उग्रश्रवा जी कहते हैं, ‘शौनकादि ऋषियो! अपने पिता की मृत्यु का इतिहास सुनकर जनमेजय को बड़ा दुःख हुआ। वे क्रुद्ध होकर हाथ-से-हाथ मलने लगे। शोक के कारण उनकी लम्बी और गरम साँस चलने लगी। आँखें आँसू से भर गयीं। वे दुःख, शोक तथा क्रोध से भरकर आँसू बहाते हुए शास्त्रोक्त विधि से हाथों में जल लेकर बोले, ‘मेरे पिता किस प्रकार स्वर्गवासी हुए, यह बात मैंने विस्तार के साथ सुन ली है।
जन्मेजय ने तक्षक से बदला लेने का निश्चय क्यों किया
जिस के कारण मेरे पिता की मृत्यु हुई है, उस दुरात्मा तक्षक से बदला लेने का मैंने पक्का निश्चय कर लिया है। उसने स्वयं मेरे पिता का नाश किया है, शृंगी ऋषि का शाप तो एक बहाना मात्र है। इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि उसने काश्यप ब्राह्मण को, जो विष उतार ने के लिये आ रहे थे और जिन के आने से मेरे पिता अवश्य ही जीवित हो जाते, धन देकर लौटा दिया। यदि हमारे मन्त्री काश्यप ब्राह्मण का अनुनय-विनय करते और वे अनुग्रहपूर्वक मेरे पिता को जीवित कर देते तो इससे उस दुष्ट की क्या हानि होती।
ऋषि का शाप पूरा हो जाता और मेरे पिता जीवित रह जाते। मेरे पिता की मृत्यु में सारा अपराध तक्षक का ही है, इसलिये मैं उससे अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने का संकल्प करता हूँ। ‘मन्त्रियों ने महाराज जनमेजय की इस प्रतिज्ञा का अनुमोदन किया। अब राजा जनमेजय ने पुरोहित और ऋत्विजों को बुलाकर कहा, ‘दुरात्मा तक्षक ने मेरे पिता की हिंसा की है। आप लोग ऐसा उपाय बताइये, जिससे मैं बदला ले सकूँ। क्या आप लोग ऐसा कर्म जानते हैं, जिससे मैं उस क्रूर नाग को धधकती आग में होम सकूँ?
जन्मेजय का नाग यज्ञ
‘ऋत्विजों ने कहा, “राजन्! देवताओं ने आपके लिये पहले से ही एक महायज्ञ का निर्माण कर रखा है। यह बात पुराणों में प्रसिद्ध है। उस यज्ञ का अनुष्ठान आपके अतिरिक्त और कोई नहीं करेगा, ऐसा पौराणिकों ने कहा है और हमें उस यज्ञ की विधि मालूम है।” ‘ऋत्विजों की बात सुनकर जनमेजय को विश्वास हो गया कि निश्चय ही अब तक्षक जल जायगा। राजा ने ब्राह्मणों से कहा, ‘मैं वह यज्ञ करूँगा। आप लोग इसके लिये सामग्री संग्रह कीजिये।’ वेदज्ञ ब्राह्मणों ने शास्त्र विधि के अनुसार यज्ञ-मण्डप बनाने के लिये जमीन नाप ली, यज्ञशाला के लिये श्रेष्ठ मण्डप तैयार कराया तथा राजा जनमेजय यज्ञ के लिये दीक्षित हुए।
इसी समय एक विचित्र घटना घटित हुई। किसी कला-कौशल के पारंगत विद्वान्, अनुभवी एवं बुद्धिमान् सूत ने कहा, ‘जिस स्थान और समय में यज्ञ-मण्डप मापने की क्रिया आरम्भ हुई है, उसे देखकर यह मालूम होता है कि किसी ब्राह्मण के कारण यह यज्ञ पूर्ण नहीं हो सकेगा।’ राजा जनमेजय ने यह सुनकर द्वारपाल से कह दिया कि मुझे सूचना कराये बिना कोई मनुष्य यज्ञ मण्डप में न आने पावे।
नागों का महाविनाश प्रारम्भ हुआ
अब नाग यज्ञ की विधि से कार्य प्रारम्भ हुआ। ऋत्विज् अपने-अपने काम में लग गये। ऋत्विजों की आँखें धूएं के कारण लाल-लाल हो रही थीं। वे काले-काले वस्त्र पहनकर मन्त्रोच्चारणपूर्वक हवन कर रहे थे। उस समय सभी नाग मन-ही-मन काँपने लगे। अब बेचारे नाग तड़पते, पुकारते, उछलते, लम्बी साँस लेते, पूँछ और फनों से एक-दूसरे को लपेटते आग में गिरने लगे। सफेद, काले, नीले, पीले, बच्चे, बूढ़े सभी प्रकार के नाग चिल्लाते हुए टपाटप आग के मुँह में गिरने लगे। कोई चार कोस तक लंबे और कोई कोई गाय के कान बराबर लंबे नाग ऊपर ही ऊपर कुण्ड में आहुति बन रहे थे।
नाग-यज्ञ में च्यवनवंशी चण्डभार्गव होता थे। कौत्स उद्गाता, जैमिनि ब्रह्मा तथा शार्ङ्गरव और पिंगल अध्वर्यु थे एवं पुत्र और शिष्यों के साथ व्यासजी, उद्दालक, प्रमतक, श्वेतकेतु, असित, देवल आदि सदस्य थे। नाम ले-लेकर आहुति देते ही बड़े-बड़े भयानक नाग आकर अग्नि-कुण्ड में गिर जाते थे। नागों की चर्बी और मेद की धाराएँ बहने लगी, बड़ी तीखी दुर्गन्ध चारों ओर फैल गयी तथा नागों की चिल्लाहट से आकाश गूंज उठा। यह समाचार तक्षक नाग ने भी सुना।
तक्षक ने जान बचाने के लिए क्या किया
वह भयभीत होकर देवराज इन्द्र की शरण में गया। उसने कहा, ‘देवराज! मैं अपराधी हूँ। भयभीत होकर आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी रक्षा कीजिये। ‘इन्द्र ने प्रसन्न होकर कहा कि’ मैंने तुम्हारी रक्षा के लिये पहले से ही ब्रह्मा जी से अभयवचन ले लिया है। तुम्हें नाग-यज्ञ से कोई भय नहीं। तुम दुःखी मत होओ। ‘इन्द्र की बात सुनकर तक्षक आनन्द से इन्द्रभवन में ही रहने लगा।