महाभारत में अर्जुन द्वारा अविश्वसनीय पराक्रम दिखते हुए, कर्ण का वध हो जाने के पश्चात् कौरव पक्ष में मरघट सा सन्नाटा था । समस्त कौरव सूतपुत्र के वध से दुःखी थे, अतः ‘हा कर्ण! हा कर्ण!!’ पुकारते हुए बड़ी तेजी के साथ शिविर की ओर लौट गये । देवता और ऋषि भी अपने-अपने स्थान को चल दिये । नभचर और थलचर जीव अपनी-अपनी मौज के अनुसार आकाश और पृथ्वी के स्थानों में चले गये | दर्शक मनुष्य कर्ण और अर्जुन का अद्भुत संग्राम देखकर आश्चर्यमग्न हो दोनों की प्रशंसा करते हुए गये ।
धृतराष्ट्र को बताते हुए संजय ने कहा “महाराज ! उत्तम याचकों के माँगने पर जिसने सदा यही कहा कि ‘मैं दूंगा’, ‘मेरे पास नहीं है’ ऐसी बात जिसके मुँह से कभी निकली ही नहीं, ऐसा सत्पुरुष कर्ण द्वैरथ युद्ध में अर्जुन के हाथ से मारा गया जिसका सारा धन ब्राह्मणों के अधीन था, ब्राह्मणों के लिये जो अपना प्राण तक देने में आनाकानी नहीं करता था, जो महान् दानी और महारथी था, वही कर्ण अब आपके पुत्रों की विजय की आशा, भलाई और रक्षा-सब कुछ साथ लेकर स्वर्ग को चला गया |
कर्ण के मारे जाने पर जब सूर्य अस्त हो गया तो मंगल तथा बुध वक्र गति से उदित हुए, पृथ्वी में गड़गड़ाहट होने लगी, चारों दिशाओं में आग लग गयी, उनमें धुआँ छा गया, समुद्रों में तूफान आ गया, गर्जनाएँ होने लगीं, समस्त प्राणी व्यथित हो उठे और बृहस्पति रोहिणी को घेरकर चन्द्रमा तथा सूर्य के समान तेजस्वी रूप में प्रकट हुए ।
उस समय पृथ्वी काँप उठी उल्कापात होने लगा तथा आकाश में खड़े हुए देवता सहसा हाहाकार कर उठे । इस प्रकार कर्ण को मारने के पश्चात् प्रसन्नता से भरे हुए श्री कृष्ण तथा अर्जुन ने सोने को जाली से मढ़े हुए श्वेत शंख हाथों में लेकर उन्हें ओठों से लगाया और एक ही साथ बजाना आरम्भ किया । उनकी आवाज सुनकर शत्रुओं का हृदय विदीर्ण होने लगा | पांचजन्य और देवदत्त के गम्भीर घोष से पृथ्वी, आकाश तथा दिशाएँ गूंज उठीं ।
वह शंखनाद सुनते ही समस्त कौरव-सैनिक मद्रराज शल्य तथा राजा दुर्योधन को रण भूमि में ही छोड़कर भाग गये । उस समय सब लोगों ने एकत्र होकर श्रीकृष्ण और अर्जुन का सम्मान किया । वे दोनों उदित हुए सूर्य और चन्द्रमा की भाँति शोभा पा रहे थे । उनके पराक्रम की कहीं तुलना नहीं थी, वे अपने शरीर से बाण निकालकर मित्र मण्डली से घिरे हुए आनन्दपूर्वक अपनी छावनी में जा पहुँचे ।
जब कर्ण मारा गया था उस समय देवता, गन्धर्व, मनुष्य, चारण, महर्षि, यक्ष तथा नागों ने विजय एवं अभ्युदय की शुभ कामना प्रकट करते हुए उन दोनों की पूजा की । सभी ने उनके गुणों की प्रशंसा की ।
कर्ण की मृत्यु के पश्चात् जब कौरव पक्ष के हजारों योद्धा भयभीत होकर भाग गये तो आपके पुत्र ने राजा शल्य की सलाह मानकर युद्ध बंद करने की आज्ञा दी और सेना को एकत्रित कर पीछे लौटाया । मरने से बची हुई नारायणी-सेना के साथ कृतवर्मा, हजारों गान्धारों के साथ शकुनि तथा हाथियों की सेना के साथ कृपाचार्य भी शिविर की ओर लौटे ।
अश्वत्थामा भी पाण्डवों की विजय देखकर बारंबार उच्छ्वास लेता हुआ छावनी की ओर ही चल दिया । बचे हुए संशप्तकों सहित सुशर्मा और टूटी ध्वजा वाले रथ के साथ राजा शल्य भी डरते एवं लजाते हुए छावनी की ओर चले । कर्ण की मृत्यु देखकर समस्त कौरव भय से व्याकुल होकर काँप रहे थे, उनके शरीर से खून की धारा बह रही थी; अत:सब-के-सब उद्विग्न होकर भाग गये।
अब उन्हें अपने जीवन और राज्य की आशा न रही । दुर्योधन दुःख और शोक में डूब रहा था, वह बड़े यत्न से सबको एकत्र करके छावनी में ले आया । राजा की आज्ञा मान सभी सैनिकों ने शिविर में आकर विश्राम किया । उस समय सबका चेहरा फीका पड़ गया था |