उग्रश्रवा जी कहते है “ब्रह्मन् ! भृगु पुत्र च्यवन ने अपनी पत्नी सुकन्या के गर्भ से एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रमति था । महात्मा प्रमति बडे तेजस्वी थे । फिर प्रमति ने घृताची नाम की अप्सरा से रुरु नामक पुत्र उत्पन्न किया तथा रुरु के द्वारा प्रमद्वरा के गर्भ से शुनक का जन्म हुआ | महाभाग शौनक जी ! आप शुनक के ही पुत्र होने के कारण ‘शौनक’ कहलाते हैं ।
शुनक महान् सत्त्वगुण से सम्पन्न तथा सम्पूर्ण भृगुवंश का आनन्द बढ़ाने वाले थे । इनके जन्म लेते ही तीव्र तपस्या में संलग्न हो गये । इससे उनका अविचल यश सब ओर फैल गया । ब्रह्मन् ! मैं महातेजस्वी रुरु के सम्पूर्ण चरित्र का विस्तारपूर्वक वर्णन करूँगा । वह सब-का-सब आप सुनिये |
पूर्वकाल में स्थूलकेश नाम से विख्यात एक तप और विद्या से सम्पन्न महर्षि थे; जो समस्त प्राणियों के हित में लगे रहते थे । इन्हीं महर्षि के समय की बात है-गन्धर्वराज विश्वावसु ने मेनका के गर्भ से एक संतान उत्पन्न की | भृगुनन्दन ! मेनका अप्सरा ने गन्धर्वराज द्वारा स्थापित किये हुए उस गर्भ को समय पूरा होने पर स्थूलकेश मुनि के आश्रम के निकट जन्म दिया |
ब्रह्मन् ! निर्दय और निर्लज मेनका अप्सरा उस नवजात गर्भ को वहीं नदी के तट पर छोड़कर चली गयी | इसके बाद तेजस्वी महर्षि स्थूलकेश ने एकान्त स्थान में त्यागी हुई उस बन्धुहीन कन्या को देखा, जो देवताओं की बालिका के समान दिव्य शोभा से प्रकाशित हो रही थी । उस समय उस कन्या को वैसी दशा में देखकर द्विजश्रेष्ठ मुनिवर स्थूलकेश के मन में बड़ी दया आयी; अतः वे उसे उठा लाये और उसका पालन-पोषण करने लगे ।
वह सुन्दरी कन्या उनके शुभ आश्रम पर दिनों-दिन बढ़ने लगी । महाभाग महर्षि स्थूलकेश ने क्रमशः उस बालिका के जातकर्मादि सब संस्कार विधि पूर्वक सम्पन्न किये | वह बुद्धि, रूप और सब उत्तम गुणों से सुशोभित हो संसार की समस्त प्रमदाओं (सुन्दरी स्त्रियों ) से श्रेष्ठ जान पड़ती थी इसलिये महर्षि ने उसका नाम ‘प्रमदरा’ रख दिया ।
एक दिन धर्मात्मा रुरु ने महर्षि के आश्रम में उस प्रमदरा को देखा । उसे देखते ही उनके हृदय में तत्काल प्रेम के अंकुर फूट पड़े | तब उन्होंने मित्रों द्वारा अपने पिता भृगुवंशी प्रमति को अपनी अवस्था कहलायी । फिर प्रमति ने यशस्वी स्थूलकेश मुनि से (अपने पुत्रके लिये) उनकी वह कन्या माँगी | तब पिता ने अपनी कन्या प्रमदरा का रुरु के लिये वाग्दान कर दिया और आगामी उत्तरफाल्गुनी नक्षत्र में विवाह का मुहूर्त निश्चित किया |
इसके बाद जब विवाह का मुहूर्त निकट आ गया, उसी समय वह सुन्दरी कन्या सखियों के साथ क्रीडा करती हुई वन में घूमने लगी | मार्ग में एक साँप चौड़ी जगह घेरकर तिरछा सो रहा था । प्रमद्वरा ने उसे नहीं देखा । वह काल से प्रेरित होकर मरना चाहती थी, इसलिये सर्प कों पैर से कुचलती हुई आगे निकल गयी |
