अधिकांश मंदिरो में देवी की मूरत का मुख सामने की तरफ होता है। लेकिन एक ऐसा मंदिर भी है जहाँ माँ काली देवी का मस्तक ऊपर आकाश की ओर है। दूसरे शब्दों में कहें तो यहाँ माता काली खेचरी मुद्रा में हैं। यह विश्व का एक मात्र ऐसा मंदिर है, जो अपने इस अनोखेपन के लिये प्रसिद्ध है। जो कोई भी यहाँ की विचित्रता की कहानी सुनता है वह इस विन्ध्य पर्वत की ओर खिंचा चला आता है।
यह विंध्याचल स्थान तांत्रिकों की साधना का केंद्र भी है। अब सरकार ने इस रमणीय पर्यटन स्थल पर घूमने के लिये रोप वे की व्यवस्था भी कर दी है। माँ काली का यह अदभुद मंदिर उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर ज़िले में है, जहाँ माँ काली का यह धाम विंध्याचल पहाड़ियों की गुफाओं में स्थित है। जिसे काली खोह के मंदिर के नाम से जाना जाता है।
विंध्याचल वह धार्मिक स्थल है जहाँ माँ विंध्यवासिनी, अष्टभुजा देवी और काली खोह मंदिर का त्रिकोण है। इन तीनों भव्य स्थानों के दर्शन के बाद ही इस क्षेत्र की धार्मिक यात्रा पूर्ण मानी जाती है। यहाँ हरी – भरी खूबसूरत पहाड़ियों के बीच एक गुफा में स्थित काली खोह का यह मंदिर बहुत रहस्यमयी है। जहाँ देवी की मूर्ति खेचरी मुद्रा में स्थापित हैं।
माँ काली की आसमान की ओर देखती हुई मूर्ति को जो कोई भी देखता है अचंभे से देखता रह जाता है। इस मंदिर की काली माँ की विचित्र मूर्ति की पौराणिक कहानी बड़ी दिलचस्प और अनोखी है। जो शक्ति स्वरूपा माँ काली की धरतीवासियों के प्रति असीम प्रेम को दर्शाती है।
यह कहानी है रक्तबीज नामक राक्षस की, जिसे यह वरदान प्राप्त था कि यदि कोई उसका वध करता है तो उसके शरीर से निकलने वाला रक्त जहाँ कहीं भी गिरेगा, वहाँ अपने आप नये -नये रक्तबीज दानव पैदा हो जायेंगे। एक बार अपने तप – बल के चलते दानव रक्तबीज ने देवलोक पर अपना अधिकार कर लिया। वहाँ पहुँच कर वह सभी देवताओं को सताने लगा।
सारे देवतागणों ने भयभीत होकर देवलोक छोड़ दिया। दानव रक्तबीज ने चारों तरफ त्राहि-त्राहि मचा दी। देवताओं में यह चिंता व्याप्त हो गयी कि इस अदभुद वरदान प्राप्त राक्षस रक्तबीज का संहार किस प्रकार किया जाये।
तब ब्रह्मा जी ने माँ विन्ध्यवासनी से विनती की कि वे माँ काली का ऐसा रूप धारण करें जिनका मुख आसमान की ओर हो, ताकि ऊपर देवलोक में दानव रक्तबीज के वध के बाद उसका रक्त धरती पर गिरने के पहले ही काली माँ उस राक्षस के रक्त का पान कर लें, जिससे उसके रक्त की एक भी बूंद धरती पर न गिरने पाये और धरती दानवों की उत्पत्ति से बची रहे।
माँ विन्ध्यवासनी ने देवताओं की इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। उन्होनें रक्तबीज का वध करने के लिये माँ काली का खेचरी मुद्रा वाला रूप धारण किया। उसके बाद माँ ने उस दानव रक्तबीज का संहार किया और उसका सारा रक्त पी गयीं। जिसके कारण धरती पर राक्षस रक्तबीज के रक्त की एक भी बूंद नहीं गिरी और इस प्रकार धरती पर दानवों का साम्राज्य होने से बच गया। धरतीवासियों का सदा कल्याण चाहने वाली काली खोह वाली माँ आज भी विंध्य पर्वत पर अपने भक्तों का दुख हर रही हैं।