में किसी के संयोग की आवश्यकता नहीं, किसी के पालन-पोषण की अपेक्षा नहीं रहती | फूलों में जन्मते हैं, सदैव युवावस्था में रहते हैं और दीर्घायुषी होते हुए भी उनमे बीमारी या शैथिल्यता नहीं आती |
नर्क-योनि के प्राणियों का उत्पत्ति-स्थान एक कुम्भी जैसा स्थान होता है, ये एक ऐसे बॉक्स की तरह होता है जिसका मुंह छोटा और पेट बड़ा होता है | ये जीव भी पैदा होने के अड़तालीस मिनट के भीतर अपने शरीर का निर्माण कर लेते हैं | नर्क-योनि के इन जीवों में भी बचपन या बुढ़ापा दोनों नहीं होता लेकिन यहाँ जन्म से लेकर मृत्य-काल तक केवल पीड़ा-ही-पीड़ा है |
सर्वथा असुविधा, भयंकर दुर्गन्ध, भीषण ठण्ड (जिनमे हड्डियाँ भी भुरभुरी हो जाएँ) या भीषण अग्नि सामान गर्मी, पारस्परिक झगड़ा एक क्षण भी चैन नहीं लेने देता | यातना शरीर मिलने की वजह से, जीव ये सब कष्ट झेलता रहता है लेकिन मृत्यु को प्राप्त नहीं होता | वहाँ उसकी मृत्यु तभी होती है जब उसके कर्म-फल क्षीण होते हैं |
इन सब के अलावा पृथ्विकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, तथा वनस्पतिकाय-ये पाँच प्रकार के स्थावर शरीर वाले जीव अमैथुनिक हैं | इनमे एक इन्द्रिय होने के कारण इन्हें एकेन्द्रिय जीव कहा जाता है | इनमे चेतना का न्यूनतम विकास होता है | यद्यपि वनस्पतियों में संवेदनशीलता अत्यधिक होती है, लेकिन एक इन्द्रिय होने के कारण अभिव्यक्ति की प्रक्रिया अत्यंत सीमित है |
ये जीव अनुकूल संयोग मिलते ही अपने आप स्वयं पैदा होते हैं | इनमे मानसिक और वाचिक शक्तियों का निरंतर विकास नहीं होता | पैदा होते समय जिन क्षमताओं के साथ उत्पन्न होने हैं, उन्ही के साथ नष्ट भी होते हैं | द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और अमनस्क पञ्चइन्द्रिय वाले जीव भी ऐसी योनियों में पैदा होते हैं जो अमैथुनिक है |
वास्तव में ये ब्रह्माण्ड पञ्च तत्वों से मिलकर बना है | वर्तमान में, वैज्ञानिक जिन 118 तत्वों को आवर्त सारणी में वर्गीकृत करते हैं वो सारे पृथ्वी तत्व के अंतर्गत ही आते हैं (तत्वों का भारतीय वर्गीकरण विस्तृत था) | हमारे शरीर की पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ इस ब्रह्माण्ड में फैले हुए ज्ञान को ग्रहण करने के लिए हैं और पाँच कर्मेन्द्रियाँ उन्ही के अनुसार कार्य करने के लिए |
इन ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच तारतम्य बिठाने और इन पर नियंत्रण रखने का काम करता है मन | कुछ लोग मन को ही चेतना समझ लेते हैं जबकि ये गलत है | मन का निर्माण हमारे कर्मों द्वारा निर्मित हुए संस्कारों से होता है | कुछ लोग आत्मा को चेतना समझते हैं जबकि ये भी ठीक नहीं है क्योंकि चेतना का विकास होता, या तो आरोह क्रम (Upwards) में होगा या अवरोह क्रम (Downward) में होगा |
आत्मा सर्वथा निरपेक्ष है | इसका कभी विकास नहीं होता क्योंकि ना तो ये कभी पैदा हुआ था और ना ही ये कभी नष्ट होगा | तो फिर चेतना है क्या? वास्तव में आत्मा जब तक ‘जीव’ की अवस्था में रहता है, एक शरीर धारण किये हुए रहता है जिसे ‘ब्रह्माण्डीय शरीर’ या ‘Cosmic Body’ कहते हैं | ब्रह्माण्ड के विभिन्न लोकों में जीव अपने कर्मों के अनुसार अलग-अलग शरीर धारण करता है |
उनके अलग-अलग रंग-रूप हो सकते हैं | लेकिन ये शरीर कर्म-फल के अनुसार मिलते हैं और भोग समाप्त होते ही नष्ट हो जाते हैं | अगर कुछ नहीं नष्ट होता है तो वो है ब्रह्मांडीय शरीर | इसका निरंतर विकास होता है | दरअसल चेतना का विकास, इसी ब्रह्मांडीय शरीर (Cosmic Body) का विकास है |
लेकिन ये विकास कर्मों के फलस्वरूप ही होता है | उच्च स्तर के कर्म (जिनमे ज्ञान का समावेश होना आवश्यक है) करने से ब्रह्मांडीय शरीर निरंतर विकसित होता है | एक स्तर ऐसा आता है जहाँ पहुँचने के बाद ये ब्रह्मांडीय शरीर यानि चेतना इतनी विकसित हो जाती है कि वो स्वयं तय करती है कि उसे कहाँ जाना है और कहाँ नहीं अर्थात वहां से उसका निम्न स्तर की योनियों में गमन नहीं होता |