उस समय काल-धर्म से प्रेरित हुए उस सर्प ने उस असावधान कन्या के अङ्ग में बड़े जोर से अपने विषभरे दाँत गड़ा दिये | उस सर्प के डंस लेने पर वह सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ी । उसके शरीर का रंग उड़ गया, शोभा नष्ट हो गयी, आभूषण इधर-उधर बिखर गये और चेतना लुप्त हो गयी । उसके बाल खुले हुए थे । अब वह अपने उन बन्धुजनों के हृदय में विषाद उत्पन्न कर रही थी ।
जो कुछ ही क्षण पहले अत्यन्त सुन्दरी एवं दर्शनीय थी, वही प्राणशून्य होने के कारण अब देखने योग्य नहीं रह गयी, वह सर्प के विष से पीड़ित होकर गाढ़ निद्रा में सोयी हुई की भाँति भूमि पर पड़ी थी । उसके शरीर का मध्यभाग अत्यन्त कृश था । वह उस अचेतनावस्था में भी अत्यन्त मनोहारिणी जान पड़ती थी । उसके पिता स्थूलकेश ने तथा अन्य तपस्वी महात्माओं ने भी आकर उसे देखा ।
वह कमल की-सी कान्तिवाली किशोरी धरती पर चेष्टारहित पड़ी थी | इसके बाद स्वस्त्यात्रेय, महाजानु, कुशिक, शङ्खमेखल, उद्दालक, कठ, महायशस्वी श्वेत, भरद्वाज, कोणकुत्स्य, आष्टिषेण, गौतम, अपने पुत्र रुरुसहित प्रमति तथा अन्य सभी वनवासी श्रेष्ठ द्विज दया से द्रवित होकर वहाँ आये |
वे सब लोग उस कन्या को सर्प के विष से पीड़ित हो प्राणशून्य हुई देख करुणा वश रोने लगे । रुरु तो अत्यन्त आर्त होकर वहाँ से बाहर चला गया और शेष सभी द्विज उस समय वहीं बैठे रहे |
उग्रश्रवा जी कहते हैं “शौनक जी ! वे ब्राह्मण प्रमद्वरा के चारों ओर वहाँ बैठे थे, उसी समय रुरु अत्यन्त दुःखित हो गहन वन में जाकर जोर-जोर से रुदन करने लगा । शोक से पीड़ित होकर उसने बहत करुणा जनक विलाप किया और अपनी प्रियतमा प्रमद्वरा का स्मरण करके शोकमग्न हो इस प्रकार बोला “हाय ! वह कृशाङ्गी बाला मेरा तथा समस्त बान्धवों का शोक बढ़ाती हुई भूमि पर सो रही है ।
इससे बढ़कर दुःख और क्या हो सकता है | यदि मैंने दान दिया हो, तपस्या की हो अथवा गुरुजनों-की भली भाँति आराधना की हो तो उसके पुण्य से मेरी प्रिया जीवित हो जाय |
यदि मैंने जन्म से लेकर अब तक मन और इन्द्रियो पर संयम रक्खा हो और ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का दृढ़ता पूर्वक पालन किया हो तो यह मेरी प्रिया प्रमद्वरा अभी जी उठे, यदि पापी असुरों का नाश करने वाले इन्द्रियों के स्वामी जगदीश्वर एवं सर्वव्यापी भगवान् श्रीकृष्ण में मेरी अविचल भक्ति हो तो यह कल्याणी प्रमद्वरा जी उठे” |
इस प्रकार जब रुरु पत्नी के लिये दुःखित हो अत्यन्त विलाप कर रहा था, उस समय एक देवदूत उसके पास आया और वन में रुरु से बोला | देवदूत ने कहा “धर्मात्मा रुरु ! तुम दुःख से व्याकुल हो अपनी वाणी द्वारा जो कुछ कहते हो, वह सब व्यर्थ है, क्योंकि जिस मनुष्य की आयु समाप्त हो गयी है, उसे फिर आयु नहीं मिल सकती ।
यह बेचारी प्रमद्वरा गन्धर्व और अप्सरा की पुत्री थी । इसे जितनी आयु मिली थी, वह पूरी हो चुकी है । अतः तात ! तुम किसी तरह भी मन को शोक में न डालो | इस विषय में महात्मा देवताओं ने एक उपाय निश्चित किया है । यदि तुम उसे करना चाहो, तो इस लोक में प्रमद्वरा को पा सकोगे” |
रुरु बोला “आकाशचारी देवदूत ! देवताओं ने कौन-सा उपाय निश्चित किया है, उसे ठीक-ठीक बताओ? उसे सुनकर मैं अवश्य वैसा ही करूँगा । तुम मुझे इस दुःखसे बचाओ” | देवदूत ने कहा “भृगु नन्दन रुरु ! तुम उस कन्या के लिये अपनी, अब से बची हुई, आधी आयु दे दो । ऐसा करने से तुम्हारी भार्या प्रमद्वरा जी उठेगी |
