महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था और भीमसेन ने दुर्योधन का बेरहमी से वध कर डाला था | तब अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृत वर्मा ये तीनों वीर दक्षिण की ओर चले और सूर्यास्त के समय शिविर के पास पहुँच गये । इतने में ही उन्हें विजयाभिलाषी पाण्डव वीरों का भीषण नाद सुनायी दिया; अत: उनकी चढ़ाई की आशंका से वे भयभीत होकर पूर्व की ओर भागे तथा कुछ दूर जाकर उन्होंने मुहूर्त भर विश्राम किया ।
यह सब सुन कर राजा धृतराष्ट्र ने संजय से कहा “संजय ! मेरे पुत्र दुर्योधन में दस हजार हाथियों का बल था । उसे भीम सेन ने मार डाला-इस बात पर एकाएक विश्वास नहीं होता । मेरे पुत्र का शरीर वज्र के समान कठोर था । उसे भी पाण्डवों ने संग्राम भूमि में नष्ट कर दिया । इससे निश्चय होता है कि प्रारब्ध से पार पाना किसी प्रकार सम्भव नहीं है ।
भैया संजय ! मेरा हृदय अवश्य ही फौलाद का बना हुआ है जो अपने सौ पुत्रों की मृत्यु का संवाद सुनकर भी इसके हजारों टुकड़े नहीं हुए । भला, अब पुत्रहीन होकर हम बूढ़े-बुढ़िया कैसे जीवित रहेंगे ? मैं एक राजा का पिता और स्वयं राजा ही था । सो अब पाण्डवों का दास बनकर किस प्रकार अपना जीवन व्यतीत करूँगा ?
ओह ! जिसने अकेले ही मेरे सौ-के-सौ पुत्रों का वध कर डाला और मेरी जिंदगी के आखिरी दिन दुःखमय कर दिये, उस भीमसेन की बातों को मैं कैसे सुन सकूँगा ? अच्छा, संजय ! यह तो बताओ कि इस प्रकार बेटा दुर्योधन के अधर्म पूर्वक मारे जाने पर कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा ने क्या किया”?
संजय ने कहा “राजन् ! आपके पक्ष के ये तीनों वीर थोड़ी ही दूर गये थे कि इन्होंने तरह-तरह के वृक्ष और लताओं से भरा हुआ एक भयंकर वन देखा । वहाँ थोड़ी देर विश्राम करके उन्होंने घोड़ों को पानी पिलाया और थकावट दूर हो जाने पर उस सघन वन में प्रवेश किया ।
वहाँ चारों ओर दृष्टि डालने पर उन्हें एक विशाल वटवृक्ष दिखायी दिया, जिसकी हजारों शाखाएँ सब ओर फैली हुई थीं । उस वट के पास पहुँचकर वे महारथी अपने रथों से उतर पड़े और स्नानादि कर के संध्या वन्दन करने लगे । इतने में ही भगवान् भास्कर अस्ताचल के शिखर पर पहुँच गये और सम्पूर्ण संसार में निशा देवी का आधिपत्य हो गया ।
सब ओर छिट के हुए ग्रह, नक्षत्र और तारों से सुशोभित गगन मण्डल दर्शनीय वितान के समान शोभा पाने लगा । अभी रात्रि का आरम्भ काल ही था । कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा दुःख और शोक में डूबे हुए उस वटवृक्ष के निकट पास-ही-पास बैठ गये और कौरव तथा पाण्डवों के विगत संहार के लिये शोक प्रकट करने लगे ।
अत्यन्त थके होने के कारण नींद ने उन्हें धर दबाया । इससे आचार्य कृप और कृतवर्मा सो गये । यद्यपि ये महामूल्य पलंगों पर सोनेवाले, सब प्रकार की सुख सामग्रियों से सम्पन्न और दुःख के अनभ्यासी थे, तो भी अनाथों की तरह पृथ्वी पर ही पड़ गये |