भारतीय पौराणिक ग्रंथों में इसी को ‘मोक्ष’ या अपने ईष्ट प्रभु के परम-धाम में निवास करना कहते हैं | उन ग्रंथों में इसके बारे में जो लिखा है, सही लिखा है | लेकिन ऐसा नहीं है कि वहां पहुँचने के बाद उस जीव के ब्रह्मांडीय शरीर (Cosmic Body) का विकास रुक जाता है | दरअसल वहां भी विकास के पाँच स्तर होते है |
प्रथम स्तर है सालोक्य का | इस स्तर पर प्रवेश करने पर, इससे निम्न स्तर की योनियों में आवागमन रुक जाता है | यहाँ सुख और दुःख नहीं है केवल आनंद है | आनंद की तुलना सुख से नहीं की जा सकती | क्योंकि सुख में स्थायित्व नहीं है और आनंद चिर-स्थायी है |
इसके बाद दूसरा स्तर है ‘सार्ष्टि’ का | इस स्तर पर प्रवेश करने पर अपने ईष्ट प्रभु के समान ही ऐश्वर्य प्राप्त होता है | ये ऐश्वर्य, इस लोक के भौतिक ऐश्वर्यों से अलग होते हैं | तीसरा स्तर है सामीप्य का | इस स्तर पर प्रवेश करने पर अपने ईष्ट प्रभु का सामीप्य प्राप्त होता है, उनके माता-पिता, सखा, पुत्र, स्त्री आदि के रूप में | जीवात्मा जिस रूप में उनका ध्यान करता है, उनसे प्रेम करता है उसी रूप में वो वहां प्राप्त हो जाते हैं |
इसके आगे का द्वार सारुप्य मुक्ति की तरफ ले जाता है | इसमें वो अपने ईष्ट प्रभु का ही रूप धारण कर लेता है और उनके कुछ चिन्हों को छोड़कर बाकी समस्त चिन्हों जैसे शंख, चक्र, आदि को धारण कर लेता है | इसके आगे विकास का अंतिम स्तर होता है ‘सायुज्य’ का | यहाँ पहुँच कर वो अपने इष्ट प्रभु के साथ एकत्व को प्राप्त होता है यानि उनसे अभिन्न हो जाता है |
यहाँ महत्वपूर्ण बात ये है कि, ऐसा नहीं है कि चेतना के विकास के ये पाँच स्तर वही जा कर पूर्ण होते हैं, बल्कि ये मनुष्य जीवन जीते हुए भी पूरे किये जा सकते है | वास्तव में ब्रह्मांडीय शरीर या चेतना का विकास केवल और केवल उच्च स्तर के कर्म (जिनमे ज्ञान का समावेश होना आवश्यक है) द्वारा ही हो सकता है |
चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि ही एकमात्र कर्म योनि है बाकी सारी भोग योनियाँ हैं | इसलिए मनुष्य जन्म लेकर ही जीवात्मा की चेतना इतनी विकसित हो सकती है कि वो आवागमन के बंधन से मुक्त हो जाय, किसी और योनि में जन्म लेकर ऐसा संभव नहीं |
देवता या विकसित चेतनात्मक स्तर वाले प्राणी इस बात को समझते हैं कि कर्म-फल भोग समाप्त होने पर हमें वापस उन्ही योनियों में लौटना है और सुख-दुःख झेलना है | चूंकि उनकी समझ विकसित होती है इसलिए उन्हें मनुष्य योनि में जन्म लेने की महत्ता पता होती है |
इन्ही सब वजहों से देवता आदि उच्च चेतनात्मक स्तर वाले प्राणी (जिन्हें आज की दुनिया परग्रही एलियंस के रूप में जानती हैं) धरती के ज्ञानी और क्षमतावान मनुष्यों के संपर्क में रहते हैं | लेकिन कलियुगी प्रभाव की वजह से आज हम अपने आप को भुला बैठे है, अपने प्राचीन ग्रंथों में लिपिबद्ध हुए ज्ञान को भुला बैठे हैं |
हम उन्हें केवल धार्मिक नज़रों से देखते हैं | घर के मंदिर में अगर शिव-पुराण है, श्रीमद्भागवत गीता है तो हम लोग उसे माथे से लगाते हैं उसे भक्ति-भाव से पढ़ते है लेकिन समय की आज महती आवश्यकता है कि हम उसे तार्किक भाव से पढ़ें, वैज्ञानिक भाव से पढ़ें, स्वयं से प्रश्न करें, स्वयं उसका उत्तर ढूंढें |
जब हम स्वयं अपनी विरासत को नहीं पहचानेंगे, उसे नहीं संभालेंगे, तो हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या दे कर जायेंगे | याद रखिये ‘धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः | तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नौ धर्मो हतोऽवधीत्’ अर्थात हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म हमारी रक्षा करेगा धर्म के नाश होने पर हम स्वयं विनष्ट हो जायेंगे