रुरु बोला “देवश्रेष्ठ ! मैं उस कन्या को अपनी आधी आयु देता हूँ । मेरी प्रिया अपने श्रुंगार, सुन्दर रूप और, आभूषणों के साथ जावित हो उठे” | उग्रश्रवा जी कहते हैं तब गन्धर्वराज विश्वावसु और देवदूत दोनों सत्पुरुषों ने धर्मराज के पास जाकर कहा “धर्मराज ! रुरु की भार्या कल्याणी प्रमद्वरा मर चुकी है । यदि आप मान लें तो वह रुरु की आधी आयु से जीवित हो जाय” |
धर्मराज बोले “देवदूत ! यदि तुम रुरु की भार्या प्रमद्वरा को जिलाना चाहते हो तो वह रुरु की ही आधी आयु से संयुक्त होकर जीवित हो उठे” | उग्रश्रवा जी कहते हैं “धर्मराज के ऐसा कहते ही वह सुन्दरी मुनिकन्या प्रमद्वरा रुरु की आधी आयु से संयुक्त हो सोयी हुई की भाँति जाग उठी | उत्तम तेजस्वी रुरु के भाग्य में ऐसी बात देखी गयी थी ।
उनकी आयु बहुत बढ़ी-चढ़ी थी । जब उन्होंने भार्या के लिये अपनी आधी आयु दे दी, तब दोनों के पिताओं ने निश्चित दिन में प्रसन्नता पूर्वक उनका विवाह कर दिया । वे दोनों दम्पति एक-दूसरे के हितैषी होकर आनन्द पूर्वक रहने लगे | कमल के केसर की-सी कान्ति वाली उस दुर्लभ भार्या को पाकर व्रतधारी रुरु ने सर्पों के विनाश का निश्चय कर लिया |
वह सर्पों को देखते ही अत्यन्त क्रोध में भर जाता और हाथ में डंडा ले उन पर यथाशक्ति प्रहार करता था | एक दिन की बात है, ब्राह्मण रुरु किसी विशाल वन में गया | वहाँ उसने डुण्डुभ जाति के एक बूढ़े साँप को सोते देखा उसे देखते ही उसके क्रोध का पारा चढ़ गया और उस ब्राह्मण ने उस समय सर्प को मार डालने की इच्छा से कालदण्ड के समान भयंकर डंडा उठाया ।
तब उस डुण्डुभ ने मनुष्य की बोली में कहा | तपोधन ! आज मैंने तुम्हारा कोई अपराध तो नहीं किया है ? फिर किसलिये क्रोध के आवेश में आकर तुम मुझे मार रहे हो ?
रुरु बोला “सर्प ! मेरी प्राणों के समान प्यारी पत्नी को एक साँप ने डॅस लिया था । उसी समय मैंने यह घोर प्रतिज्ञा कर ली कि जिस-जिस सर्प को देख लूँगा, उसे-उसे अवश्य मार डालूंगा । उसी प्रतिज्ञा के अनुसार मैं तुम्हें मार डालना चाहता हूँ । अतः आज तुम्हें अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा” |
डुण्डुभ ने कहा “ब्रह्मन् ! वे दूसरे ही साँप हैं जो इस लोक में मनुष्यो को डंसते हैं । साँपों की आकृति मात्र से ही तुम्हें डुण्डुभों को नहीं मारना चाहिये | अहो ! आश्चर्य है, बेचारे डुण्डुभ अनर्थ भोगने में सब सर्पों के साथ एक हैं । परंतु उनका स्वभाव एक दूसरे से सर्वथा भिन्न है । दुःख भोगने में तो वे सब सर्पों के साथ एक हैं; किंतु सुख सबका अलग-अलग है । तुम धर्मज्ञ हो, अतः तुम्हें डुण्डु की हिंसा नहीं करनी चाहिये” |
उग्रश्रवा जी कहते हैं “डुण्डुम ! सर्प का यह वचन सुनकर रुरु ने उसे कोई भयभीत ऋषि समझा, अतः उसका वध नहीं किया, इसके सिवा, बड़भागी रुरु ने उसे शान्ति प्रदान करते हुए से कहा ”हे भुजंग ! बताओ, इस विकृत (सर्प) योनि में पड़े हुए तुम कौन हो” ?