किंतु अश्वत्थामा इस समय अत्यन्त क्रोध और रोष में भरा हुआ था । इसलिये उसे नींद नहीं आयी । उसने चारों ओर वन में दृष्टि डाली तो उसे उस वटवृक्ष पर बहुत-से कौए दिखायी दिये । उस रात हजारों कौओं ने उस वृक्ष पर बसेरा लिया था और वे आनन्द पूर्वक अलग-अलग घोसलों में सोये हुए थे । इसी समय उसे एक भयानक उल्लू उस ओर आता दिखायी दिया ।
वह धीरे-धीरे गुनगुनाता वट की एक शाखा पर कूदा और उस पर सोये हुए अनेकों कौओं को मारने लगा । उसने अपने पंजों से कई कौओं के पर नोच डाले, किन्हीं के सिर काट लिये और किन्हीं के पैर तोड़ दिये ।
इस प्रकार अपनी आँखों के सामने आये हुए अनेकों कौओं को उसने बात-की-बात में मार डाला । इससे वह सारा वट वृक्ष कौओं के शरीर और अंगावयवों से भर गया । नष्ट रात्रि के समय उल्लू का यह कपट पूर्ण व्यवहार देखकर अश्वत्थामा ने भी वैसा ही करने का संकल्प किया ।
उस एकान्त देश में वह विचारने लगा, “इस पक्षी ने अवश्य ही मुझे संग्राम करने की युक्ति का उपदेश किया है । यह समय भी इसी के योग्य है । पाण्डव लोग विजय पाकर बड़े तेजस्वी, बलवान् और उत्साही हो रहे हैं । इस समय अपनी शक्ति से तो मैं उन्हें मार नहीं सकता और राजा दुर्योधन के आगे उनका वध करने की मैं प्रतिज्ञा कर चुका हूँ ।
अब यदि मैं न्यायानुसार युद्ध करूँगा तो निःसंदेह मुझे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा । हाँ, कपट से अवश्य सफलता हो सकती है और शत्रुओं का भी खूब संहार हो सकता है ।
पाण्डवों ने भी तो पद-पद पर अनेकों निन्दनीय और कुत्सित कर्म किये हैं । युद्ध के अनुभवी लोगों का ऐसा कथन भी है कि जो सेना आधी रात के समय नींद में बेहोश हो, जिसका नायक नष्ट हो चुका हो, जिसके योद्धा छिन्न-भिन्न हो गये हों और जिसमें मतभेद पैदा हो गया हो, उस पर भी शत्रु को प्रहार करना चाहिये” ।
इस प्रकार विचार करके द्रोणपुत्र ने रात्रि समय सोये हुए पाण्डव और पांचाल-वीरों को नष्ट करने का निश्चय किया । फिर उसने कृपाचार्य और कृतवर्मा को जगाकर अपना निश्चय सुनाया | वे दोनों महावीर अश्वत्थामा की बात सुनकर बड़े लज्जित हुए और उन्हें उसका कोई उत्तर न सूझा । तब अश्वत्थामा ने एक मुहूर्त तक विचार करके अश्रुगद्गद होकर कहा, “महाराज दुर्योधन ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी थे।
उन्हें अनेकों क्षुद्र योद्धाओं ने मिलकर भीमसेन के हाथ से मरवा दिया | पापी भीम ने एक मूर्द्धा भिषिक्त सम्राट के मस्तक पर लात मारी-यह उसका कितना खोटा काम था | हाय! पाण्डवों ने कौरवों का कैसा भीषण संहार किया है कि आज इस महान् संहार से हम तीन ही बच पाये हैं ।
मैं तो इस सबको समय का फेर ही समझता हूँ । यदि मोहवश आप दोनों की बुद्धि नष्ट नहीं हुई है तो इस घोर संकट के समय हमारा क्या कर्तव्य है, यह बताने की कृपा करें” ।