डुण्डुभ ने कहा “हरो ! मैं पूर्वजन्म में सहस्रपाद नामक ऋषि था, किंतु एक ब्राह्मण के शाप से मुझे इस सर्पयोनि में आना पड़ा है
रुरु ने पूछा “भुजन्गोत्तम ! उस ब्राह्मण ने किसलिये कुपित होकर तुम्हें शाप दिया ? तुम्हारा यह शरीर अभी कितने समयतक रहेगा” ?
डुण्डुभ ने कहा “तात ! पूर्वकाल में खगम नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण मेरा मित्र था । वह महान् तपोबल से सम्पन्न होकर भी बहुत कठोर वचन बोला करता था। एक दिन वह अग्निहोत्र में लगा था । मैंने खिलवाड़ में तिनकों का एक सर्प बनाकर उसे डरा दिया ।
वह भय के मारे मूर्छित हो गया, फिर होश में आने पर वह सत्यवादी एवं कठोर व्रती तपस्वी मुझे क्रोध से दग्ध-सा करता हुआ बोला “तुमने मझे डराने के लिये जैसा अल्प शक्ति वाला सर्प बनाया था, मेरे शापवश ऐसा ही अल्पशक्ति सम्पन्न सर्प तुझे भी होना पड़ेगा”’ |
“तपोधन मैं उसकी तपस्या का बल जानता था, अतः मेरा हृदय अत्यन्त उद्विग्न हो उठा और बड़े वेग से उसके चरणों में प्रणाम करके हाथ जोड़, सामने खड़ा हो, उस तपो-धन से बोला “सखे ! मैंने परिहास के लिये सहसा यह कार्य कर डाला है । ब्रह्मन् ! इसके लिये क्षमा करो और अपना यह शाप लौटा लो” ।
मुझे अत्यन्त घबराया हुआ देखकर सम्भ्रम में पड़े हुए उस तपस्वी ने बार-बार गरम साँस खींचते हए कहा “मेरी कही हुई यह बात किसी प्रकार झूठी नहीं हो सकती | निष्पाप तपोधन ! इस समय मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनो और सुनकर अपने हृदय में सदा धारण करो | भविष्य में महर्षि प्रमति के पवित्र पुत्र रुरु उत्पन्न होंगे, उनका दर्शन करके तुम्हें शीघ्र ही इस शाप से छुटकारा मिल जायगा” |
जान पड़ता है तुम वहीं रुरु नाम से विख्यात महर्षि प्रमति के पुत्र हो । अब मैं अपना स्वरूप धारण करके तुम्हारे हित की बात बताऊँगा, इतना कहकर महायशस्वी विप्रवर सहस्रपाद ने डुण्डुभ का रूप त्यागकर पुनः अपने प्रकाशमान स्वरूप को प्राप्त कर लिया ।
फिर अनुपम ओज वाले रुरु से यह बात कही “समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ ब्राह्मण ! अहिंसा सबसे उत्तम धर्म है, अतः ब्राह्मण को समस्त प्राणियों में से किसी की कभी और कहीं भी हिंसा नहीं करनी चाहिये । ब्राह्मण इस लोक में सदा सौम्य स्वभाव का ही होता है, ऐसा श्रुति का उत्तम वचन है | वह वेद-वेदाङ्गों का विद्वान् और समस्त प्राणियों को अभय देने वाला होता है ।
अहिंसा, सत्यभाषण, क्षमा और वेदो का स्वाध्याय निश्चय ही ये ब्राह्मण के उत्तम धर्म है । क्षत्रिय का जो धर्म है वह तुम्हारे लिये अभीष्ट नहीं है। दण्डधारण, उग्रता और प्रजापालन-ये सब क्षत्रियों के कर्म रहे हैं ।
मेरी बात सनो, पहले राजा जनमेजय के यज्ञ में सर्पों की बड़ी भारी हिंसा हुई । द्विज श्रेष्ठ । फिर उसी सर्पसत्र में तपस्या के बल-वीर्य से सम्पन्न, वेद-वेदाङ्गों के पारङ्गत विद्वान् विप्रवर आस्तीक नामक ब्राह्मण के द्वारा भयभीत सर्पों की प्राणरक्षा हुई |